अतः पादार्घगुणहीनौ मध्यमावरौ
तेषां जनपद्ऽभिजनं अवग्रहं चाप्ततः परीक्षेत, समानविद्येभ्यः शिल्पं शास्त्रचक्षुष्मत्तां च, कर्मारम्भेषु प्रज्ञां धारयिष्णुतां दाक्ष्यं च, कथायोगेषु वाग्मित्वं प्रागल्भ्यं प्रतिभानवत्त्वं च, संवासिभ्यः शीलबलारोग्यसत्त्वयोगं अस्तम्भं अचापलं च, प्रत्यक्षतः सम्प्रियत्वं अवैरत्वं च
प्रत्यक्षपरोक्षानुमेया हि राजवृत्तिः
स्वयं द्र्ष्टं प्रत्यक्षम्
पर उपदिष्टं परोक्षम्
कर्मसु कृतेनाकृतावेक्षणं अनुमेयम्
यौगपद्यात् तु कर्मणां अनेकत्वाद् अनेकस्थत्वाच्च देशकालात्ययो मा भूद् इति परोक्षं अमात्यैः कारयेत् इत्यमात्यकर्म ।
पुरोहितं उदित उदितकुलशीलं स-अङ्गे वेदे दैवे निमित्ते दण्डनीत्यां चाभिविनीतं आपदां दैवमानुषीणां अथर्वभिरुपायैश्च प्रतिकर्तारं कुर्वीत
तं आचार्यं शिष्यः पितरं पुत्रो भृत्यः स्वामिनं इव चानुवर्तेत
ब्राह्मणेन एधितं क्षत्रं मन्त्रिमन्त्राभिमन्त्रितम् ।
जयत्यजितं अत्यन्तं शास्त्रानुगमशस्त्रितम्
इसलिए जिनके पास महान गुण नहीं होते, अर्थात् जो मध्यम स्तर के होते हैं, उनकी जनपद की महानता और स्व-ग्रह की परीक्षा इस प्रकार होनी चाहिए कि वे समान शिक्षा प्राप्त लोगों से कला और शास्त्र की दृष्टि से श्रेष्ठ हों, कर्म आरम्भ में प्रज्ञाशील और दक्ष हों, कथाओं में वाक्पटु, प्रगल्भ, प्रतिभावान हों, और उनका व्यवहार शील, बल, स्वास्थ्य और सद्गुणयुक्त हो, वे न तो स्तम्भवत कठोर हों न च चपल, और प्रत्यक्ष रूप से प्रिय तथा वैर रहित हों।
राजनीति में प्रत्यक्ष, परोक्ष और अनुमान द्वारा ज्ञान आवश्यक है। स्वयं देखा हुआ प्रत्यक्ष होता है, जो परोपदेशित होता है वह परोक्ष है, और कर्मों में किए गए और न किए गए कार्यों की निरीक्षण करना अनुमानित होता है।
कार्यस्थल पर कर्मों की विभिन्नता, अनेकता और स्थानान्तर, देशकाल परिवर्तन के कारण अलग-अलग परिस्थितियाँ होती हैं, इसलिए अनेक प्रकार के कर्मों के नियम अमात्य (मंत्री) द्वारा लागू कराए जाने चाहिए।
पुरोहित (वैदिक गुरु) उच्च कुल से उत्थित, कुल परंपरा वाले, वेदों, देवताओं, कारणों और दंडनीति में निपुण तथा आपदाओं के लिए वैदिक और अन्य उपायों के ज्ञाता होने चाहिए।
ऐसे आचार्य का शिष्य, पुत्र, सेवक और स्वामी समान रूप से अनुसरण करें।
ब्राह्मणों द्वारा समर्थित क्षत्रियों को मंत्रि मंत्रणा द्वारा समर्थन प्राप्त होता है।
ऐसे व्यक्ति अत्यंत श्रेष्ठ, विजयशील, और शास्त्रानुगत होते हैं।
व्याख्या
जानपदो अभिजातः स्ववग्रहः कृतशिल्पश्चक्षुष्मान् प्राज्ञो धारयिष्णुर्दक्षो वाग्मी प्रगल्भः प्रतिपत्तिमान् उत्साहप्रभावयुक्तः क्लेशसहः शुचिर्मैत्रो दृढभक्तिः शीलबलारोग्यसत्त्वयुक्तः स्तम्भचापलहीनः सम्प्रियो वैराणां अकर्ता इत्यमात्यसम्पत्
इस भाग में एक आदर्श व्यक्ति या वर्ग के गुणों का विस्तृत वर्णन होता है। यहाँ वर्णित गुण मुख्यतः चार प्रकार के होते हैं – जाति, स्वाभाव, बुद्धि-ज्ञान, तथा सामाजिक और नैतिक चरित्र।
- जानपदो अभिजातः – जाति या कुल के उच्च या अभिजात होने का उल्लेख है, जो सामाजिक प्रतिष्ठा का सूचक है। यह किसी व्यक्ति की वंश और जन्म से जुड़े उच्च स्तर को दर्शाता है।
- स्ववग्रहः – स्वयं की स्थिति, स्वाभिमान या आत्मगौरव को सूचित करता है, जिससे पता चलता है कि व्यक्ति स्वयं के प्रति जागरूक और अपने गुणों का सही बोध रखता है।
- कृतशिल्पश्चक्षुष्मान् – कौशल और कला में निपुण, शिल्प में दक्ष। यह व्यावहारिक कौशल और कला के प्रति सूक्ष्म दृष्टि को दर्शाता है, जो किसी भी कार्य के प्रभावी निष्पादन के लिए आवश्यक है।
- प्राज्ञो धारयिष्णुः – बुद्धिमान और ज्ञानवान, जो व्यावहारिक बुद्धि धारण करने में सक्षम हो। यह ज्ञान केवल सैद्धांतिक न होकर व्यावहारिक अनुभवयुक्त हो।
- दक्षो वाग्मी प्रगल्भः – वाक्पटुता और संवाद में प्रवीणता; स्पष्ट, प्रभावशाली और प्रवाहपूर्ण वाणी।
- प्रतिपत्तिमान् – विवेकशील, सूझ-बूझ रखने वाला, परिस्थितियों को भलीभांति समझने वाला।
- उत्साहप्रभावयुक्तः – कार्यों में जोश और सकारात्मक प्रभाव उत्पन्न करने वाला। यह न केवल स्वयं उत्साही होता है बल्कि अपने आस-पास भी प्रेरणा फैलाता है।
- क्लेशसहः – कठिनाइयों और विघ्नों को सहन करने वाला, धैर्यशील।
- शुचिः – शारीरिक और मानसिक स्वच्छता, निर्मलता, जो आचार-व्यवहार और सोच में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है।
- मैत्रः – मित्रवत, सौहार्दपूर्ण, सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार वाला।
- दृढभक्तिः – किसी सिद्धांत, उद्देश्य या व्यक्ति के प्रति दृढ़ निष्ठा और भक्ति।
- शीलबलारोग्यसत्त्वयुक्तः – आचार, बल, स्वास्थ्य और मनोबल का सम्मिलित गुण। यह जीवन के भौतिक और मानसिक दोनों पक्षों में सशक्तता दर्शाता है।
- स्तम्भचापलहीनः – स्थिर और अचल मनोभाव वाला, जो मनोविकारों या अनियमितता से मुक्त हो। स्तम्भता यानी स्थिरता और चापल्यता यानी चंचलता की अनुपस्थिति।
- सम्प्रियो वैराणां अकर्ता – शत्रुओं के प्रति सहिष्णु और शत्रुता उत्पन्न न करने वाला, जो वैर भाव से रहित है।
- इत्यमात्यसम्पत् – ऐसा व्यक्ति जो योग्य मंत्री की तरह राज्य के कार्यों में दक्ष हो, न केवल सलाहकार बल्कि कार्यकर्ता भी।
सारांशतः, इस खंड में उस व्यक्ति या वर्ग का चित्रण है जो कुलीन, आत्मसमानित, कला-कौशल में निपुण, बुद्धिमान, वाक्पटु, विवेकपूर्ण, उत्साही, सहनशील, स्वच्छचित्त, मित्रवत, निष्ठावान, शक्तिशाली, स्थिर मनोवृत्ति वाला और शत्रुओं के प्रति क्षमाशील हो। इस प्रकार के व्यक्ति को राज्य में मंत्री या प्रमुख पदाधिकारी के समान माना जाता है।
अतः पादार्घगुणहीनौ मध्यमावरौ तेषां जनपद्ऽभिजनं अवग्रहं चाप्ततः परीक्षेत
यहाँ किसी व्यक्ति के गुणों का मूल्यांकन करते हुए उसकी मध्यम या निम्न स्थिति की पहचान की आवश्यकता व्यक्त होती है।
- पादार्घगुणहीनौ मध्यमावरौ – पादार्घ शब्द से तात्पर्य होता है व्यक्ति की औसत या सामान्य क्षमताओं से, जिनमें कुछ गुणों की कमी हो। 'मध्यमावरौ' का अर्थ मध्यम स्तर के, अर्थात न श्रेष्ठ न ही बहुत ही निम्न स्तर के।
- तेषां जनपद् अभिजनं अवग्रहं च – इस प्रकार के व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति (जनपद) तथा कुल या जाति (अभिजन) का परिशीलन आवश्यक है।
- आप्ततः परीक्षेत – विश्वासपात्रों या अनुभवी व्यक्तियों से उनकी योग्यता की परीक्षा लेनी चाहिए। अर्थात्, केवल बाहरी आकलन से नहीं, बल्कि विश्वसनीय स्रोतों से जांच करनी चाहिए।
कुल मिलाकर, यह हिस्सा उस प्रक्रिया को दर्शाता है जिसमें मध्यम या संदेहास्पद व्यक्तियों के सामाजिक, कौशल और बुद्धि सम्बन्धी गुणों का व्यापक परीक्षण आवश्यक होता है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि वे पद के योग्य हैं या नहीं।
समानविद्येभ्यः शिल्पं शास्त्रचक्षुष्मत्तां च, कर्मारम्भेषु प्रज्ञां धारयिष्णुतां दाक्ष्यं च, कथायोगेषु वाग्मित्वं प्रागल्भ्यं प्रतिभानवत्त्वं च, संवासिभ्यः शीलबलारोग्यसत्त्वयोगं अस्तम्भं अचापलं च, प्रत्यक्षतः सम्प्रियत्वं अवैरत्वं च
यह खंड विभिन्न गुणों का विवेचन करता है जो कार्य और सामाजिक व्यवहार में व्यक्ति की भूमिका तय करते हैं:
- समानविद्येभ्यः शिल्पं शास्त्रचक्षुष्मत्तां च – ज्ञान के समान स्तर के बीच कला-कौशल तथा शास्त्रीय दृष्टि या सूक्ष्म दृष्टि। कार्यक्षेत्र में दक्षता के साथ साथ शास्त्रीय और तर्कसंगत समझ।
- कर्मारम्भेषु प्रज्ञां धारयिष्णुतां दाक्ष्यं च – कार्य शुरू करने में बुद्धिमत्ता, धैर्य और कौशल। न केवल कार्य आरंभ करना, बल्कि उसे संचालित करने में दक्ष होना।
- कथायोगेषु वाग्मित्वं प्रागल्भ्यं प्रतिभानवत्त्वं च – संवाद, वार्ता और उपदेश में वाक्पटुता, निपुणता और प्रतिभा।
- संवासिभ्यः शीलबलारोग्यसत्त्वयोगं अस्तम्भं अचापलं च – सहवास में आचार-संहिता, बल, स्वास्थ्य और सत्त्व का संयोजन; साथ ही स्थिरता और चंचलता का अभाव। स्थिर मानसिकता।
- प्रत्यक्षतः सम्प्रियत्वं अवैरत्वं च – व्यक्तित्व में मित्रवत व्यवहार और शत्रुता न रखना। सीधे तौर पर लोगों के प्रति प्रियभाव और वैरहितता।
व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों दृष्टिकोणों से यह वर्णन व्यक्ति के व्यवहार, कर्म, संवाद कौशल और सामाजिक मेल-जोल के गुणों की स्पष्ट अभिव्यक्ति करता है।
प्रत्यक्षपरोक्षानुमेया हि राजवृत्तिः स्वयं द्र्ष्टं प्रत्यक्षम् पर उपदिष्टं परोक्षम् कर्मसु कृतेनाकृतावेक्षणं अनुमेयम्
यह भाग शासन और राज्यव्यवहार के मूल तत्वों को उद्घाटित करता है:
- प्रत्यक्षपरोक्षानुमेया हि राजवृत्तिः – शासन कार्य में प्रत्यक्ष (साक्षात्) और परोक्ष (अप्रत्यक्ष) तत्वों का विवेचन आवश्यक है।
- स्वयं द्रष्टं प्रत्यक्षम् – स्वयं अनुभव किया गया या देखा हुआ साक्ष्य।
- पर उपदिष्टं परोक्षम् – अन्य द्वारा बताया गया अप्रत्यक्ष ज्ञान।
- कर्मसु कृतेनाकृतावेक्षणं अनुमेयम् – कार्यों में किए गए और न किए गए कार्यों का निरीक्षण और अनुमान। इसमें निष्क्रियता को भी देखा जाता है, क्योंकि किसी कार्य की अनुपस्थिति भी एक प्रकार का संदेश देती है।
राजनीतिक और प्रशासनिक विवेक में सीधे अनुभव के साथ-साथ अप्रत्यक्ष सूचना, कर्म के परिणाम और गैर-कार्यवाही का अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। एक सक्षम शासक को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों स्रोतों से सूचनाएँ ग्रहण कर निर्णय लेना चाहिए।
यौगपद्यात् तु कर्मणां अनेकत्वाद् अनेकस्थत्वाच्च देशकालात्ययो मा भूद् इति परोक्षं अमात्यैः कारयेत् इत्यमात्यकर्म
इस वाक्यांश में मंत्री या प्रशासनिक अधिकारियों के कार्य में भेद-भाव और अतिरेक से बचने की चेतावनी दी गई है:
- यौगपद्यात् तु कर्मणां अनेकत्वाद् अनेकस्थत्वाच्च – कार्यों की विविधता और विभिन्न स्थानों पर उनका फैलाव।
- देशकालात्ययो मा भूद् – कार्यों का क्षेत्र और काल के अनुकूल होना चाहिए, अतिशय या अनुचित विस्तार नहीं होना चाहिए।
- इति परोक्षं अमात्यैः कारयेत् – इस प्रकार का नियंत्रण और मर्यादा अप्रत्यक्ष रूप से मंत्रियों द्वारा सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
- इत्यमात्यकर्म – मंत्री या प्रशासनिक कर्तव्यों के लिए यह निर्देशित किया गया है।
कार्य के वितरण में संतुलन बनाए रखना चाहिए ताकि कार्यभार का उचित प्रबंधन हो, किसी प्रकार का अधिभार या कार्यों का अकारण विस्तार न हो, जिससे प्रशासनिक अराजकता उत्पन्न हो। यह नीति कार्यकुशलता और अनुशासन सुनिश्चित करती है।
पुरोहितं उदित उदितकुलशीलं स-अङ्गे वेदे दैवे निमित्ते दण्डनीत्यां चाभिविनीतं आपदां दैवमानुषीणां अथर्वभिरुपायैश्च प्रतिकर्तारं कुर्वीत तं आचार्यं शिष्यः पितरं पुत्रो भृत्यः स्वामिनं इव चानुवर्तेत
यह अंश समाज में विभिन्न पदों और उनके प्रति उचित व्यवहार का विधान प्रस्तुत करता है:
- पुरोहितं उदित उदितकुलशीलं – ब्राह्मण या पुरोहित जो कुल और आचरण में श्रेष्ठ हो।
- स-अङ्गे वेदे दैवे निमित्ते दण्डनीत्यां चाभिविनीतं – वेद, धार्मिक कर्मकाण्ड, दंडनीति (शासन की नीति) में निपुण और विनीत (शिष्ट) हो।
- आपदां दैवमानुषीणां अथर्वभिरुपायैश्च प्रतिकर्तारं कुर्वीत – विपत्तियों में प्राकृतिक और मानवीय कारणों का निवारण करने वाला, तथा मन्त्र (अथर्ववेद) के उपायों से समस्या का समाधान करने वाला हो।
- तं आचार्यं शिष्यः पितरं पुत्रो भृत्यः स्वामिनं इव चानुवर्तेत – पुरोहित या गुरु के प्रति शिष्य, पुत्र, सेवक और स्वामी जैसे सम्मान और अनुशासन के साथ पालन किया जाना चाहिए।
यहां समाज के विभिन्न वर्गों के बीच सम्मान और कर्तव्य बोध की व्यवस्था स्पष्ट है। पुरोहित या आचार्य का सामाजिक और धार्मिक महत्व, उनके प्रति अनुशासन और श्रद्धा के आधार पर स्थापित होता है। सामाजिक समरसता और व्यवस्था में यह अत्यंत आवश्यक है।
ब्राह्मणेन एधितं क्षत्रं मन्त्रिमन्त्राभिमन्त्रितम् जयत्यजितं अत्यन्तं शास्त्रानुगमशस्त्रितम्॥९॥
अंतिम भाग में सत्ता के स्वामित्व और प्रशासन के सिद्धांतों की व्याख्या निहित है:
- ब्राह्मणेन एधितं क्षत्रं – ब्राह्मणों द्वारा अधिष्ठित या संरक्षित राजसत्ता। यह शक्ति धार्मिक और सामाजिक आदेश के आधार पर स्थापित होती है।
- मन्त्रिमन्त्राभिमन्त्रितम् – मंत्रियों द्वारा समर्थित और निर्देशित शासन।
- जयत्यजितं अत्यन्तं – पराक्रम और विजय प्राप्त शासन।
- शास्त्रानुगमशस्त्रितम् – शास्त्रों के अनुसार अनुसरित और शासित शासन। शास्त्र की आज्ञा और नियमों के पालन से स्थिर और प्रभावशाली राज्य व्यवस्था संभव होती है।
सत्ता की सफलता, उसकी स्थिरता और विजय शास्त्रों के अनुपालन, मंत्रिपरिषद के नेतृत्व और ब्राह्मणों की सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ी होती है। प्रशासनिक और धार्मिक संतुलन शासन की मजबूती का आधार है।
विवेचनात्मक चिंतन एवं दार्शनिक विचार
उक्त ग्रन्थात्मक श्लोकों में नीति, प्रशासन और सामाजिक व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं को संकलित किया गया है जो किसी भी राज्य के सुचारु संचालन के लिए आवश्यक माने जाते हैं। इनमें न केवल व्यक्ति के व्यक्तित्वगत गुणों, सामाजिक प्रतिष्ठा, विद्या और कला के साथ-साथ व्यवहारिक कौशलों का महत्व प्रतिपादित है, बल्कि यह भी स्पष्ट किया गया है कि प्रशासन में संतुलन, विवेक, और अनुशासन कितने आवश्यक हैं।
आत्मगौरव और कौशलों के साथ-साथ धैर्य और सामाजिक सद्भाव का उल्लेख किसी भी शासन या संगठन के मूल स्तम्भ के रूप में किया गया है। यह दृष्टिकोण आधुनिक प्रबंधन शास्त्र के सिद्धांतों से भी अनुकूल है जहाँ नेतृत्व की योग्यता, टीम के सदस्यों के चयन, और संतुलित कार्य विभाजन की आवश्यकता बताई जाती है।
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष स्रोतों से जानकारी प्राप्त करना प्रशासनिक निर्णयों के लिए अनिवार्य माना गया है। यहां दार्शनिक प्रश्न उठता है कि सत्ता में सूचना का कौन सा स्तर अधिक प्रभावी होता है – प्रत्यक्ष अनुभूति या अप्रत्यक्ष सूचना? किन्तु सूचनाओं की बहुलता और उनके स्रोतों का विवेकपूर्ण मूल्यांकन निर्णय की गुणवत्ता बढ़ाता है।
कार्य भार में संतुलन, समय और स्थान के अनुसार निर्णय लेना प्रशासन की प्रभावशीलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अत्यधिक अधिभार या असंगत कार्य वितरण से प्रणाली की दक्षता घटती है।
पुरोहित और मंत्री जैसे विभिन्न वर्गों के कर्तव्य, उनका आपसी सम्मान और अनुशासन व्यवस्था के सामाजिक और धार्मिक पक्ष को स्पष्ट करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि शासन व्यवस्था केवल प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक सामाजिक-धार्मिक संरचना भी है।
शासन की सफलता का आधार शास्त्रीय ज्ञान, सामाजिक प्रतिष्ठा और कर्तव्यनिष्ठा से जुड़ा होता है। यह दार्शनिक दृष्टि राज्य के स्थायित्व के लिए धर्म, नीति और शक्ति के सम्मिलित संरक्षण को अपरिहार्य मानती है।
समग्रतः, नीति, प्रशासन और सामाजिक व्यवहार की यह विवेचना एक सुव्यवस्थित और संगठित राज्य व्यवस्था के लिए व्यक्तित्व, व्यवहार, और सामाजिक कर्तव्यों के एकीकृत स्वरूप को प्रदर्शित करती है। इसके अंतर्निहित तत्व आज के युग में भी प्रासंगिकता रखते हैं, जहाँ नेतृत्व, संगठनात्मक योग्यता और सामाजिक समझ के सम्मिलन से ही सुदृढ़ प्रबंधन संभव है।