श्लोक ०१-०८

Kautilya Arthashastra by Acharya Chankya
सहाध्यायिनो अमात्यान् कुर्वीत, दृष्टशौचसामर्थ्यत्वात् इति भारद्वाजः
ते ह्यस्य विश्वास्या भवन्ति इति
न इति विशालाक्षः
सहक्रीडितत्वात् परिभवन्त्येनम्
ये ह्यस्य गुह्यसधर्माणः तान् अमात्यान् कुर्वीत, समानशीलव्यसनत्वात्
ते ह्यस्य मर्मज्ञभयान्नापराध्यन्ति इति
साधारण एष दोषः इति पाराशराः
तेषां अपि मर्मज्ञभयात् कृताकृतान्यनुवर्तेत
यावद्भ्यो गुह्यं आचष्टे जनेभ्यः पुरुषाधिपः ।
अवशः कर्मणा तेन वश्यो भवति तावताम्
य एनं आपत्सु प्राणाबाधयुक्तास्वनुगृह्णीयुः तान् अमात्यान् कुर्वीत, दृष्टानुरागत्वात् इति
न इति पिशुनः
भक्तिरेषा न बुद्धिगुणः
सङ्ख्यातार्थेषु कर्मसु नियुक्ता ये यथाऽऽदिष्टं अर्थं सविशेषं वा कुर्युः तान् अमात्यान् कुर्वीत, दृष्टगुणत्वात् इति
न इति कौणपदन्तः
अन्यैरमात्यगुणैरयुक्ता ह्येते
पितृपैतामहान् अमात्यान् कुर्वीत, दृष्टावदानत्वात्
ते ह्येनं अपचरन्तं अपि न त्यजन्ति, सगन्धत्वात्
अमानुषेष्वपि च एतद् दृश्यते
गावो ह्यसगन्धं गोगणं अतिक्रम्य सगन्धेष्वेवावतिष्ठन्ते इति
न इति वातव्याधिः
ते ह्यस्य सर्वं अवगृह्य स्वामिवत् प्रचरन्ति
तस्मान्नीतिविदो नवान् अमात्यान् कुर्वीत
नवाः तु यमस्थाने दण्डधरं मन्यमाना नापराध्यन्ति इति
न इति बाहुदन्ती पुत्रः
शास्त्रविद् अदृष्टकर्मा कर्मसु विषादं गच्छेत्
तस्माद् अभिजनप्रज्ञाशौचशौर्यानुरागयुक्तान् अमात्यान् कुर्वीत, गुणप्राधान्यात् इति
सर्वं उपपन्नं इति कौटिल्यः
कार्यसामर्थ्याद्द् हि पुरुषसामर्थ्यं कल्प्यते
सामर्थ्यश्च विभज्यामात्यविभवं देशकालौ च कर्म च ।
अमात्याः सर्व एव एते कार्याः स्युर्न तु मन्त्रिणः
सहाध्यायी अर्थात् जो सम्यक् अध्ययन करते हैं, ऐसे अमात्य (अधिकारियों) का चयन किया जाना चाहिए, क्योंकि वे दृष्टि और शुद्धता के सामर्थ्य से सम्पन्न होते हैं, यह भारद्वाज कहते हैं। ऐसे अमात्य विश्वसनीय होते हैं। विशालाक्ष इसे स्वीकार नहीं करते क्योंकि वे केवल सहक्रीड़ा के कारण ऐसे लोगों को भांप लेते हैं। जो अपने गुप्त कर्मों में निष्पक्ष और समान विचारों वाले हैं, उन्हें अमात्य नियुक्त किया जाना चाहिए क्योंकि वे उनकी गूढ़ बातें भलीभाँति समझते हैं और बिना अपराध किए उनके मन की गहराई तक पहुँचते हैं, ऐसा पाराशर कहते हैं। वे भी इनके भेद जानने के भय से निष्ठुरता या अन्याय नहीं करते। जितने लोग रहस्यों को जनसमूह से छिपाते हैं, उनके वश में रहना कर्म द्वारा अनिवार्य होता है। जो संकटों में प्राणों के संकट से युक्त लोगों की सहायता करते हैं, वे अमात्य होने चाहिए, क्योंकि वे दृढ़ लगाव वाले होते हैं, ऐसा पिशुनः कहते हैं। भक्ति केवल बुद्धि और गुण नहीं है। जो गणनाओं और कार्यों में निर्दिष्ट अर्थों को यथावत करते हैं, उन्हें अमात्य नियुक्त किया जाना चाहिए क्योंकि उनमें गुण होते हैं, ऐसा कौणपदन्त कहते हैं। परन्तु जो अन्य अमात्यगुणों से युक्त नहीं होते, वे उपयुक्त नहीं। पितृपैतामहान (पूर्वजों को अपमानित करने वाले) अमात्य होने चाहिए, क्योंकि वे शब्दों की कड़वाहट से परिचित होते हैं, वे अपकार करने वाले को भी नहीं छोड़ते। यहां तक कि अमानुष (अमानवीय) प्राणी में भी यह देखा जाता है। गायें अपनी दुर्गंध को छोड़कर दुर्गंध वाले स्थानों में ही रहती हैं। वातव्याधि (वायु रोग) ऐसा नहीं है। वे सब कुछ समझकर अपने स्वामी के समान व्यवहार करते हैं। इसलिए नीतिविदों को नए अमात्यों का चयन करना चाहिए। नवयुवक, जो यम (न्याय के देवता) के स्थान पर दण्डधारी माने जाते हैं, वे अपराध नहीं करते। बाहुदंती पुत्र (बहुवचन में पुत्र) ऐसा नहीं है। शास्त्रज्ञ ज्ञानी कर्मों में दोष स्वीकार करते हैं। इसलिए कुलीन जन्म, बुद्धि, शौच, शौर्य, अनुरागयुक्त अमात्यों को नियुक्त करना चाहिए, गुणप्रधानता के कारण। यह सब कौटिल्य ने कहा। कार्य करने की क्षमता के अनुसार पुरुष की सामर्थ्य मानी जाती है। सामर्थ्य से अमात्य के वैभव, देश, काल और कर्म भेद होते हैं। सभी अमात्य इन कार्यों के योग्य होते हैं, मंत्रियों के नहीं।
अर्थशास्त्र के इस अंश में अमात्य चयन के लिए गुणों तथा कारणों का विस्तृत विवेचन है, जो एक प्रभावी प्रशासन के लिए आवश्यक हैं। नीचे प्रत्येक वाक्यांश के आधार पर गहन विश्लेषण प्रस्तुत है।
  1. सहाध्यायिनो अमात्यान् कुर्वीत, दृष्टशौचसामर्थ्यत्वात् इति भारद्वाजः
    सहाध्याय या समान अध्ययन-शिक्षा प्राप्त व्यक्ति अमात्य अर्थात् मंत्री बनने योग्य समझे जाते हैं। कारण यह है कि शुद्ध दृष्टि, स्पष्ट बुद्धि और कार्यसामर्थ्य की प्राप्ति में समान अध्ययन सहायक होता है। दृष्टशौच अर्थात् आचरण और व्यवहार में शुद्धता तथा सामर्थ्य, जिन्हें भारद्वाज ने महत्वपूर्ण माना है, से व्यक्ति की योग्यता प्रमाणित होती है। यह योग्यता नीति-नियमन, निर्णय-प्रक्रिया तथा शासन-प्रशासन में निपुणता का आधार है।
  2. ते ह्यस्य विश्वास्या भवन्ति इति न इति विशालाक्षः सहक्रीडितत्वात् परिभवन्त्येनम्
    विश्वास की दृष्टि से वही अमात्य उपयुक्त होते हैं, जिनके अन्दर गहरे विश्वास और निष्ठा हो। विशालाक्ष अर्थात् व्यापक दृष्टि वाले, जो सहक्रीड़ा अर्थात् संयुक्त क्रियाकलाप में यथोचित सहभागिता और सामंजस्य दिखाते हैं, वे अधिक भरोसेमंद होते हैं। परंतु जो केवल बाह्य दिखावे या सहक्रीड़ितत्व से प्रभावित होते हैं, वे विश्वास योग्य नहीं होते। यहाँ एक चेतावनी है कि केवल सतही मित्रता या सामूहिक गतिविधियों में भागीदारी से किसी की आंतरिक विश्वसनीयता स्थापित नहीं होती।
  3. ये ह्यस्य गुह्यसधर्माणः तान् अमात्यान् कुर्वीत, समानशीलव्यसनत्वात् ते ह्यस्य मर्मज्ञभयान्नापराध्यन्ति इति साधारण एष दोषः इति पाराशराः
    गूढ़ रहस्यों और सूक्ष्म नीतिगत विषयों को समझने वाले व्यक्तियों को मंत्री बनाना चाहिए। ऐसा होने का कारण समान आदतों और व्यवहारों का होना है। समानशील व्यसन अर्थात् आदतों एवं स्वभाव में सामंजस्य होने से वे राजसूत्रों के रहस्यों को समझ पाते हैं तथा उस ज्ञान के आधार पर कार्य करते हुए नापराध्य अर्थात् दोषारोपण से मुक्त रहते हैं। यह सामान्य दोष मानना कि समानशैली के कारण मंत्री आपस में विवाद करते हैं, पाराशर ने अस्वीकार किया है।
  4. तेषां अपि मर्मज्ञभयात् कृताकृतान्यनुवर्तेत यावद्भ्यो गुह्यं आचष्टे जनेभ्यः । अवशः कर्मणा तेन वश्यो भवति तावताम्
    मंत्रियों को उस पद की मर्यादा और सूक्ष्मताएं जाननी चाहिए तथा अपने कार्यों में सतर्क रहना चाहिए। जो लोग गुप्त रहस्यों को जानते हैं, वे अपने कृत्यों के प्रति सजग होते हैं और आदेशों का पालन अधिक निष्ठा से करते हैं। यहाँ कर्मणा वश्य होने का अर्थ है कि मंत्री अपने कर्तव्य एवं दायित्वों के प्रति प्रतिबद्ध रहते हुए स्वामित्व या अधीनता का उचित संतुलन बनाए रखते हैं।
  5. य एनं आपत्सु प्राणाबाधयुक्तास्वनुगृह्णीयुः तान् अमात्यान् कुर्वीत, दृष्टानुरागत्वात् इति न इति पिशुनः भक्तिरेषा न बुद्धिगुणः
    कठोर परीक्षाओं और संकटों में भी जीवन की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहने वाले व्यक्ति मंत्री बनें। उनकी स्वभाव में प्रेम और अनुराग होना चाहिए, परन्तु यह प्रेम या भक्तिभाव बुद्धि और गुण की बजाय केवल आस्था या अंध विश्वास नहीं होना चाहिए। इसलिए, सिर्फ भक्तिभाव या श्रद्धा को गुण मानना उचित नहीं।
  6. सङ्ख्यातार्थेषु कर्मसु नियुक्ता ये यथाऽऽदिष्टं अर्थं सविशेषं वा कुर्युः तान् अमात्यान् कुर्वीत, दृष्टगुणत्वात् इति न इति कौणपदन्तः
    गणना और उद्देश्य की दृष्टि से, जो लोग अपने कर्तव्यों को निर्देशानुसार स्पष्ट और निश्चित रूप से निष्पादित करते हैं, उन्हें मंत्री बनाना चाहिए। उनकी दृष्टि गुणयुक्त होनी चाहिए, अर्थात् वे कार्य को उचित रूप से समझकर निष्पादित करें। परंतु केवल इस आधार पर नियुक्ति करना पर्याप्त नहीं माना जाना चाहिए, जो केवल सीमित दायित्वों को निभाने तक सीमित रह जाएं।
  7. अन्यैरमात्यगुणैरयुक्ता ह्येते पितृपैतामहान् अमात्यान् कुर्वीत, दृष्टावदानत्वात् ते ह्येनं अपचरन्तं अपि न त्यजन्ति, सगन्धत्वात्
    वे अमात्य जो अन्य प्रकार के गुणों से युक्त न हों, लेकिन पितृपैतामहों (पूर्वजों) के सम्मान और परंपराओं का पालन करते हों, उन्हें मंत्री माना जाना चाहिए। क्योंकि उनका दृष्टा (अर्थात् उनके दृष्टिकोण में) यह होता है कि परंपरागत आदर तथा सम्मान से संबंधित गुण गहरे और स्थायी होते हैं। वे अपमानित होने पर भी अपने पद या सेवा को नहीं छोड़ते। यहाँ सगन्धत्व का अर्थ है उनका स्थायित्व और गुणवत्ता, जैसे सुगंध की निरंतरता।
  8. अमानुषेष्वपि च एतद् दृश्यते गावो ह्यसगन्धं गोगणं अतिक्रम्य सगन्धेष्वेवावतिष्ठन्ते इति न इति वातव्याधिः
    यह भी देखा गया है कि अमानुष अर्थात् मानवीय व्यवहारों से परे भी, जैसे गायें असगंध (अप्रिय गंध) या गोगण (गाय का अवांछित स्थान) से आगे बढ़कर भी अपने सगंधित स्थानों में स्थिर रहती हैं। यह शील और स्थिरता का सूचक है। अतः इसे वातव्याधि (जिसमें शरीर में वात विकार के कारण अस्थिरता होती है) से तुलना कर असंगत मानना उचित नहीं है।
  9. ते ह्यस्य सर्वं अवगृह्य स्वामिवत् प्रचरन्ति तस्मान्नीतिविदो नवान् अमात्यान् कुर्वीत
    जो व्यक्ति अपने अधिपति के समस्त आदेशों और रहस्यों को समझते हुए उसी प्रकार व्यवहार करते हैं जैसे स्वामी अपने आदेशों का पालन करता है, वे उचित मंत्री हैं। इसलिए नीति के ज्ञाता नित्य नए और अज्ञात लोगों को मंत्री नहीं बनाते, बल्कि अनुभवी और विश्वसनीय व्यक्ति ही इस पद के अधिकारी होते हैं।
  10. नवाः तु यमस्थाने दण्डधरं मन्यमाना नापराध्यन्ति इति न इति बाहुदन्ती पुत्रः
    नवीन लोगों को यदि दंडाधिकार (यमस्थान) दिया जाता है, तो वे अपराध से बचते हैं। यह बाहुदंती पुत्र अर्थात् जो बाल्य से ही अनुशासनशील हो, उससे तुलना की गई है। यह संकेत करता है कि प्रशासनिक अधिकार पाने पर व्यक्ति अधिक सतर्क हो जाता है, किन्तु केवल इसका आधार मंत्री नियुक्ति नहीं हो सकता।
  11. शास्त्रविद् अदृष्टकर्मा कर्मसु विषादं गच्छेत् तस्माद् अभिजनप्रज्ञाशौचशौर्यानुरागयुक्तान् अमात्यान् कुर्वीत, गुणप्राधान्यात् इति
    जो व्यक्ति शास्त्र का ज्ञान रखता है, किन्तु कर्म में अज्ञानी है और कार्यों में विषाद या असफलता आती है, वह मंत्री के योग्य नहीं। इसलिए वंश से उच्च कुल, बुद्धि, शुद्धता, शौर्य और अनुराग से युक्त व्यक्तियों को मंत्री बनाना चाहिए। गुणों को प्रधानता देते हुए नियुक्ति हो।
  12. सर्वं उपपन्नं इति कौटिल्यः कार्यसामर्थ्याद्द् हि पुरुषसामर्थ्यं कल्प्यते सामर्थ्यश्च विभज्यामात्यविभवं देशकालौ च कर्म च । अमात्याः सर्व एव एते कार्याः स्युर्न तु मन्त्रिणः॥८॥
    आख़िरकार, कौटिल्य ने कहा कि सब कुछ कार्यसामर्थ्य के आधार पर आंका जाता है, और व्यक्ति की सामर्थ्य के अनुसार ही उसे पद दिया जाना चाहिए। सामर्थ्य का विभाजन अमात्य के वेभिन्न प्रकारों में किया जाता है, जो क्षेत्र, काल और कर्म के अनुसार उपयुक्त हों। सभी अमात्य इन विभिन्न कार्यों के लिए नियुक्त होते हैं, किन्तु मंत्री (मंत्रिपरिषद् के सदस्य) केवल उन्हीं को माना जाता है जो संपूर्ण योग्यताओं के साथ हों। अतः सामर्थ्य की सम्यक् समझ से ही सही नियुक्ति की जाती है।

व्याख्या के तत्व:
  • सहाध्याय का महत्त्व – अध्ययन और अनुभव के समान स्तर पर होना अनिवार्य।
  • विश्वासनीयता और सहक्रीड़ितत्त्व का अंतर – बाह्य सामंजस्य में भ्रम नहीं होना चाहिए।
  • गुह्यसाधर्म्य का महत्व – गुप्त नीतियों और सिद्धांतों को समझने की क्षमता।
  • कर्मणि वशता – कर्तव्य-पालन के प्रति प्रतिबद्धता।
  • अनुराग एवं भक्ति की विवेकपूर्ण समझ – केवल श्रद्धा से अधिक गुणों की आवश्यकता।
  • नियत और स्पष्ट कर्म – निर्दिष्ट कार्यों का सही निष्पादन।
  • परंपरागत गुणों का सम्मान – वंश और परंपरा में निहित स्थिरता।
  • अमानुष व्यवहार से स्थिरता की उपमा – प्रशासनिक स्थायित्व का सूचक।
  • अनुभव की प्रधानता – नये को न केवल पद देना उचित नहीं।
  • सामर्थ्य का विभाजन – भिन्न-भिन्न क्षेत्रों, काल और कार्य के अनुसार।
  • मंत्री और अमात्य में भेद – सभी अमात्य मंत्री नहीं होते, परन्तु सभी मंत्री अमात्य होते हैं।

निष्कर्षतः, यह श्लोक विभिन्न प्रकार के गुण, व्यवहार, और परिस्थितियों के आधार पर योग्य व्यक्तियों को मंत्री नियुक्त करने की प्रक्रिया का विवेचन करता है। इसमें गुणों का संतुलन, अनुभव, विश्वास, कर्मठता, और परंपरा को एकत्रित कर सम्यक् प्रशासनिक योग्यता की परिकल्पना प्रस्तुत की गई है। इस प्रकार उचित चयन से शासन व्यवस्था में स्थायित्व, निष्ठा और दक्षता सुनिश्चित होती है।