एवं वश्य इन्द्रियः परस्त्रीद्रव्यहिंसाश्च वर्जयेत्, स्वप्नं लौल्यं अनृतं उद्धतवेषत्वं अनर्थ्यसम्योगं अधर्मसम्युक्तं अनर्थसम्युक्तं च व्यवहारम्
धर्मार्थाविरोधेन कामं सेवेत, न निह्सुखः स्यात्
समं वा त्रिवर्गं अन्योन्यानुबद्धम्
एको ह्यत्यासेवितो धर्मार्थकामानां आत्मानं इतरौ च पीडयति
अर्थ एव प्रधान इति कौटिल्यः
अर्थमूलौ हि धर्मकामाविति
मर्यादां स्थापयेद् आचार्यान् अमात्यान् वा, य एनं अपाय स्थानेभ्यो वारयेयुः, छायानालिकाप्रतोदेन वा रहसि प्रमाद्यन्तं अभितुदेयुः
सहायसाध्यं राजत्वं चक्रं एकं न वर्तते ।
कुर्वीत सचिवांः तस्मात् तेषां च शृणुयान् मतम्
इस प्रकार इन्द्रियों को वश में करके परस्त्री, परधन और हिंसा का त्याग करे, साथ ही स्वप्न, लालच, असत्य, अहंकारी वेश, अनुचित संगति, अधर्मयुक्त और अनर्थयुक्त व्यवहार को भी छोड़े।
धर्म और अर्थ के विरोध के बिना काम का सेवन करे, परन्तु सुख से रहित न हो।
या तो धर्म, अर्थ और काम तीनों को समान रूप से अपनाए, क्योंकि ये परस्पर संनाद्ध हैं।
इनमें से किसी एक का अति सेवन आत्मा और अन्य दो को पीड़ा देता है।
कौटिल्य कहते हैं कि अर्थ ही प्रधान है।
क्योंकि धर्म और काम का मूल अर्थ है।
आचार्यों या मन्त्रियों को नियुक्त करे जो उसे संकट के स्थानों से बचाएँ, या छाया, नालिका और प्रतोद द्वारा गुप्त रूप से भटकते हुए को सतर्क करें।
राज्य सहायकों द्वारा साध्य होता है, यह चक्र अकेला नहीं चलता।
इसलिए मन्त्रियों को नियुक्त करे और उनकी राय सुने।
अध्यात्म, व्यवहार एवं समाज-नीति के संदर्भ में इन्द्रियसंयम और सामाजिक-आचरण की विवेचना
इन्द्रियजयं की प्राप्ति के लिए समग्र प्रयास आवश्यक हैं, जिनमें इन्द्रियों के नियंत्रण के विविध आयाम सम्मिलित हैं। इन्द्रियजयं केवल वासनाओं का दमन नहीं, अपितु बुद्धि, दृष्टि, कर्म, ज्ञान, और व्यवहार के सम्यक् संयोजन से संभव है। यह नियंत्रण, साधनात्मक एवं व्यवस्थित होना आवश्यक है, जो स्वयं को सुधारने के साथ सामाजिक और नैतिक मूल्यों की स्थापना भी सुनिश्चित करता है।
इन्द्रियजयं के साधन
- अरिषड्वर्गत्यागेन इन्द्रियजयं कुर्वीत: अरिषड्वर्ग अर्थात छह प्रकार के हानिकारक समूहों का त्याग करना आवश्यक है। ये छह प्रकार के वर्ज्य व्यवहार और सम्बन्ध हैं, जो इन्द्रियशुद्धि के मार्ग में बाधक होते हैं। अरिषड्वर्ग त्याग इन्द्रिय नियंत्रण का प्रारंभिक और आधारभूत नियम है।
- वृद्धसम्योगेन प्रज्ञा: बुद्धि की वृद्धि के द्वारा अपने इन्द्रियों को नियंत्रित करना। प्रज्ञा का अभ्युदय अनुभव, अध्ययन, चिन्तन और व्यवहार से संभव होता है। एक सतर्क और विकसित बुद्धि ही इन्द्रियों को अनुशासित कर सकती है।
- चारेण चक्षुः: दृष्टि अर्थात नेत्र को सदाचार और शिष्टाचार द्वारा नियंत्रित करना। इसका तात्पर्य केवल आँखों के प्रतिबंध से नहीं, अपितु दृष्टि के माध्यम से जो ज्ञान, दृष्टिकोण एवं व्यवहार उत्पन्न होता है, उसे शुद्ध करना है।
- उत्थानेन योगक्षेमसाधनं: योग और क्षेम साधन से शरीर और मन की स्थिरता और सुरक्षा की प्राप्ति। योगाभ्यास और स्वाध्याय के माध्यम से मानसिक और शारीरिक बल की वृद्धि होती है जो इन्द्रिय नियंत्रण को सुदृढ़ करता है।
- कार्य-अनुशासनः स्वधर्मस्थापनम्: अपने कार्यों में अनुशासन और स्वधर्म की स्थापना, अर्थात सामाजिक और व्यक्तिगत कर्तव्यों का पालन। इन्द्रिय नियंत्रण तब तक पूर्ण नहीं होता जब तक कर्तव्य-पालन में कठोरता न हो। स्वधर्म का पालन व्यक्ति को नैतिक स्थिरता प्रदान करता है।
- विनयम्, विद्या, उपदेशेन लोकप्रियत्वं: विनम्रता, ज्ञान, और उपदेश की शक्ति से लोक प्रियता और सम्मान अर्जित होता है। यह लोकप्रियता शुद्ध इन्द्रिय नियंत्रण के फलस्वरूप मिलती है, जो समाज में मान्यता और सहयोग का कारण बनती है।
- अर्थसम्योगेन वृत्तिम्: अर्थ की समझ और समुचित उपयोगिता के द्वारा समृद्ध जीवन की स्थापना। केवल धार्मिक या नैतिक नियमों का पालन पर्याप्त नहीं; अर्थ, अर्थव्यवस्था और संसाधनों का सही संचलन भी आवश्यक है ताकि जीवन-व्यवस्था सुसंगठित रहे।
इन्द्रियवशीनता एवं निषेधात्मक आचरण
सभी इन्द्रिय, जैसे दृष्टि, श्रवण, स्पर्श, रसना, और घ्राण, को वश में रखना अत्यंत आवश्यक है। अन्यथा, इन्द्रियसंयम विफल हो सकता है और जीवन विकृत हो जाता है। इन्द्रियों को वश में रखना निम्नलिखित नकारात्मकताओं से बचाव करता है:
- परस्त्री (अन्य स्त्री) के प्रति वशीनता: अनियंत्रित कामवासना सामाजिक तथा नैतिक पतन का मार्ग बनती है, जो केवल व्यक्तिगत ही नहीं, वरन् सामूहिक जीवन के लिए भी हानिकारक है।
- द्रव्यहिंसा से परहेज: किसी भी प्रकार की संपत्ति या वस्तु की हानि या हिंसा से बचना। यह आर्थिक और सामाजिक स्थिरता के लिए आवश्यक है। हिंसा और सम्पत्ति का क्षरण व्यक्ति को दुर्भाग्य और विफलता की ओर ले जाता है।
- स्वप्नं, लौल्यं, अनृतं, उद्धतवेषत्वं: स्वप्न (असत्य विचार), लौल्य (आत्मकेंद्रितता), अनृत (असत्य), और उद्धतवेष (अहंकारी व्यवहार) का त्याग। ये मानसिक और सामाजिक विकार व्यक्ति के समग्र विकास में बाधा उत्पन्न करते हैं।
- अनर्थ्यसम्योगं, अधर्मसम्युक्तं व्यवहार: अनर्थ (हानिकारक), अधर्मयुक्त व्यवहार से दूर रहना, क्योंकि ये व्यक्ति और समाज दोनों के लिए विनाशकारी होते हैं।
धर्म, अर्थ, काम के मध्य संतुलन
धर्म, अर्थ और काम त्रय की रक्षा एवं पालन आवश्यक है। इन तीनों में असंतुलन या विरोध से जीवन में पीड़ा उत्पन्न होती है:
- धर्मार्थाविरोधेन कामं सेवेत्: कार्य, चाहे वह काम हो, तब तक वांछित नहीं जब तक वह धर्म और अर्थ के विरोध में न हो। अर्थात, काम की प्राप्ति के लिए धर्म और अर्थ का उल्लंघन अनिष्टदायी होता है।
- न निह्सुखः स्यात्: यदि काम धर्म और अर्थ के विरुद्ध हो, तो सुख प्राप्ति संभव नहीं। वास्तविक सुख केवल धर्म और अर्थ के समन्वय से प्राप्त होता है।
- समं वा त्रिवर्गं अन्योन्यानुबद्धम्: धर्म, अर्थ और काम परस्पर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, उनका स्वतंत्र अस्तित्व या विरोध संभव नहीं। वे समन्वित होकर ही स्थायित्व प्रदान करते हैं।
- एको ह्यत्यासेवितो धर्मार्थकामानां आत्मानं इतरौ च पीडयति: त्रयी में से किसी एक की अधिकता या त्याग शेष दोनों और स्वयं व्यक्ति को कष्ट पहुँचाता है। इस सन्तुलन को बनाए रखना ही जीवन का लक्ष्य है।
अर्थ का प्रधानत्व एवं मर्यादा स्थापना
अर्थ की महत्ता को जीवन और राज्य-नीति के संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। अर्थ की उपेक्षा से धर्म और काम भी कमजोर पड़ जाते हैं:
- अर्थ एव प्रधान इति कौटिल्यः: अर्थ को प्रधान माना गया है क्योंकि वह धर्म और काम का आधार है। बिना आर्थिक समृद्धि के सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों का पालन कठिन हो जाता है।
- अर्थमूलौ हि धर्मकामाविति: धर्म और काम का उद्भव अर्थ से होता है, अर्थात आर्थिक संसाधनों के बिना जीवन की आवश्यकताओं और लक्ष्यों की प्राप्ति असंभव है।
- मर्यादां स्थापयेद् आचार्यान् अमात्यान् वा: समाज और शासन में मर्यादा, अनुशासन, और संयम बनाए रखने हेतु गुरु, आचार्य, मंत्री आदि की भूमिका आवश्यक है। वे वे ऐसे नियम स्थापित करते हैं जो सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखते हैं।
- य एनं अपाय स्थानेभ्यो वारयेयुः: जो व्यक्ति विनाशकारी प्रवृत्तियों को फैलाता है, उसे समाज से दूर रखना चाहिए, ताकि व्यवस्था में विकृति न आए।
- छायानालिकाप्रतोदेन वा रहसि प्रमाद्यन्तं अभितुदेयुः: ऐसे व्यक्तियों को छायाओं, नालिकाओं (सामाजिक प्रतिबंधों) द्वारा या गुप्त उपायों से नियंत्रित किया जाना चाहिए, अन्यथा वे समाज के लिए खतरा बन सकते हैं।
राज्य-नीति में सचिवों की भूमिका और सहयोग की आवश्यकता
- सहायसाध्यं राजत्वं चक्रं एकं न वर्तते: शासन का कार्य अकेले संभव नहीं, इसके लिए सचिव, मंत्रिमंडल और प्रशासनिक सहयोग आवश्यक हैं। यह एक सूक्ष्म और सामूहिक प्रयास है।
- कुर्वीत सचिवांः तस्मात् तेषां च शृणुयान् मतम्: सचिवों का चयन विचारपूर्वक किया जाना चाहिए तथा उनके विचारों और सलाह को गंभीरता से सुना जाना चाहिए। प्रशासनिक सलाह और सहयोग के बिना शासन तंत्र सफल नहीं हो सकता।
अवलोकन एवं दार्शनिक विवेचन
इन्द्रियों का संयम: मनुष्य के जीवन में इन्द्रियों की भूमिका अति महत्त्वपूर्ण है। वे मनुष्य को सुख-दुख, लाभ-हानि, सत्य-असत्य की अनुभूति कराते हैं। किन्तु जब इन्द्रिय अनियंत्रित हो जाते हैं, तब मनुष्य सामाजिक और नैतिक पतन की ओर बढ़ता है। अतः इन्द्रियों की परिपक्वता एवं संयम न केवल आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक हैं, वरन् सामाजिक स्थिरता के लिए भी अनिवार्य हैं। संयम की यह अवधारणा कर्म, दृष्टि, श्रवण, वाणी एवं मन की पूर्ण साधना से जुड़ी हुई है।
बुद्धि एवं प्रज्ञा का विकास: बुद्धि केवल ज्ञान-संग्रह नहीं, बल्कि तर्क-वितर्क, निर्णय-शक्ति एवं व्यवहारिक विवेक का सम्मिलित रूप है। वृद्ध प्रज्ञा से व्यक्ति अपने इन्द्रियों को नियंत्रित कर सकता है। जब बुद्धि विकसित होती है, तब इन्द्रिय-वशीनता स्वतः कम हो जाती है। इसलिए ज्ञान के साथ साथ आत्मचिन्तन और अनुभव पर भी बल दिया जाना चाहिए।
धर्म, अर्थ, काम का त्रिगुणात्मक संतुलन: ये तीन तत्व जीवन के प्रमुख आधार हैं। धर्म नैतिक एवं धार्मिक कर्तव्यों का प्रतिनिधित्व करता है, अर्थ जीवनोपयोगी संसाधनों का प्रबंधन है, और काम सुख-प्राप्ति तथा इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम है। इन तीनों का समन्वय आवश्यक है। एक के अधिकता से दूसरे प्रभावित होते हैं, जो जीवन और समाज में असंतुलन पैदा करता है। त्रिगुणात्मक समन्वय जीवन को पूर्णता और स्थिरता प्रदान करता है।
सामाजिक और राजनीतिक नीति: व्यक्तिगत संयम के साथ-साथ सामाजिक व्यवस्था और राजनीतिक प्रशासन का सुदृढ़ होना आवश्यक है। गुरु, मंत्री, और सचिव जैसे अधिकारी सामाजिक मर्यादा स्थापित करते हैं। वे अनियंत्रित और विनाशकारी प्रवृत्तियों को नियंत्रित करते हैं। सामाजिक अनुशासन के बिना राज्य का स्थायित्व संभव नहीं।
नैतिकता एवं व्यवहार की शुद्धता: असत्य, अहंकार, तथा हिंसा से दूर रहना आवश्यक है। नैतिकता और व्यवहार की शुद्धता व्यक्ति के आत्मसम्मान और सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए अनिवार्य हैं। व्यवहार की शुद्धता से ही व्यक्ति लोकप्रियता और विश्वास अर्जित कर पाता है।
प्रशासन में सहभागिता: शासन की सफलता व्यक्तिगत प्रयासों से नहीं, बल्कि सहकार और संवाद से संभव है। मंत्री, सचिव, और सहयोगियों के विचारों और सलाहों का सम्मान करना प्रशासन की क्षमता और स्थिरता बढ़ाता है। यह विचार सामूहिक बुद्धि एवं अनुभव पर आधारित शासन तंत्र की महत्ता को दर्शाता है।
निष्कर्षगत चिंतन
इन्द्रिय संयम के सिद्धांत में आत्म-नियंत्रण, बुद्धिमत्ता, तथा सामाजिक-नैतिक अनुशासन के विभिन्न स्तरों का समावेश है। संयम केवल व्यक्तिगत साधना नहीं, अपितु सामाजिक जीवन में स्थायित्व और समृद्धि का आधार भी है। धर्म, अर्थ, काम के बीच सन्तुलन एवं मर्यादा की स्थापना से ही व्यक्तित्व का समग्र विकास संभव है। साथ ही, सामाजिक अनुशासन, प्रशासनिक सहयोग और नैतिक व्यवहार से ही जीवन के विविध क्षेत्र समृद्ध और स्थिर होते हैं। अतः इन्द्रिय संयम की यह प्रणाली केवल एक आध्यात्मिक अभ्यास नहीं, बल्कि एक व्यापक सामाजिक-राजनीतिक प्रबन्धन का सूक्ष्म एवं गहन तत्व है।
परस्पर विरोधी तत्वों को संतुलित करने की इस प्रणाली में दार्शनिक दृष्टि से प्रश्न उपस्थित होते हैं — कैसे धर्म, अर्थ, काम के तत्त्वों को संतुलित करते हुए जीवन के विभिन्न स्तरों पर सामंजस्य स्थापित किया जाए? और क्या व्यक्तिगत संयम के बिना सामाजिक और राजनीतिक स्थायित्व संभव है? इस प्रकार के प्रश्न चिंतनशील मनुष्य के लिए चिंतन के दायरे का विस्तार करते हैं।