श्लोक ०१-०६

Kautilya Arthashastra by Acharya Chankya
विद्या विनयहेतुरिन्द्रियजयः कामक्रोधलोभमानमदहर्षत्यागात् कार्यः
कर्णत्वग्ऽक्षिजिह्वाघ्राण इन्द्रियाणां शब्दस्पर्शरूपरसगन्धेष्वविप्रतिपत्तिरिन्द्रियजयः, शास्त्रानुष्ठानं वा
कृत्स्नं हि शास्त्रं इदं इन्द्रियजयः
तद् विरुद्धवृत्तिरवश्य इन्द्रियश्चातुरन्तो अपि राजा सद्यो विनश्यति
यथा दाण्डक्यो नाम भोजः कामाद् ब्राह्मणकन्यां अभिमन्यमानः स-बन्धुराष्ट्रो विननाश, करालश्च वैदेहः
कोपाज् जनमेजयो ब्राह्मणेषु विक्रान्तः, तालजङ्घश्च भृगुषु
लोभाद् ऐलश्चातुर्वर्ण्यं अत्याहारयमाणः, सौवीरश्चाजबिन्दुः ।
मानाद् रावणः परदारान् अप्रयच्छन्, दुर्योधनो राज्याद् अंशं च
मदाद् दम्भोद्भवो भूतावमानी, हैहयश्चार्जुनः
हर्षाद् वातापिरगस्त्यं अत्यासादयन्, वृष्णिसङ्घश्च द्वैपायनं इति
एते चान्ये च बहवः शत्रुषड्वर्गं आश्रिताः ।
स-बन्धुराष्ट्रा राजानो विनेशुरजित इन्द्रियाः
शत्रुषड्वर्गं उत्सृज्य जामदग्न्यो जित इन्द्रियः ।
अम्बरीषश्च नाभागो बुभुजाते चिरं महीम्
विद्या और विनय ही इन्द्रियों के वश में आने का कारण हैं। काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, और हर्ष त्याग से कार्य सिद्ध होता है।
कर्ण, नेत्र, जिह्वा, घ्राण आदि इन्द्रिय जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध को ग्रहण करते हैं, उनकी समझदारी से इन्द्रियों का वशगमन होता है। शास्त्र का पूर्ण रूप से पालन भी इन्द्रियों को वश में करता है।
परंतु इन्द्रियों का विरोधी आचरण अनिवार्य रूप से अंततः राजा को नष्ट कर देता है।
जैसे दाण्डक्य नामक भोज, जो काम के कारण ब्राह्मण कन्या को अभिमन्य था, स-बन्धुराष्ट्र विनाश का कारण बना; वैदेह का कराल भी ऐसा ही था।
ब्राह्मणों में कोप से जनमेजय विक्रांत था, और भृगुओं में तालजंघ।
लोभ से ऐल, जो चतुर्वर्णीय है, अत्याहार कर रहा था, और अजाबिंदु सौवीर था।
रावण अपनी मान से परदारों को न देता था, दुर्योधन ने राज्य का हिस्सा नहीं दिया।
मद और दम्भ से उत्पन्न भूतपूर्व गर्वशाली हैहय और अर्जुन थे।
हर्ष से वातापि रगस्त्य को अत्यधिक क्रोध आता था, और वृष्णि संघ को द्वैपायन कहते थे।
ये सब और अन्य कई शत्रुषड्वर्ग (छः प्रकार के शत्रु) का आश्रय लेकर रहते थे।
स-बन्धुराष्ट्र के राजा इन्द्रियों को वश में न कर सके और विनाश हो गया।
जामदग्नि ने शत्रुषड्वर्ग को त्याग कर इन्द्रियों को जीत लिया।
अम्बरीष जैसे भाग्यशाली राजा लंबे समय तक पृथ्वी पर शासन करते हैं।

विद्या, विनय और इन्द्रियजयों के कारक तत्व

विद्या का प्रभाव विनय या नम्रता उत्पन्न करना होता है, जो कि इन्द्रियों पर नियंत्रण के लिए आवश्यक है। इन्द्रियजयं पाने के लिए आवश्यक है कि काम, क्रोध, लोभ, मान, अहंकार, हर्ष और त्यागादि भावों का सम्यक् परिहार हो। ये भाव यदि अकारण उत्पन्न हों या विकृत हो जाएं तो मनुष्य की कार्य-क्षमता और ज्ञान दोनों प्रभावित होते हैं।

इन्द्रियजय अर्थात् इन्द्रियों पर नियंत्रण केवल शारीरिक इन्द्रियों (कर्ण, त्वक्, अक्षि, जिह्वा, घ्राण) तक सीमित नहीं है, बल्कि उनके द्वारा ग्रहण किए जाने वाले शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गन्ध जैसी संवेदनाओं को भी समझने और विवेचित करने की क्षमता से भी सम्बद्ध है। यही इन्द्रियजय ज्ञान का स्रोत है, क्योंकि अनुभव और जानकारी का सशक्त अवलम्बन इन्द्रियों के सही उपयोग और संयम से ही सम्भव है।

किसी भी शास्त्र, ग्रन्थ या विद्या का संपूर्ण अभ्यास तभी संभव है जब इन्द्रियों पर विजय हो, अन्यथा अधूरी समझ या अधूरा अभ्यास ही रह जाता है। अतः इन्द्रियजय का अर्थ है संपूर्ण शास्त्रानुष्ठान में सफल होना, जो एक स्थिर और नियंत्रित मनोवृत्ति से ही सम्भव है।


इन्द्रियशक्तियों का असंतुलन और विनाशकारी परिणाम

इन्द्रियों के स्वाभाविक या अनियंत्रित वृत्तियों के विरुद्ध चलना अत्यंत आवश्यक है। यदि इन्द्रिय अपनी स्वाभाविक वृत्ति का विरोध करते हैं, या फिर वे स्वेच्छापूर्वक असंतुलित होकर अनियंत्रित हो जाते हैं, तो उस स्थिति में व्यक्ति का संपूर्ण जीवन संकटग्रस्त हो जाता है।

इन्द्रियों के असंतुलन से न केवल व्यक्तिगत जीवन की स्थिरता भंग होती है, बल्कि वह व्यक्ति सामाजिक, नैतिक और आर्थिक दृष्टि से भी विनष्ट हो सकता है। अतः इन्द्रियों का अनुशासन जीवन का आधार है, जो मनुष्य को स्थायी और सफल जीवन की ओर ले जाता है।


इन्द्रियजयों के दुष्प्रभावों का वर्णन: ऐतिहासिक और मिथकीय व्यक्तियों के उदाहरण

अनेक प्रसंगों में ऐतिहासिक या मिथकीय व्यक्तियों के जीवन के माध्यम से यह स्पष्ट होता है कि इन्द्रियजय की अनदेखी अथवा उसके दुष्प्रभावों से बड़ा विनाश हो सकता है। उदाहरण स्वरूप:

  • दाण्डक्य नाम भोजः, जिसने कामाद् ब्राह्मण कन्या को अभिमन्य होकर बन्धुराष्ट्र को विनाश की ओर अग्रसर किया।
  • करालश्च वैदेहः, जिसका क्रोध और आवेग असंयमित था।
  • कोप से उत्पन्न जनमेजय, जो ब्राह्मणों के बीच विक्रान्त रहा।
  • तालजङ्घश्च भृगु कुल के व्यक्तियों में एक रूप है, जिन्होंने लोभ और आलस्य के कारण धर्म की उपेक्षा की।
  • रावण का परद्रव्य पर अत्याचार और दुर्योधन का राज्याभिमान भी इसी विषय का उदाहरण हैं।
  • हैहयश्चार्जुनः, मद और दम्भ से उत्पन्न, जिसने अपनी गरिमा खोई।
  • वातापि ऋषि द्वारा अत्याचार और द्वैपायन जैसे भीष्म व्यक्तियों के सामाजिक और नैतिक पतन के उदाहरण।

ये सभी व्यक्तित्व इस तथ्य को उद्घाटित करते हैं कि इन्द्रियजय का अभाव समाज और व्यक्ति दोनों के लिए कितनी घातक परिणति ला सकता है। इन्द्रियजय से विहीन मनुष्य सामाजिक संबंधों में विघटन, नैतिक पतन और अंततः जीवन की समष्टिगत असफलता का शिकार हो जाता है।


इन्द्रियजय के माध्यम से शत्रुता का पराभव और साम्राज्य की स्थिरता

विभिन्न प्रकार के शत्रु और उनके समूहों के प्रभाव से रक्षा करने में इन्द्रियजय का विशेष महत्व है। जब मनुष्य अपने इन्द्रियों पर नियंत्रण प्राप्त करता है, तो वह बाहरी शत्रुओं को भी पराजित करने में समर्थ होता है।

जामदग्नि और अम्बरीष जैसे आदर्श पुरुषों के जीवन में दीर्घकालीन समृद्धि और स्थिरता के कारण भी यही रहा कि उन्होंने इन्द्रियों को वश में रखकर जीवन को संयम और विवेक के साथ चलाया।

इन्द्रियों पर विजय से मात्र बाहरी शत्रुओं का नाश ही नहीं होता, बल्कि आंतरिक शत्रु—जैसे काम, क्रोध, लोभ आदि—भी परास्त होते हैं। इस प्रकार इन्द्रियजय सामाजिक, आर्थिक, नैतिक और राजनीतिक स्थिरता की नींव है।


आख्यायिका रूप में दार्शनिक चिंतन

ज्ञान और विनय का मूल आधार इन्द्रियों का संयम है। मनुष्य अपने इन्द्रियों के बिना उस ज्ञान का प्रयोग नहीं कर सकता, जो उसे स्वतंत्र, सशक्त और सफल बनाता है। यदि इन्द्रिय विकृत हों या असंयमित हों तो मनुष्य केवल अपने अहंकार, काम, क्रोध आदि के कारण बंधन में पड़ता है और अज्ञानता, अधर्म तथा पतन की ओर अग्रसर होता है।

अतः जीवन में सफलता के लिए सबसे आवश्यक है कि मनुष्य स्वयं के इन्द्रियों को नियंत्रित करे और उनका समुचित व सही उपयोग करे। इससे ही मनुष्य ज्ञान के सम्पूर्ण स्वरूप को ग्रहण कर पाता है और दैवीय गुणों को धारण कर पाता है।

मानव जीवन के अंतःकरण में इन्द्रियजय एक ऐसा तत्व है जो विवेकशील, संयमी और नैतिक जीवन की नींव रखता है। जो व्यक्ति अपने इन्द्रियों को नियंत्रित करने में सक्षम होता है, वह संसार की सबसे बड़ी चुनौतियों का सामना भी धैर्य और बुद्धिमत्ता से कर सकता है।


इन्द्रियजय और मनोवैज्ञानिक स्वरूप

इन्द्रियजय केवल बाह्य इन्द्रिय नियंत्रण नहीं है, बल्कि आंतरिक मनोवैज्ञानिक अनुशासन का परिणाम भी है। इन्द्रियजय के अभाव में मनोवृत्ति विकृत हो जाती है, जिससे काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, हर्ष इत्यादि विकारों का उदय होता है, जो मानसिक शान्ति को बाधित करते हैं।

आत्मसंयम के अभाव में मनुष्य अशांत, अस्थिर और अनियंत्रित भावनाओं के अधीन हो जाता है। ऐसे मनोविज्ञानिक संकट व्यक्ति को दुष्पथ पर ले जाते हैं और समाज में विघटन का कारण बनते हैं।

इन्द्रियजय के द्वारा मन की एकाग्रता, स्थिरता और शान्ति प्राप्त होती है जो केवल ज्ञानार्जन का साधन ही नहीं, वरन् मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास का आधार भी है।


समाज एवं राजनीतिक व्यवस्था में इन्द्रियजय का महत्व

राजनीतिक और सामाजिक जीवन में इन्द्रियजय का प्रभाव गहरा और व्यापक होता है। यदि शासक या नेतृत्वकर्ता अपने इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं कर पाते तो वे स्वार्थ, अहंकार, क्रोध, लोभ आदि के प्रभाव में आकर राज्य और समाज दोनों को संकट में डाल देते हैं।

इन्द्रियजय से ही न्याय, संयम, धैर्य और दूरदर्शिता का विकास होता है, जो एक समृद्ध और स्थिर राज्य की नींव होते हैं। बिना इन्द्रियजय के शासक स्वयं और अपने प्रजा दोनों के लिए घातक सिद्ध होता है।

इन्द्रियों का अनुशासन ही शासन में सुव्यवस्था, नीति और नैतिकता का आधार है, जो अंततः समाज के समग्र विकास और सुरक्षा में सहायक होता है।


व्यक्तिगत जीवन के लिए दार्शनिक शिक्षाएँ

व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह स्वभावतः उत्पन्न इच्छाओं, क्रोध, लोभ, अहंकार जैसे भावों पर विजय प्राप्त करे। यदि व्यक्ति अपने इन्द्रियों के वश में आ जाता है तो उसका जीवन अनियंत्रित, अस्थिर और पीड़ादायक हो जाता है।

इन्द्रियों का नियंत्रण ही व्यक्ति को स्वयं की पहचान, आदर्श और लक्ष्यों के प्रति समर्पित करता है, जिससे जीवन सार्थक और सशक्त बनता है। इस प्रकार इन्द्रियजय एक प्रकार का आत्मनियंत्रण है जो सभी प्रकार के दुःखों और बाधाओं से मुक्ति दिलाता है।

मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से, इन्द्रियों पर विजय का अर्थ है मन की एकाग्रता, दृढ़ता और विवेकपूर्ण व्यवहार, जो व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को एक नई दिशा देता है।


निष्कर्षोपेक्षायुक्त दार्शनिक विचार

जीवन में इन्द्रियों का नियंत्रण अत्यंत जटिल और गूढ़ विषय है। यह न केवल बाह्य संयम का विषय है, बल्कि आंतरिक मनोवैज्ञानिक अनुशासन और आत्मनियंत्रण की प्रधानता भी रखता है। इस संयम के अभाव में मनुष्य सामाजिक, नैतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक सभी क्षेत्रों में पतन की ओर अग्रसर होता है।

इन्द्रियजय मनुष्य को न केवल बाहरी रूप से सुरक्षित करता है, बल्कि आंतरिक शान्ति, संतुलन और जीवन के प्रति समर्पण का मार्ग भी प्रशस्त करता है। संयम, विवेक और धैर्य के द्वारा व्यक्ति संसार के विविध रूपों को समझने, स्वीकार करने और सदुपयोग करने में सक्षम होता है।

इन्द्रियजय की प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपनी आत्मा की गहराइयों में उतरकर स्वयं का निरीक्षण करे, इच्छाओं और संवेदनाओं का विवेकपूर्ण आकलन करे और निष्काम भाव से अपने कर्मों का पालन करे। यही मार्ग है जो जीवन के हर क्षेत्र में स्थायी सफलता और शांति की ओर ले जाता है।