श्लोक ०१-०५

Kautilya Arthashastra by Acharya Chankya
तस्माद् दण्डमूलाः तिस्रो विद्याः
विनयमूलो दण्डः प्राणभृतां योगक्षेमावहः
कृतकः स्वाभाविकश्च विनयः
क्रिया हि द्रव्यं विनयति नाद्रव्यम्
शुश्रूषा श्रवणग्रहणधारणविज्ञान ऊहापोहतत्त्वाभिनिविष्टबुद्धिं विद्या विनयति न इतरम्
विद्यानां तु यथास्वं आचार्यप्रामाण्याद् विनयो नियमश्च
वृत्तचौलकर्मा लिपिं सङ्ख्यानं च उपयुञ्जीत
वृत्त उपनयनः त्रयीं आन्वीक्षिकीं च शिष्टेभ्यो वार्त्तां अध्यक्षेभ्यो दण्डनीतिं वक्तृप्रयोक्तृभ्यः
ब्रह्मचर्यं च षोडशाद् वर्षात्
अतो गोदानं दारकर्म चास्य
नित्यश्च विद्यावृद्धसम्योगो विनयवृद्ध्य्ऽर्थं, तन्मूलत्वाद् विनयस्य
पूर्वं अहर्भागं हस्त्य्ऽश्वरथप्रहरणविद्यासु विनयं गच्छेत् ।
पश्चिमं इतिहासश्रवणे
पुराणं इतिवृत्तं आख्यायिक उदाहरणं धर्मशास्त्रं अर्थशास्त्रं च इति इतिहासः
शेषं अहोरात्रभागं अपूर्वग्रहणं गृहीतपरिचयं च कुर्यात्, अगृहीतानां आभीक्ष्ण्यश्रवणं च
श्रुताद्द् हि प्रज्ञा उपजायते प्रज्ञाया योगो योगाद् आत्मवत्ता इति विद्यानां सामर्थ्यम्
विद्याविनीतो राजा हि प्रजानां विनये रतः ।
अनन्यां पृथिवीं भुङ्क्ते सर्वभूतहिते रतः
इसलिये तीन प्रकार की विद्या दण्ड की जड़ मानी गई हैं। विनय की जड़ दण्ड है, जो प्राणियों के कल्याण और संरक्षण का कारण है। विनय दो प्रकार का होता है—कृतक और स्वाभाविक। क्रिया वास्तव में द्रव्यमान की विनय करती है, न कि अद्रव्यमान की।

विद्या विनय करती है, न कि अन्य कोई, क्योंकि विद्या में सेवा, सुनना, ग्रहण करना, धारण करना, ज्ञान, सोच, तर्क, और वास्तविकता की गहरी समझ सम्मिलित होती है। विद्या की मान्यता और नियम आचार्य के अनुसार होने चाहिए।

जीवनचर्या, व्यवहार, कर्म, लेखन, गणना आदि का प्रयोग किया जाना चाहिए। जीवन की प्रारंभिक शिक्षा, त्रयी और ज्ञानशास्त्र शिक्षितों, अधिकारियों, दण्ड नीति, वक्ताओं, और उपयोगकर्ताओं को दी जानी चाहिए। ब्रह्मचर्य भी कम से कम सोलह वर्षों तक होना चाहिए।

इसीलिए गोदान और दारकर्म आदि अनिवार्य हैं। विद्यावृद्धि और विनयवृद्धि का संयोजन अनिवार्य है, क्योंकि विनय का मूल यही है। पूर्व में हाथी, अश्व, रथ, और हथियार विद्या में विनय आना चाहिए। पश्चिम में इतिहास सुनना चाहिए। इतिहास में पुराण, इतिवृत्त, आख्यान, उदाहरण, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि सम्मिलित हैं।

दिन-रात्रि का शेष भाग अप्राप्य ग्रहण और गहन परिचय के लिए होना चाहिए, तथा जिन्होंने इसे ग्रहण नहीं किया, उन्हें बार-बार सुनना चाहिए। श्रुति से ही बुद्धि उत्पन्न होती है, बुद्धि से योग और योग से आत्मसत्ता होती है, यही विद्याओं की सामर्थ्य है।

राजा को विद्या और विनय से परिपक्व होना चाहिए क्योंकि वह प्रजाओं के विनय में रत रहता है। वह पृथ्वी पर सर्वभूतहित में रत होकर ही शासन करता है।

व्याख्या

तस्माद् दण्डमूलाः तिस्रो विद्याः
तिस्रः विद्या अर्थात तीन प्रकार की विद्या हैं जो दण्ड का मूल अर्थात आधार हैं। दण्ड से आशय शासन-प्रशासन में न्याय, नियंत्रण और अनुशासन की व्यवस्था से है। ये तीन विद्या शासन के दण्ड को स्थापित करती हैं और उसका आधार हैं।

विनयमूलो दण्डः प्राणभृतां योगक्षेमावहः
विनय, अर्थात संयम, शिष्टाचार और अनुशासन, दण्ड का मूल है। जो प्राणों के पालन-पोषण (योगक्षेम) के लिए आवश्यक है, वही विनय के द्वारा संरक्षित रहता है। इस प्रकार विनय दण्ड की नींव है जो जीवन की रक्षा, समृद्धि और स्थिरता प्रदान करता है।

कृतकः स्वाभाविकश्च विनयः
विनय दो प्रकार का होता है – कृतक और स्वाभाविक। कृतक विनय वह है जो नियम, व्यवहार और संस्कारों से आकरत होता है, जबकि स्वाभाविक विनय व्यक्ति के स्वभाव में निहित होता है। यह दोनों प्रकार का विनय एक दूसरे का पूरक है और व्यक्तित्व की पूर्णता के लिए आवश्यक हैं।

क्रिया हि द्रव्यं विनयति नाद्रव्यम्
क्रिया अर्थात कार्य या व्यवहार वस्तु को विनय करता है, न कि केवल पदार्थ या द्रव्य। इसका तात्पर्य यह है कि कर्म और आचरण से विनय का आकलन होता है, न कि केवल भौतिक वस्तुओं से। क्रियाओं के माध्यम से ही विनय की वास्तविकता प्रकट होती है।

शुश्रूषा श्रवणग्रहणधारणविज्ञान ऊहापोहतत्त्वाभिनिविष्टबुद्धिं विद्या विनयति न इतरम्
विद्या का वास्तविक स्वरूप विनय से जुड़ा है। विद्या वह है जो सेवा, श्रवण (सुनना), ग्रहण (समझना), धारणा (धारण करना), ज्ञान, और विचार-परख से प्राप्त होती है। यही विद्या विनय को उत्पन्न करती है, अन्य कोई माध्यम नहीं। विद्या और विनय में गहरा सम्बन्ध है। विद्या विनय की उत्पत्ति का कारण है।

विद्यानां तु यथास्वं आचार्यप्रामाण्याद् विनयो नियमश्च
विद्या के प्रकार के अनुसार, आचार्य की प्रामाणिकता (विश्वसनीयता) और नियम का पालन विनय को आकार देता है। इस प्रकार विद्या का स्वरूप, उसका स्रोत और अनुशासन विनय की गुणवत्ता और स्वरूप को निर्धारित करते हैं।

वृत्तचौलकर्मा लिपिं सङ्ख्यानं च उपयुञ्जीत
आचरण, कर्मकौशल, लेखन (लिपि), और गणना (सङ्ख्या) का उपयोग आवश्यक है। शासन और सामाजिक व्यवस्था के लिए ये चार तत्व आवश्यक हैं क्योंकि इनके बिना विद्या और विनय का सुस्पष्ट विकास संभव नहीं।

वृत्त उपनयनः त्रयीं आन्वीक्षिकीं च शिष्टेभ्यो वार्त्तां अध्यक्षेभ्यो दण्डनीतिं वक्तृप्रयोक्तृभ्यः
आचरण, संस्कार (उपनयन), तीन प्रकार की व्यावहारिक शोध (आन्वीक्षिकी), विद्या के ज्ञाता, अधीक्षक, वक्ता और उपभोक्ता सभी को उचित व्यवहार और दण्ड नीति का ज्ञान होना चाहिए। यह सामाजिक व्यवस्था और शासन की निरंतरता के लिए आवश्यक है।

ब्रह्मचर्यं च षोडशाद् वर्षात्
ब्राह्मचर्य, अर्थात संयमित जीवनशैली, कम से कम सोलह वर्षों तक पालन करनी चाहिए। यह शिक्षा और अनुशासन की एक लंबी अवधि है जो व्यक्ति के चरित्र निर्माण में मदद करती है।

अतो गोदानं दारकर्म चास्य
इस अनुशासन के बाद गोदान (गायदान) और दारकर्म (दैनिक जीवन के संस्कार) कर्म किए जाने चाहिए। ये संस्कार व्यक्ति की सामाजिक और धार्मिक प्रतिष्ठा बढ़ाते हैं और विद्या के साथ जीवन का सामंजस्य स्थापित करते हैं।

नित्यश्च विद्यावृद्धसम्योगो विनयवृद्ध्य्ऽर्थं, तन्मूलत्वाद् विनयस्य
विद्या का निरंतर विकास विनय की वृद्धि का कारण है। विद्या के बढ़ने से विनय भी विकसित होता है क्योंकि विद्या विनय का मूल और आधार है।

पूर्वं अहर्भागं हस्त्य्ऽश्वरथप्रहरणविद्यासु विनयं गच्छेत् ।
पूर्व दिशा में हथियार, हाथी, अश्व, रथ, और प्रहार विद्या आदि क्षेत्रों में विनय की स्थापना होनी चाहिए। इन विद्वानों या शिल्पियों में विनय अनिवार्य है क्योंकि ये राज्य और समाज के मुख्य स्तंभ हैं।

पश्चिमं इतिहासश्रवणे
पश्चिम दिशा में इतिहास सुनने और समझने का स्थान है। इतिहास को जानना विनय की समझ को गहरा करता है क्योंकि इतिहास से व्यक्ति सीखता है।

पुराणं इतिवृत्तं आख्यायिक उदाहरणं धर्मशास्त्रं अर्थशास्त्रं च इति इतिहासः
इतिहास में पुराण, इतिवृत्त (ऐतिहासिक घटनाओं का विवरण), आख्यायिक (कथात्मक), उदाहरणात्मक, धर्मशास्त्र, और अर्थशास्त्र शामिल हैं। ये सभी विद्या के विभिन्न पहलू हैं जिनसे व्यक्ति विनय प्राप्त करता है।

शेषं अहोरात्रभागं अपूर्वग्रहणं गृहीतपरिचयं च कुर्यात्, अगृहीतानां आभीक्ष्ण्यश्रवणं च
बाकी दिन-रात्रि के विभिन्न हिस्सों में नए ज्ञान का ग्रहण, अनुभव और परिचय प्राप्त करना चाहिए। जो ज्ञान अभी ग्रहण नहीं किया गया है, उसका सावधानीपूर्वक श्रवण करना चाहिए। ज्ञान का निरंतर ग्रहण विनय की वृद्धि करता है।

श्रुताद्द् हि प्रज्ञा उपजायते प्रज्ञाया योगो योगाद् आत्मवत्ता इति विद्यानां सामर्थ्यम्
श्रवण से प्रज्ञा (बुद्धिमत्ता) उत्पन्न होती है, प्रज्ञा से योग (एकाग्रता और अनुशासन) आता है, और योग से आत्मसात और आत्म-प्राप्ति होती है। विद्या की यही क्षमता और शक्ति है जो व्यक्ति को पूर्णता की ओर ले जाती है।

विद्याविनीतो राजा हि प्रजानां विनये रतः ।
विनय से संपन्न विद्या वाला राजा अपनी प्रजा के विनय में लगा रहता है। ऐसा राजा शासन-व्यवस्था को सुव्यवस्थित रखता है और प्रजा के हित में कार्य करता है।

अनन्यां पृथिवीं भुङ्क्ते सर्वभूतहिते रतः
ऐसा राजा पृथ्वी पर अद्वितीय होता है, जो सर्व प्राणियों के कल्याण में लगा रहता है। वह केवल अपने स्वार्थ में नहीं, बल्कि समस्त जीवों के हित में कार्य करता है।


विस्तृत व्याख्या

संस्कृत श्लोक में बताया गया है कि शासन व्यवस्था की नींव तीन प्रकार की विद्या पर टिकी है, जो दण्ड के मूल हैं। दण्ड से तात्पर्य शासन में अनुशासन, नियंत्रण, न्याय और दंडात्मक व्यवस्था से है। इन तीन विद्या के द्वारा शासन के दण्ड को स्थापित किया जाता है, जो राज्य के सुचारू संचालन के लिए अत्यंत आवश्यक है।

इन विद्या में सबसे महत्वपूर्ण है विनय। विनय का अर्थ है आचरण में संयम, शिष्टाचार, आत्म-संयम और नियमों का पालन। विनय ही जीवन के प्राणों के संरक्षण का आधार है। जो व्यक्ति विनीत होता है, वह अपने जीवन को सुव्यवस्थित, अनुशासित और समाजोपयोगी बनाता है।

विनय के दो प्रकार होते हैं - कृतक और स्वाभाविक। कृतक विनय वह है जो सामाजिक नियमों, संस्कारों और शिक्षा से उत्पन्न होता है, जबकि स्वाभाविक विनय व्यक्ति के चरित्र और स्वभाव में निहित होता है। दोनों प्रकार का विनय समन्वित होकर व्यक्ति को पूर्ण रूप से विनीत बनाता है।

विनय केवल बाहरी आचरण या भौतिक वस्तुओं से नहीं नापा जाता, बल्कि कर्मों और क्रियाओं के माध्यम से विनय का मूल्यांकन होता है। यही कारण है कि विद्या और विनय का घनिष्ठ संबंध है। विद्या का अर्थ केवल पुस्तकीय ज्ञान नहीं, बल्कि सेवा भाव, सुनना, समझना, ज्ञान ग्रहण करना और विचार करना है। जो व्यक्ति इन सभी को ग्रहण करता है, वह विनय को प्राप्त करता है।

विद्या की गुणवत्ता और स्वरूप आचार्य की प्रामाणिकता तथा नियम पालन से निर्धारित होती है। शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान देना नहीं, बल्कि उससे उत्पन्न विनय और अनुशासन का निर्माण भी है। आचरण, कर्म कौशल, लिपि ज्ञान और गणना का उपयोग शासन व्यवस्था की दक्षता के लिए जरूरी है।

सामाजिक और शैक्षिक संस्कारों का वर्णन करते हुए बताया गया है कि संस्कारों, उपनयन, और विभिन्न ज्ञान शाखाओं के साथ-साथ दण्ड नीति का सही ज्ञान होना आवश्यक है। इनसे ही शासन व्यवस्था में अनुशासन और विनय कायम रहता है।

ब्रह्मचर्य यानी संयमित और शुद्ध जीवन-शैली का पालन कम से कम सोलह वर्षों तक करना चाहिए, जो एक व्यक्ति को शिक्षा, नैतिकता और अनुशासन की ओर ले जाता है। ब्रह्मचर्य के पश्चात् गोदान और दैनिक कर्मकांड जैसे संस्कार सम्पन्न किए जाने चाहिए, जो सामाजिक और धार्मिक प्रतिष्ठा में वृद्धि करते हैं।

विद्या और विनय के विकास का संबंध निरंतरता से है। विद्या के निरंतर विस्तार और वृद्धि से विनय भी विकसित होता है, क्योंकि विद्या विनय का मूलाधार है।

विद्या के भौगोलिक और विषयगत विभागों का भी वर्णन है। पूर्व दिशा में हथियार, हाथी, अश्व, रथ और युद्ध विद्या में विनय की स्थापना जरूरी है। पश्चिम दिशा में इतिहास के अध्ययन और श्रवण का महत्व बताया गया है, क्योंकि इतिहास से सीखना और विद्या की गहराई समझना संभव होता है। इतिहास के अंतर्गत पुराण, इतिवृत्त, आख्यायिक, धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र आते हैं, जो विद्या के विविध आयाम हैं।

दिन-रात्रि के भिन्न-भिन्न समय में नये ज्ञान की प्राप्ति और उसे ग्रहण करना, जो अभी तक ग्रहण नहीं किया गया है, उसका सावधानीपूर्वक श्रवण करना आवश्यक है। ज्ञान ग्रहण की यह प्रक्रिया प्रज्ञा (बुद्धिमत्ता) उत्पन्न करती है, जो योग और आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाती है।

विद्या-प्राप्ति और विनय-प्राप्ति के बाद, राजा अपने प्रजा के विनय में लगा रहता है। वह केवल स्वार्थी नहीं होता, बल्कि पूरे समाज और प्राणियों के कल्याण के लिए कार्य करता है, जिससे वह पृथ्वी पर अद्वितीय होता है।


महत्वपूर्ण बिंदु

  1. दण्ड की स्थापना तीन प्रकार की विद्या पर निर्भर है।
  2. विनय दण्ड का मूल है, जो जीवन के प्राणों के संरक्षण का आधार है।
  3. विनय दो प्रकार का होता है - कृतक (शिक्षा से) और स्वाभाविक।
  4. विनय केवल बाह्य आचरण से नहीं, कर्मों से मापा जाता है।
  5. विद्या सेवा, श्रवण, ग्रहण, ज्ञान और विचार से विनय उत्पन्न करती है।
  6. विद्या की गुणवत्ता आचार्य की प्रामाणिकता और नियम पालन से तय होती है।
  7. आचरण, लेखन, गणना और कर्म कौशल शासन के आवश्यक तत्व हैं।
  8. संस्कार, उपनयन, आन्वीक्षिकी, दण्ड नीति का ज्ञान सभी को होना चाहिए।
  9. ब्राह्मचर्य कम से कम सोलह वर्ष पालन करना चाहिए।
  10. गोदान और दैनिक कर्म संस्कार जीवन में किए जाने चाहिए।
  11. विद्या और विनय निरंतर विकासशील हैं।
  12. विभिन्न दिशाओं और विषयों में विद्या और विनय की भूमिका होती है।
  13. नित्य नवीन ज्ञान ग्रहण से बुद्धिमत्ता और आत्मसात की प्राप्ति होती है।
  14. राजा अपनी विद्या और विनय से प्रजा के हित में कार्य करता है।
  15. राजा सभी प्राणियों के कल्याण में लगा रहता है।

समापन

विद्या और विनय का परस्पर संबंध शासन, सामाजिक व्यवस्था और व्यक्तित्व निर्माण के मूल आधार हैं। विद्या के बिना विनय संभव नहीं, और विनय के बिना विद्या का सार्थकता नहीं। निरंतर ज्ञान ग्रहण, संयमित जीवनशैली, अनुशासन, और सामाजिक-सांस्कृतिक संस्कारों के माध्यम से ही पूर्ण और प्रभावशाली शासन व्यवस्था की स्थापना संभव है। राजाओं और प्रजा दोनों को इन सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक है, जिससे समस्त समाज और राज्य का कल्याण हो सके।