तया स्वपक्षं परपक्षं च वशीकरोति कोशदण्डाभ्याम्
आन्वीक्षिकी त्रयी वार्त्तानां योगक्षेमसाधनो दण्डः, तस्य नीतिर्दण्ड नीतिः, अलब्धलाभार्था लब्धपरिरक्षणी रक्षितविवर्धनी वृद्धस्य तीर्थे प्रतिपादनी च
तस्यां आयत्ता लोकयात्रा
तस्माल्लोकयात्राऽर्थी नित्यं उद्यतदण्डः स्यात्
न ह्येवंविधं वश उपनयनं अस्ति भूतानां यथा दण्डः । इत्याचार्याः
न इति कौटिल्यः
तीक्ष्णदण्डो हि भूतानां उद्वेजनीयो भवति
मृदुदण्डः परिभूयते
यथाऽर्हदण्डः पूज्यते
सुविज्ञातप्रणीतो हि दण्डः प्रजा धर्मार्थकामैर्योजयति
दुष्प्रणीतः कामक्रोधाभ्यां अवज्ञानाद् वा वानप्रस्थपरिव्राजकान् अपि कोपयति, किंऽङ्ग पुनर्गृहस्थान्
अप्रणीतः तु मात्स्यन्यायं उद्भावयति
बलीयान् अबलं हि ग्रसते दण्डधराभावे
स तेन गुप्तः प्रभवति इति
चतुर्वर्णाश्रमो लोको राज्ञा दण्डेन पालितः ।
स्वधर्मकर्माभिरतो वर्तते स्वेषु वर्त्मसु
व्याख्या
कृषिपाशुपाल्ये वणिज्या च वार्ता, धान्यपशुहिरण्यकुप्यविष्टिप्रदानाद् औपकारिकी
कृषि, पशुपालन, व्यापार तथा वार्ता (संचार-व्यवसाय) जीवनोपार्जन के विभिन्न साधन हैं। इनमें कृषि का अर्थ है भूमि की उपज, पशुपालन का अर्थ है पशुओं का पालन-पोषण, वणिज्या का तात्पर्य है व्यापार या व्यापारी गतिविधि, और वार्ता से अभिप्राय है व्यवसाय या संवाद के माध्यम से धन-लाभ की प्रक्रिया। इन सबका उद्देश्य अनाज, पशु, धन, और संपत्ति को प्राप्त करना तथा उसका संरक्षण करना है। ये सभी क्रियाएँ सामाजिक-आर्थिक सहयोग और सहकारिता के आधार पर संचालित होती हैं, जिससे एक समृद्ध और स्थिर जीवन-व्यवस्था बनती है।
तया स्वपक्षं परपक्षं च वशीकरोति कोशदण्डाभ्याम्
ये संसाधन और साधन न केवल अपने पक्ष के लोगों को प्रभावित करते हैं, बल्कि दूसरे पक्षों को भी नियंत्रित करने की क्षमता रखते हैं। इसका अर्थ यह है कि कृषि, पशुपालन, व्यापार, और वार्ता के माध्यम से व्यक्ति या समाज अपने और पराई दोनों पक्षों पर प्रभाव डाल सकता है। यह नियंत्रण या प्रभाव कोष (धन-संग्रह) और दण्ड (शक्ति या दंड) के द्वारा स्थापित होता है। कोश से आशय धन या वित्त संसाधनों से है, जो व्यक्ति को आर्थिक शक्ति प्रदान करते हैं, वहीं दण्ड से शासन या अनुशासन स्थापित करने की क्षमता सूचित होती है।
आन्वीक्षिकी त्रयी वार्त्तानां योगक्षेमसाधनो दण्डः
आन्वीक्षिकी का अर्थ है ज्ञान-विज्ञान, विशेषतः न्याय, नीति और दर्शनशास्त्र। त्रयी यहाँ नीति, दण्ड, और उपयुक्त ज्ञान की तीन विधाओं को सूचित करती है। ये तीनों मिलकर वार्ता या व्यवसाय के संरक्षण और समृद्धि के साधन बनते हैं। योगक्षेम साधन से आशय है समृद्धि और सुरक्षा का साधन। दण्ड को योगक्षेम साधन के रूप में देखा गया है, जो न केवल शासन के नियमों और अनुशासन का प्रतीक है, बल्कि व्यक्ति और समाज के कल्याण और संरक्षण का उपाय भी है। दण्ड के बिना नीति और न्याय का क्रियान्वयन संभव नहीं। इसलिए, नीति और दण्ड दोनों ही व्यावहारिक शासन की नींव हैं।
तस्य नीतिर्दण्ड नीतिः, अलब्धलाभार्था लब्धपरिरक्षणी रक्षितविवर्धनी वृद्धस्य तीर्थे प्रतिपादनी च
नीति से आशय सामाजिक, नैतिक, आर्थिक और राजनीतिक नियमों तथा सिद्धांतों से है जो समाज को सुव्यवस्थित और समृद्ध बनाते हैं। दण्ड नीति के अभिन्न अंग के रूप में कार्य करता है। दण्ड नीति का स्वरूप होता है - जो लाभ प्राप्त नहीं कर सका, उसे पाने की नीति, जो लाभ प्राप्त हुआ है, उसे सुरक्षित रखने और बढ़ाने की नीति, और जो वृद्ध या स्थापित है, उसका संरक्षण और संवर्धन करने की नीति। यह नीति ऐसे सिद्धांत प्रस्तुत करती है जो लाभ-प्राप्ति, संरक्षण, संवर्धन और सामाजिक स्थिरता के लिए आवश्यक हैं। दण्ड इन नीतियों को क्रियान्वित करने का माध्यम है।
तस्यां आयत्ता लोकयात्रा
यह नीति और दण्ड की व्यवस्था लोकयात्रा से युक्त होती है, अर्थात् शासन व्यवस्था, समाज-व्यवस्था और लोकजीवन एक परिपक्व और सुव्यवस्थित रूप में चलती है। लोकयात्रा का अर्थ होता है समस्त प्रजा और सामाजिक व्यवस्था का एक सुसंगत संचालन, जिसमें नियम, अनुशासन, न्याय और नीति का समुचित अनुपालन हो।
तस्माल्लोकयात्राऽर्थी नित्यं उद्यतदण्डः स्यात्
अतः ऐसी लोकव्यवस्था के लिए सदा सजग, सक्रिय और प्रभावी दण्ड की आवश्यकता होती है। यह दण्ड निरंतर तत्पर रहता है ताकि सामाजिक नियमों, कानूनों और नीतियों का उल्लंघन रोक सके और समाज में शांति और सुव्यवस्था कायम रहे। दण्ड का यह उदयमान रूप सामाजिक नियंत्रण के लिए आवश्यक है।
न ह्येवंविधं वश उपनयनं अस्ति भूतानां यथा दण्डः
इस प्रकार दण्ड के समान कोई भी शक्ति या नियंत्रण भूतों (जीवों/समाज के सदस्यों) को बिना उचित तरीके और नियम के वश में नहीं कर सकता। दण्ड के बिना कोई भी व्यवस्था स्थिर नहीं रहती। दण्ड वह शक्तिशाली उपकरण है जो नियम-पालन कराता है और समाज के सदस्यों को अनुशासित बनाता है।
तीक्ष्णदण्डो हि भूतानां उद्वेजनीयो भवति मृदुदण्डः परिभूयते यथाऽर्हदण्डः पूज्यते
तीव्र और कठोर दण्ड जीवों को आतंकित, भयभीत और आक्रोशित कर देता है। इससे समाज में अशांति उत्पन्न हो सकती है। दूसरी ओर, अत्यन्त मृदु दण्ड से भी वह सम्मान और प्रभाव कम हो जाता है, जिससे उसका क्रियान्वयन कमजोर पड़ता है। अतः उचित और समान दण्ड का होना आवश्यक है, जो न्यायपूर्ण हो और जिसके कारण दण्ड का सम्मान किया जाए। यही सही नीति और शासन की पहचान है।
सुविज्ञातप्रणीतो हि दण्डः प्रजा धर्मार्थकामैर्योजयति
जो दण्ड सुविज्ञतापूर्वक, सोच-समझकर और न्याय के अनुरूप निर्धारित किया जाता है, वह प्रजा को धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति के लिए प्रेरित करता है। यह दण्ड समाज को नैतिकता, आर्थिक समृद्धि और इच्छाओं के सही मार्गदर्शन में सहायता करता है। यह दण्ड सकारात्मक रूप से जनता के जीवन को उन्नत बनाता है।
दुष्प्रणीतः कामक्रोधाभ्यां अवज्ञानाद् वा वानप्रस्थपरिव्राजकान् अपि कोपयति, किंऽङ्ग पुनर्गृहस्थान्
दण्ड यदि गलत, अत्यधिक क्रोधित या इच्छापरक हो तो वह लोगों में घृणा, क्रोध और विद्रोह उत्पन्न करता है। यहां तक कि वानप्रस्थ या परिव्राजक जैसे समाज के उच्चस्तरीय, संयमी और संत लोग भी इसका विरोध कर सकते हैं। इसका अर्थ है कि दण्ड का दुरुपयोग सामाजिक अस्थिरता का कारण बन सकता है। अतः दण्ड का निर्धारण सदा न्याय, विवेक और सामाजिक हित के अनुरूप होना चाहिए।
अप्रणीतः तु मात्स्यन्यायं उद्भावयति
यदि दण्ड की व्यवस्था उचित रूप से न की जाए तो समाज में 'मात्स्य न्याय' का राज हो जाता है। मात्स्य न्याय का अर्थ है शक्तिशाली कमजोरों को दबाते हैं, अर्थात् बलशाली अपनी मनमानी करते हैं और कमजोरों का शोषण करते हैं। यह स्थिति समाज में अराजकता और अन्याय को जन्म देती है।
बलीयान् अबलं हि ग्रसते दण्डधराभावे स तेन गुप्तः प्रभवति इति
दण्डधारी यानी जो दण्ड लागू करता है, उसके बिना शक्तिशाली कमजोरों को दबा नहीं पाता, जिससे समाज में असंतुलन होता है। दण्ड की अनुपस्थिति में शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा अत्याचार और अन्याय गुप्त रूप से फलता-फूलता है। इसलिए दण्ड व्यवस्था समाज की सुरक्षा और न्याय के लिए अपरिहार्य है।
चतुर्वर्णाश्रमो लोको राज्ञा दण्डेन पालितः
समाज में वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) और आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास) व्यवस्था होती है, जिसे राजा और शासन दण्ड के माध्यम से संरक्षित और नियंत्रित करता है। दण्ड के बिना समाज का यह विभाजन और व्यवस्था टिकाऊ नहीं रह सकती। शासन का दण्ड समाज में अनुशासन और सुव्यवस्था स्थापित करता है।
स्वधर्मकर्माभिरतो वर्तते स्वेषु वर्त्मसु
व्यक्ति अपनी-अपनी धर्म और कर्तव्य में लिप्त रहता है और उसी के अनुसार कार्य करता है। दण्ड और नीति की व्यवस्था व्यक्ति को अपने स्वधर्म में स्थापित करती है, जिससे व्यक्ति और समाज दोनों का कल्याण होता है। दण्ड व्यवस्था के माध्यम से लोग अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं और समाज में व्यवस्था बनी रहती है।
विस्तृत व्याख्या
- अर्थ और साधनों का महत्व: कृषि, पशुपालन, व्यापार और वार्ता से आर्थिक समृद्धि की प्राप्ति होती है। यह केवल जीवन निर्वाह के साधन नहीं हैं, बल्कि सामाजिक व्यवस्था के अभिन्न अंग हैं। इनसे संपत्ति, धन, और संसाधन प्राप्त होते हैं जो सामाजिक नियंत्रण और शासन के लिए आवश्यक हैं।
- धन और दण्ड का संयोजन: आर्थिक संसाधन (कोष) और दण्ड दोनों का प्रयोग समाज और शासन में प्रभाव और नियंत्रण स्थापित करने के लिए किया जाता है। धन के बिना दण्ड क्रियाशील नहीं हो सकता, और दण्ड के बिना धन का संरक्षण संभव नहीं। यह संयोजन समाज की सुरक्षा और विकास के लिए आवश्यक है।
- नीति और दण्ड का सह-अस्तित्व: नीति से अभिप्राय है सामाजिक नियम, सिद्धांत और नैतिक मूल्य, जो दण्ड द्वारा लागू और सुरक्षित किए जाते हैं। दण्ड नीति का क्रियान्वयन करता है, और नीति दण्ड की दिशा निर्धारित करती है। यह सहजीविता समाज को स्थिर और न्यायसंगत बनाती है।
- दण्ड की उचितता और संतुलन: दण्ड का निर्धारण न्यायसंगत होना आवश्यक है। अत्यधिक कठोर दण्ड या अत्यन्त मृदु दण्ड दोनों ही अशांति या अवमानना उत्पन्न करते हैं। संतुलित दण्ड समाज में सम्मान और अनुशासन दोनों कायम रखता है।
- दण्ड की सामाजिक प्रभावशीलता: उचित दण्ड धर्म, अर्थ, काम की प्राप्ति में सहायक होता है। यह समाज के सदस्यों को नैतिक और सामाजिक कर्तव्यों का पालन कराने में प्रभावी है। गलत या अत्यधिक दण्ड असंतोष और विद्रोह को जन्म देता है।
- दण्डहीनता के परिणाम: दण्ड की अनुपस्थिति में समाज में मात्स्य न्याय स्थापित होता है, जहाँ शक्तिशाली ही कमजोरों पर अत्याचार करते हैं। इससे सामाजिक व्यवस्था कमजोर होती है और अन्याय बढ़ता है।
- समाज व्यवस्था का संरक्षण: वर्ण और आश्रम व्यवस्था को दण्ड और नीति के माध्यम से संरक्षित किया जाता है। इससे सामाजिक विभाजन, कर्तव्य और अधिकार सुनिश्चित होते हैं। दण्ड व्यवस्था समाज में व्यवस्था, अनुशासन और न्याय को कायम रखती है।
- व्यक्ति और स्वधर्म: प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म और कर्तव्यों का पालन करता है, जो दण्ड और नीति द्वारा समर्थित होता है। यह सुनिश्चित करता है कि समाज के सभी सदस्य अपने निर्धारित कर्तव्यों का निर्वाह करें और सामाजिक समरसता बनी रहे।
निष्कर्षात्मक अभिप्राय
कृषि, पशुपालन, व्यापार और वार्ता से समृद्धि प्राप्त होती है, जो धन और शक्ति के रूप में समाज को मजबूती देती है। धन और दण्ड के माध्यम से सामाजिक नियंत्रण स्थापित होता है। नीति दण्ड की दिशा निर्धारित करती है, और दण्ड नीति का पालन सुनिश्चित करता है। उचित और न्यायसंगत दण्ड से ही समाज में अनुशासन, न्याय और समरसता बनी रहती है। दण्ड के अभाव में शक्तिशाली द्वारा अन्याय और अराजकता होती है। इसलिए दण्ड व्यवस्था सामाजिक व्यवस्था का अभिन्न अंग है, जो वर्ण, आश्रम, धर्म और कर्तव्य की रक्षा करती है। स्वधर्म के पालन में यह व्यवस्था व्यक्ति और समाज दोनों के लिए कल्याणकारी है।