अथर्ववेद इतिहासवेदौ च वेदाः
शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दोविचितिर्ज्योतिषं इति चाङ्गानि
एष त्रयीधर्मश्चतुर्णां वर्णानां आश्रमाणां च स्वधर्मस्थापनाद् औपकारिकः
स्वधर्मो ब्राह्मणस्य अध्ययनं अध्यापनं यजनं याजनं दानं प्रतिग्रहश्च
क्षत्रियस्याध्ययनं यजनं दानं शस्त्राजीवो भूतरक्षणं च
वैश्यस्याध्ययनं यजनं दानं कृषिपाशुपाल्ये वणिज्या च
शूद्रस्य द्विजातिशुश्रूषा वार्त्ता कारुकुशीलवकर्म च
गृहस्थस्य स्वधर्माजीवः तुल्यैरसमान।ऋषिभिर्वैवाह्यं ऋतुगामित्वं देवपित्र्ऽतिथिपूजा भृत्येषु त्यागः शेषभोजनं च
ब्रह्मचारिणः स्वाध्यायो अग्निकार्याभिषेकौ भैक्षव्रतित्वं आचार्ये प्राणान्तिकी वृत्तिः तद्ऽभावे गुरुपुत्रे स-ब्रह्मचारिणि वा
वानप्रस्थस्य ब्रह्मचर्यं भूमौ शय्या जटाऽजिनधारणं अग्निहोत्राभिषेकौ देवतापित्र्ऽतिथिपूजा वन्यश्चाहारः
परिव्राजकस्य जित इन्द्रियत्वं अनारम्भो निष्किञ्चनत्वं सङ्गत्यागो भैक्षव्रतं अनेकत्रारण्ये च वासो बाह्याभ्यन्तरं च शौचम्
सर्वेषां अहिंसा सत्यं शौचं अनसूय आनृशंस्यं क्षमा च
स्वधर्मः स्वर्गायानन्त्याय च
तस्यातिक्रमे लोकः सङ्कराद् उच्छिद्येत
तस्मात् स्वधर्मं भूतानां राजा न व्यभिचारयेत् ।
स्वधर्मं सन्दधानो हि प्रेत्य च इह च नन्दति
व्यवस्थितार्यमर्यादः कृतवर्णाश्रमस्थितिः ।
त्रय्याऽभिरक्षितो लोकः प्रसीदति न सीदति
अथर्ववेद और इतिहासवेद भी वेद हैं।
शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द (जिसे छन्दोविचिति भी कहते हैं), और ज्योतिष – ये (वेद के) अंग हैं।
यह त्रयीधर्म चारों वर्णों और आश्रमों के अपने-अपने धर्म (कर्तव्य) की स्थापना में सहायक होने के कारण उपकारक है।
ब्राह्मण का स्वधर्म अध्ययन, अध्यापन, यजन (स्वयं यज्ञ करना), याजन (दूसरे के लिए यज्ञ कराना), दान देना और प्रतिग्रह (दान स्वीकार करना) है।
क्षत्रिय का (स्वधर्म) अध्ययन, यजन, दान देना, शस्त्रों से आजीविका (शस्त्राजीव) और प्राणियों की रक्षा करना है।
वैश्य का (स्वधर्म) अध्ययन, यजन, दान देना, कृषि, पशुपालन और वाणिज्य है।
शूद्र का (स्वधर्म) द्विजातियों की सेवा, वार्ता (कृषि, पशुपालन, वाणिज्य जैसी आर्थिक वृत्तियाँ), तथा कारु-कर्म (शिल्प) और कुशीलव-कर्म (कला-प्रदर्शन) है।
गृहस्थ का (स्वधर्म) अपने धर्म के अनुसार आजीविका कमाना, समान कुल किन्तु भिन्न ऋषि गोत्र वालों के साथ विवाह करना, ऋतुकाल में (अपनी पत्नी से) समागम करना, देव, पितृ और अतिथि की पूजा, सेवकों के प्रति त्याग (उदारतापूर्वक देना) और (इन सबके उपरान्त) शेष भोजन करना है।
ब्रह्मचारी का (स्वधर्म) स्वाध्याय, अग्नि-परिचर्या (अग्निहोत्र आदि), अभिषेक (नियमपूर्वक स्नान), भिक्षावृत्ति, आचार्य के प्रति प्राणान्त तक सेवाभाव, और उनके अभाव में गुरुपुत्र या साथी ब्रह्मचारी के प्रति (वैसा ही सेवाभाव रखना) है।
वानप्रस्थ का (स्वधर्म) ब्रह्मचर्य का पालन, भूमि पर शयन, जटा और अजिन (मृगचर्म) धारण करना, अग्निहोत्र और अभिषेक, देवता, पितृ और अतिथि की पूजा तथा वन्य पदार्थों का आहार करना है।
परिव्राजक (संन्यासी) का (स्वधर्म) इन्द्रियों पर विजय, (सांसारिक) कर्मों का आरम्भ न करना, अकिंचनता (किसी भी वस्तु का संग्रह न करना), संग-त्याग, भिक्षावृत्ति, अनेक स्थानों पर तथा वन में वास, और बाह्य एवं आभ्यन्तर शौच (पवित्रता) का पालन करना है।
सभी के लिए अहिंसा, सत्य, शौच (पवित्रता), अनसूया (दूसरे के गुणों में दोष न देखना, ईर्ष्या का अभाव), आनृशंस्य (अक्रूरता, करुणा) और क्षमा सामान्य धर्म हैं।
स्वधर्म स्वर्ग और अनन्तता (मोक्ष) की प्राप्ति के लिए होता है।
उसका (स्वधर्म का) अतिक्रमण करने पर लोक (समाज) सङ्कर (वर्ण-धर्म आदि की अव्यवस्था) के कारण नष्ट हो जाएगा।
इसलिए राजा को प्राणियों (प्रजा) को उनके स्वधर्म से विचलित नहीं होने देना चाहिए।
अपने स्वधर्म का सम्यक् पालन करने वाला निश्चय ही इस लोक में और परलोक में भी आनन्दित होता है।
जिस (राज्य या समाज) की आर्य मर्यादाएँ (श्रेष्ठजनों का आचार-व्यवहार) सुव्यवस्थित हैं, और वर्ण तथा आश्रम की व्यवस्था स्थापित है, वह त्रयी (वेदज्ञान) द्वारा रक्षित लोक प्रसन्न रहता है, दुखी नहीं होता।
व्याख्या
वेद और वेदांग:
त्रयी वेदाः - सामवेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद - और अन्य दो वेद - अथर्ववेद तथा इतिहासवेद - वेदों का समूह हैं। इनके साथ पाँच वेदांग होते हैं - शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष। वेद और वेदांग मिलकर वेदज्ञान के सम्पूर्ण अंग हैं। वेद ज्ञान और व्यवहार का आधार हैं, जो धार्मिक, सामाजिक और नैतिक जीवन की स्थापनाओं का मार्गदर्शन करते हैं। वेदों और वेदांगों का संपूर्ण ज्ञान जीवन के चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) और चार आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास) के धर्मों के पालन के लिए आवश्यक है।
धर्म की संरचना:
धर्म केवल कर्मकाण्ड या पूजा-पाठ तक सीमित नहीं है, बल्कि प्रत्येक वर्ण और आश्रम के स्वधर्म (अपने कर्तव्य) की स्थापना है। धर्म के ये स्वरूप प्रत्येक जाति और आश्रम की सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, तथा मानसिक गतिविधियों का निर्धारण करते हैं। वर्णाश्रम व्यवस्था के अंतर्गत प्रत्येक वर्ग और आश्रम के लिए कर्मों और जिम्मेदारियों का निर्धारण होता है जो समाज के समग्र स्थायित्व के लिए आवश्यक है।
ब्राह्मणों के धर्म:
- अध्ययन और अध्यापन: वेदों और शास्त्रों का अध्ययन और दूसरों को पढ़ाना।
- यज्ञ और याजन: धार्मिक अनुष्ठानों का सम्पादन।
- दान और प्रतिग्रह: समाज में दान देना और आवश्यकतानुसार लेने का संतुलन।
ब्राह्मणों का धर्म ज्ञान और संस्कारों के माध्यम से आध्यात्मिक व सामाजिक जीवन की स्थापना करना है।
क्षत्रियों के धर्म:
- अध्ययन, यज्ञ और दान।
- शस्त्रजीवन और भूतरक्षण (भूमि की रक्षा)।
क्षत्रियों का धर्म रक्षा और शासन का कर्तव्य निभाना, अपने प्रजा की सुरक्षा सुनिश्चित करना है।
वैश्यों के धर्म:
- अध्ययन, यज्ञ, दान।
- कृषि, पशुपालन और व्यापार।
वैश्यों का कर्तव्य अर्थोपार्जन है, जो समाज के आर्थिक चक्र को संचालित करता है।
शूद्रों के धर्म:
- द्विजों की सेवा।
- वार्ता (सामाजिक संपर्क), कारुकुशल और कर्मकाण्ड।
शूद्रों का कर्तव्य समाज के अन्य वर्गों की सहायता करना और सामाजिक कार्यों में भाग लेना है।
आश्रमधर्म:
- गृहस्थाश्रम: गृहस्थों का जीवन विवाह, ऋतुसंस्कार, देव और पितृपूजा, नौकरों का त्याग और भोजन की समुचित व्यवस्था आदि से भरा होता है। गृहस्थ का धर्म परिवार और समाज के प्रति जिम्मेदारी निभाना है।
- ब्रह्मचार्याश्रम: ब्रह्मचर्य का जीवन स्वाध्याय, अग्निहोत्र, अभिषेक, भिक्षाव्रत, आचार्य के प्रति सम्मान और प्राणांतिकी वृत्ति से सम्पन्न होता है। यदि गुरु या आचार्य न हो, तो गुरुपुत्र अथवा ब्रह्मचार्यिणी के साथ भी जीवन व्यतीत किया जा सकता है।
- वानप्रस्थाश्रम: ब्रह्मचर्य और वनवास का संयोजन। भूमि पर शय्या, जटा और अजिन धारण करना, अग्निहोत्र तथा अभिषेक करना, देव और पितृपूजा, वन में शाकाहारी भोजन करना।
- परिव्राजक आश्रम: इन्द्रियसंयम, निस्संगता, निष्किञ्चनता, सांसारिक वस्तुओं का त्याग, भिक्षाव्रत, अनेक जंगलों में निवास, बाह्य और आंतरिक शुद्धता का पालन।
सार्वभौमिक आचार्य:
- अहिंसा, सत्य, शौच, अनसूय (ईर्ष्या न करना), नृशंसता न करना (कोई हिंसा न करना), क्षमा।
यह गुण सभी वर्गों और आश्रमों के लिए आवश्यक माने गए हैं। ये सामाजिक तथा आध्यात्मिक जीवन के आधार स्तम्भ हैं।
स्वधर्म का महत्व और पालन:
स्वधर्म का पालन मृत्यु और परलोक दोनों में लाभकारी माना गया है। स्वधर्म की अवहेलना से संसार में混乱 और विनाश होता है। समाज और लोक व्यवस्था के स्थायित्व के लिए स्वधर्म की अनिवार्यता को स्वीकार किया गया है।
स्वधर्म के प्रति समर्पण, पालन और स्थापित स्थिति में बने रहना ही स्थायी और पुष्ट जीवन प्रदान करता है। वैधानिक व्यवस्था तथा वर्णाश्रम धर्म की स्थिरता स्वधर्म की रक्षा पर निर्भर है।
लोक व्यवस्था का संरक्षण:
जो व्यक्ति स्वधर्म की सीमाओं का उल्लंघन करता है, वह लोक के विनाश का कारण बनता है। स्वधर्म की रक्षा ही लोक के अस्तित्व और प्रसन्नता का आधार है। यदि सभी व्यक्ति अपने-अपने स्वधर्म का पालन करें, तो समाज समृद्ध होगा और लोक की व्यवस्था स्थिर और सुरक्षित रहेगी।
व्याख्या का विस्तार
वेदों का श्रुतिपरंपरा से संचालित ज्ञान और वेदांगों का अध्ययन जीवन के चार प्रमुख आयामों - वर्ण, आश्रम, काल और कर्म - के समुचित संचालन के लिए अनिवार्य है। वेदों का ज्ञान मानव जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में आवश्यक नियमों, संस्कारों, और कर्तव्यों को स्पष्ट करता है। इससे प्रत्येक व्यक्ति न केवल अपनी धार्मिक आचार-विचार में सुसंगठित होता है, बल्कि समाज में अपनी भूमिका भी उचित प्रकार से निभाता है।
वर्णव्यवस्था, जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र शामिल हैं, सामाजिक व्यवस्था के स्तम्भ हैं। प्रत्येक वर्ण का अपना स्वधर्म है, जो उसे उसके कर्तव्यों का निर्वहन सुनिश्चित करता है। ब्राह्मणों का धर्म ज्ञानार्जन और शिक्षा, यज्ञ-याजन, दान और सत्कर्मों की स्थापना है। क्षत्रियों का धर्म शासन, रक्षा और युद्धकलाओं में निपुणता है। वैश्यों का धर्म आर्थिक क्रियाएँ जैसे कृषि, व्यापार, पशुपालन हैं। शूद्रों का कर्तव्य अन्य तीन वर्णों की सेवा और विभिन्न सामाजिक क्रियाकलापों में योगदान देना है।
आश्रमव्यवस्था व्यक्ति के जीवन के चार प्रमुख चरणों को परिभाषित करती है: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। प्रत्येक आश्रम का विशिष्ट धर्म होता है। ब्रह्मचर्य जीवन के समय अध्ययन, संयम, गुरु भक्ति, और तपस्या का होता है। गृहस्थ जीवन परिवार, विवाह, पुत्रोत्पत्ति और सामाजिक दायित्वों का है। वानप्रस्थ जीवन में सांसारिक वस्तुओं से दूर वनवास और ध्यान-धारणा होती है। संन्यास जीवन समस्त सांसारिक बन्धनों का त्याग कर मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।
सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन के लिए कुछ सार्वभौमिक गुण आवश्यक हैं, जैसे अहिंसा, सत्य, शौच, क्षमा, अनसूय (ईर्ष्या का न होना), और नृशंसता का त्याग। ये गुण न केवल व्यक्तित्व निर्माण में सहायक होते हैं, बल्कि समाज के समग्र कल्याण के लिए भी आवश्यक हैं।
स्वधर्म की पालना ही मानव के लिए सर्वोत्तम मार्ग है। स्वधर्म का उल्लंघन आत्मा और समाज दोनों के लिए हानिकारक है। एकात्म व्यवस्था में स्वधर्म का पालन लोक व्यवस्था की स्थिरता और विकास का आधार है।
यदि स्वधर्म का पालन किया जाए तो जीवन में श्रेष्ठता, स्थिरता और सौभाग्य प्राप्त होता है। जीवन के अंतिम लक्ष्य यानी स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति के लिए स्वधर्म का पालन अनिवार्य माना गया है।
इस प्रकार वर्णाश्रम और वेदांग धर्म के साथ संयुक्त स्वधर्म न केवल व्यक्ति का कल्याण करता है, बल्कि समाज और विश्व की स्थिरता और शांति का कारण बनता है।
समग्र निष्कर्ष
धर्म के मूल तत्वों में वेद और वेदांग का समावेश है, जो जीवन के विविध पक्षों को नियंत्रित करते हैं। वर्ण और आश्रम धर्म द्वारा समाज की संरचना और व्यक्तिगत जीवन की रूपरेखा सुनिश्चित होती है। स्वधर्म की पालना से जीवन में संतुलन, व्यवस्था और उच्चतर आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त होते हैं। स्वधर्म से विचलन लोक व्यवस्था को भंग करता है, अतः इसका कड़ाई से पालन आवश्यक है। इस प्रकार स्वधर्म की रक्षा लोक के कल्याण और स्थिरता की आधारशिला है।