त्रयी वार्त्ता दण्ड नीतिश्च इति मानवाः
त्रयी विशेषो ह्यान्वीक्षिकी इति
वार्त्ता दण्डनीतिश्च इति बार्हस्पत्याः
संवरणमात्रं हि त्रयी लोकयात्राविद इति
दण्डनीतिरेका विद्या इत्यौशनसाः
तस्यां हि सर्वविद्याऽऽरम्भाः प्रतिबद्धा इति
चतस्र एव विद्या इति कौटिल्यः
ताभिर्धर्मार्थौ यद् विद्यात् तद् विद्यानां विद्यात्वम्
साङ्ख्यं योगो लोकायतं च इत्यान्वीक्षिकी
धर्माधर्मौ त्रय्यां अर्थानर्थौ वार्त्तायां नयानयौ दण्डनीत्यां बलाबले च एतासां हेतुभिरन्वीक्षमाणा लोकस्य उपकरोति व्यसनेऽभ्युदये च बुद्धिं अवस्थापयति प्रज्ञावाक्यक्रियावैशारद्यं च करोति
प्रदीपः सर्वविद्यानां उपायः सर्वकर्मणाम् ।
आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वद् आन्वीक्षिकी मता
मनुष्य इन्हें त्रयी, वार्त्ता और दण्डनीति के रूप में जानते हैं।
आन्वीक्षिकी को त्रयी से विशेष माना गया है।
वार्त्ता और दण्डनीति को बार्हस्पत्य संप्रदाय मानता है।
त्रयी को लोकयात्रा जाननेवाले केवल बाह्य आचरण तक सीमित मानते हैं।
औशनस संप्रदाय दण्डनीति को ही एकमात्र विद्या मानता है, क्योंकि सभी विद्याओं का आरंभ उसी में प्रतिबद्ध होता है।
कौटिल्य का मत है कि ये चारों ही विद्याएँ हैं।
इनसे जो धर्म और अर्थ का ज्ञान प्राप्त होता है, वही वास्तविक विद्या है।
आन्वीक्षिकी में साङ्ख्य, योग और लोकायत का समावेश है।
त्रयी में धर्म और अधर्म, वार्त्ता में अर्थ और अनर्थ, दण्डनीति में नीति-अनीति और शक्ति-दुर्बलता के तत्वों का विश्लेषण होता है।
इन सभी के कारणों का निरीक्षण करनेवाली आन्वीक्षिकी, लोक के कल्याण और संकट के समय बुद्धि को स्थापित करती है और प्रज्ञा, वाणी तथा क्रिया में दक्षता उत्पन्न करती है।
यह समस्त विद्याओं की दीपशिखा है, समस्त कर्मों का उपाय है, और सभी धर्मों का शाश्वत आश्रय है।
अस्यान्वीक्षिकी त्रयी के व्याख्यान हेतु विस्तारपूर्वक हिन्दी व्याख्या
आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिश्च इति विद्याः आन्वीक्षिकी, वार्ता तथा दण्डनीति — ये तीन प्रमुख विद्याएँ (ज्ञान क्षेत्र) हैं। इन तीनों को समग्रतः त्रयी विद्याएँ कहा जाता है। प्रत्येक विद्या का अपना क्षेत्र और उद्देश्य होता है, परंतु ये सब मिलकर व्यापक ज्ञान-संपत्ति का निर्माण करती हैं।
त्रयी वार्ता दण्ड नीतिश्च इति मानवाः मानव जाति के बीच वार्ता, दण्ड और नीति — ये तीन विषय ज्ञान के मुख्य आधार माने गए हैं। वार्ता से तात्पर्य वाणिज्य, व्यापार, और आर्थिक व्यवहार से है। दण्ड नीति राज्य शासन तथा दण्ड के विधान से संबंधित है। नीति का अर्थ शासन, नीति-नियम, और समाज के नियम-व्यवस्था से है। यह त्रयी मानवीय जीवन के तीन मुख्य पहलुओं को स्पष्ट करती है, जो सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक क्षेत्रों का बोध कराती हैं।
त्रयी विशेषो ह्यान्वीक्षिकी इति आन्वीक्षिकी इन तीनों का विशेष रूप से विवेचन करती है। अर्थात्, आन्वीक्षिकी वेदांत, न्याय और मीमांसा के माध्यम से ये तीनों विद्या शाखाएँ एक विशेष दृष्टिकोण से समझाती है। यह विद्या इन तीनों की गहराई और सार को जोड़ती है तथा उन्हें तार्किक, दार्शनिक दृष्टि से भी परखती है।
वार्ता दण्डनीतिश्च इति बार्हस्पत्याः वार्ता तथा दण्डनीति को बार्हस्पत्य ने भी मान्यता दी है। बार्हस्पत्य को प्राचीनकाल में ज्ञान, नीति और वेदों का रक्षक माना जाता है। उनका दृष्टिकोण भी इन दोनों विद्याओं को महत्वपूर्ण मानता है, जो सामाजिक व्यवस्था और आर्थिक संरचना के लिए आधार हैं।
संवरणमात्रं हि त्रयी लोकयात्राविद इति ये त्रयी विद्या केवल अपने में ही नहीं रुकती, बल्कि ये लोक में व्याप्त हैं। लोक यात्रा का अर्थ संसार में ज्ञान का प्रवास है। इन तीनों का समावेश और संरक्षण समाज तथा विश्व के सुव्यवस्थित संचालन का आधार है।
दण्डनीतिरेका विद्या इत्यौशनसाः दण्डनीति को एक विशेष विद्या के रूप में माना गया है। इसका कारण है कि दण्डनीति में सत्ता, शासन, कानून, और समाज में अनुशासन का सिद्धांत समाहित है। यह विद्या समाज के अस्तित्व, सुरक्षा और न्याय व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अपरिहार्य है।
तस्यां हि सर्वविद्याऽऽरम्भाः प्रतिबद्धा इति सभी विद्याओं की शुरुआत दण्डनीति से मानी गई है। क्योंकि बिना उचित शासन और अनुशासन के अन्य विद्याएँ प्रभावी नहीं हो पातीं। दण्डनीति के नियमों और सिद्धांतों में ही अन्य ज्ञान क्षेत्रों के विकास और प्रवाह के लिए आधार निहित है।
चतस्र एव विद्या इति कौटिल्यः कौटिल्य ने विद्या को चार मुख्य भागों में वर्गीकृत किया है। वे हैं — साङ्ख्य, योग, लोकायत, और आन्वीक्षिकी। ये चारों ज्ञान के वे क्षेत्र हैं जो समग्र जीवन, दर्शन, विज्ञान, और तर्क के साथ जुड़े हुए हैं।
ताभिर्धर्मार्थौ यद् विद्यात् तद् विद्यानां विद्यात्वम् इन चारों विद्या के अंतर्गत धर्म और अर्थ (धर्मार्थ) की ज्ञान प्राप्ति ही ज्ञान की असली परिभाषा है। अर्थात् जो भी ज्ञान धर्म और अर्थ के प्रति सहायक हो, वही सच्चा ज्ञान माना जाता है। धर्म से तात्पर्य नैतिकता, न्याय, और समाज के हित से है, और अर्थ से तात्पर्य आर्थिक समृद्धि और संसाधनों के प्रबंधन से है।
साङ्ख्यं योगो लोकायतं च इत्यान्वीक्षिकी साङ्ख्य दर्शन तत्त्वज्ञान और प्रकृति के आधार को समझने का विज्ञान है। योग आत्मा और मन के अनुशासन का मार्ग है। लोकायत भौतिकवाद या भौतिक विज्ञान से संबंधित है। आन्वीक्षिकी इन तीनों के ऊपर दार्शनिक विवेचना करती है, जिससे समग्र ज्ञान को समझने में मदद मिलती है।
धर्माधर्मौ त्रय्यां अर्थानर्थौ वार्त्तायां नयानयौ दण्डनीत्यां बलाबले च एतासां हेतुभिरन्वीक्षमाणा लोकस्य उपकरोति व्यसनेऽभ्युदये च बुद्धिं अवस्थापयति प्रज्ञावाक्यक्रियावैशारद्यं च करोति धर्म और अधर्म की स्पष्ट समझ, अर्थ के लाभ और हानि, व्यापार की युक्तियाँ, नीति का मार्गदर्शन, दण्ड की शक्ति और कमजोरी — इन सभी का कारण आन्वीक्षिकी है, जो जीवन के विभिन्न पक्षों का विश्लेषण करके समाज और व्यक्ति दोनों को लाभ पहुँचाती है। यह व्यसन (दुर्बलता) से उबारने और समृद्धि की ओर ले जाने में बुद्धि और प्रज्ञा प्रदान करती है, साथ ही संवाद, विचार-विमर्श और उचित कार्यवाही का कौशल भी सिखाती है।
प्रदीपः सर्वविद्यानां उपायः सर्वकर्मणाम् । आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वद् आन्वीक्षिकी मता आन्वीक्षिकी को सभी विद्याओं का दीपक कहा गया है, जो अज्ञान के अंधकार को दूर करती है। यह सभी कर्मों का आधार है। साथ ही, यह सभी धर्मों और नियमों की स्थिर आसरा है, जो समय के साथ भी अपरिवर्तित और स्थायी बनी रहती है।
व्याख्या के मुख्य बिंदु
- त्रयी विद्याएँ - आन्वीक्षिकी, वार्ता, दण्डनीति : तीनों विद्याओं को एक साथ समझने से जीवन के तीन मुख्य क्षेत्रों — दार्शनिक, आर्थिक और प्रशासनिक — का ज्ञान होता है। आन्वीक्षिकी दार्शनिक, तार्किक एवं न्याय से संबंधित है, वार्ता व्यापार और अर्थशास्त्र है, और दण्डनीति शासन, अनुशासन और दंड व्यवस्था की विद्या है।
- मानव जीवन के महत्वपूर्ण क्षेत्र : व्यापार, शासन और नीति का तीनों मानव जीवन में अत्यंत महत्व है। ये समाज और राज्य के निर्माण के मूल तत्व हैं।
- दण्डनीति का प्रमुख स्थान : दण्डनीति को अन्य विद्याओं के विकास के लिए आधार माना गया है, क्योंकि बिना अनुशासन और शासन के अन्य ज्ञान प्रभावहीन रहते हैं।
- विद्या की चौतरफा परिभाषा : विद्या केवल तात्त्विक ज्ञान नहीं है, बल्कि धर्म और अर्थ के समझ से ही विद्या का मूल्य समझा जा सकता है।
- चार प्रकार की विद्या : साङ्ख्य, योग, लोकायत और आन्वीक्षिकी — ये चारों जीवन और ज्ञान के अलग-अलग आयामों को स्पर्श करती हैं, और ये विद्या समग्र ज्ञान का प्रतिनिधित्व करती हैं।
- आन्वीक्षिकी का प्रभाव : यह विद्या मनुष्य को बुद्धि, प्रज्ञा, और विवेक से लैस करती है, जिससे समाज की उन्नति, अपराध से रक्षा, और सही निर्णय लेना संभव होता है।
- आन्वीक्षिकी का महत्व : यह सभी विद्याओं का दीपक है जो अज्ञान को दूर करती है और सभी कर्मों व धर्मों का आधार है।
विस्तृत व्याख्या
आन्वीक्षिकी त्रयी विद्याओं का विज्ञान है, जो ज्ञान के तीन मुख्य क्षेत्रों को समेटे हुए है — यह तीन क्षेत्र हैं वार्ता, दण्डनीति और नीति। वार्ता का संबंध अर्थव्यवस्था, वाणिज्य और वित्त से है, दण्डनीति समाज के शासन-प्रशासन से, और नीति समाज के नियम-व्यवस्था से। इन तीनों का संयोजन मनुष्य और समाज की समग्रता का बोध कराता है।
मानव समाज में अर्थ और धर्म का विशेष महत्व है, क्योंकि धर्म सामाजिक और नैतिक नियमों का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि अर्थ जीवन यापन के साधनों की व्यवस्था करता है। इनके बिना न समाज का विकास संभव है न जीवन का संतुलन। इसलिए ज्ञान की पहचान इनके माध्यम से की जाती है।
साङ्ख्य दर्शन तत्त्वज्ञान के माध्यम से जीवन और प्रकृति के आधारों को समझता है, योग मानसिक और आध्यात्मिक अनुशासन का मार्ग है, लोकायत भौतिकता और प्रकृति विज्ञान से संबंधित है। ये सभी जीवन के विविध पहलुओं को स्पर्श करते हैं, परंतु आन्वीक्षिकी उनकी समीक्षा, समालोचना और विवेचना करती है, जिससे समग्र ज्ञान का सृजन होता है।
दण्डनीति का प्रभाव व्यापक है, क्योंकि शासन और अनुशासन के बिना अन्य ज्ञान उपयोगी नहीं होता। यह विद्या समाज में न्याय, शक्ति और नियम का संतुलन स्थापित करती है, जो सामाजिक स्थिरता के लिए आवश्यक है।
आन्वीक्षिकी की भूमिका दीपक की तरह है, जो अन्य सभी विद्याओं को प्रकाशमान करती है और कर्मों के मार्ग को स्पष्ट करती है। यह अज्ञान के अंधकार को दूर करके जीवन को उज्जवल बनाती है, और सभी धर्मों का आधार बनी रहती है।
इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि मानव जीवन और समाज की समग्र व्यवस्था, आर्थिक विकास, नैतिकता और शासन-प्रशासन की नींव इन तीन विद्याओं पर टिकी हुई है, जिन्हें आन्वीक्षिकी के माध्यम से समझा और संचालित किया जाता है। यह ज्ञान केवल दार्शनिक या तात्त्विक नहीं, बल्कि व्यवहारिक, प्रशासनिक और सामाजिक जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है।