श्लोक ०१-१५

Kautilya Arthashastra by Acharya Chankya
कृतस्वपक्षपरपक्ष उपग्रहः कार्यारम्भांश्चिन्तयेत्
मन्त्रपूर्वाः सर्वारम्भाः
तद्।उद्देशः संवृतः कथानां अनिह्श्रावी पक्षिभिरप्यनालोक्यः स्यात् ।
श्रूयते हि शुकसारिकाभिर्मन्त्रो भिन्नः, श्वभिरप्यन्यैश्च तिर्यग्योनिभिरिति
तस्मान् मन्त्र उद्देशं अनायुक्तो न उपगच्छेत्
उच्छिद्येत मन्त्रभेदी
मन्त्रभेदो हि दूतामात्यस्वामिनां इङ्गिताकाराभ्याम्
इङ्गितं अन्यथावृत्तिः
आकृतिग्रहणं आकारः
तस्य संवरणं आयुक्तपुरुषरक्षणं आकार्यकालाद् इति
तेषां हि प्रमादमदसुप्तप्रलापाः, कामादिरुत्सेकः, प्रच्छन्नोऽवमतो वा मन्त्रं भिनत्ति
तस्माद् आद्रक्षेन् मन्त्रम्
मन्त्रभेदो ह्ययोगक्षेमकरो राज्ञः तद्।आयुक्तपुरुषाणां च
तस्माद् गुह्यं एको मन्त्रयेत इति भारद्वाजः
मन्त्रिणां अपि हि मन्त्रिणो भवन्ति, तेषां अप्यन्ये
सा एषा मन्त्रिपरम्परा मन्त्रं भिनत्ति
तस्मान्नास्य परे विद्युः कर्म किञ्चिच्चिकीर्षितम् ।
आरब्धारः तु जानीयुरारब्धं कृतं एव वा
न एकस्य मन्त्रसिद्धिरस्ति इति विशालाक्षः
प्रत्यक्षपरोक्षानुमेया हि राजवृत्तिः
अनुपलब्धस्य ज्ञानं उपलब्धस्य निश्चितबलाधानं अर्थद्वैधस्य संशयच्छेदनं एकदेशदृष्टस्य शेष उपलब्धिरिति मन्त्रिसाध्यं एतत्
तस्माद् बुद्धिवृद्धैः सार्धं अध्यासीत मन्त्रम्
न कञ्चिद् अवमन्येत सर्वस्य श‍ृणुयान् मतम् ।
बालस्याप्यर्थवद्वाक्यं उपयुञ्जीत पण्डितः ।
एतन् मन्त्रज्ञानं, न एतन् मन्त्ररक्षणम् इति पाराशराः
यद् अस्य कार्यं अभिप्रेतं तत्प्रतिरूपकं मन्त्रिणः पृच्छेत् - कार्यं इदं एवं आसीत्, एवं वा यदि भवेत्, तत् कथं कर्तव्यम् इति
ते यथा ब्रूयुः तत् कुर्यात्
एवं मन्त्र उपलब्धिः संवृतिश्च भवति इति
न इति पिशुनः
मन्त्रिणो हि व्यवहितं अर्थं वृत्तं अवृत्तं वा पृष्टा अनादरेण ब्रुवन्ति प्रकाशयन्ति वा
स दोषः
तस्मात् कर्मसु ये येष्वभिप्रेताः तैः सह मन्त्रयेत
तैर्मन्त्रयमाणो हि मन्त्रसिद्धिं गुप्तिं च लभते इति
न इति कौटिल्यः
अनवस्था ह्येषा
मन्त्रिभिः त्रिभिश्चतुर्भिर्वा सह मन्त्रयेत
मन्त्रयमाणो ह्येकेनार्थकृच्छ्रेषु निश्चयं नाधिगच्छेत्
एकश्च मन्त्री यथा इष्टं अनवग्रहश्चरति
द्वाभ्यां मन्त्रयमाणो द्वाभ्यां संहताभ्यां अवगृह्यते, विगृहीताभ्यां विनाश्यते
तत् त्रिषु चतुषु वा कृच्छ्रेण उपपद्यते
महादोषं उपपन्नं तु भवति
ततः परेषु कृच्छ्रेणार्थनिश्चयो गम्यते, मन्त्रो वा रक्ष्यते
देशकालकार्यवशेन त्वेकेन सह द्वाभ्यां एको वा यथासामर्थ्यं मन्त्रयेत
कर्मणां आरम्भ उपायः पुरुषद्रव्यसम्पद् देशकालविभागो विनिपातप्रतीकारः कार्यसिद्धिरिति पञ्चाङ्गो मन्त्रः
तान् एकैकशः पृच्छेत् समस्तांश्च
हेतुभिश्च एषां मतिप्रविवेकान् विद्यात्
अवाप्तार्थः कालं नातिक्रामयेत्
न दीर्घकालं मन्त्रयेत, न तेषां पक्षीयैर्येषां अपकुर्यात्
मन्त्रिपरिषदं द्वादशामात्यान् कुर्वीत इति मानवाः
षोडश इति बार्हस्पत्याः
विंशतिम् इत्यौशनसाः
यथासामर्थ्यं इति कौटिल्यः
ते ह्यस्य स्वपक्षं परपक्षं च चिन्तयेयुः
अकृतारम्भं आरब्धानुष्ठानं अनुष्ठितविशेषं नियोगसम्पदं च कर्मणां कुर्युः
आसन्नैः सह कर्माणि पश्येत्
अनासन्नैः सह पत्त्रसम्प्रेषणेन मन्त्रयेत
इन्द्रस्य हि मन्त्रिपरिषद्।ऋषीणां सहस्रम्
स तच्चक्षुः
तस्माद् इमं द्व्य्ऽक्षं सहस्राक्षं आहुः
आत्ययिके कार्ये मन्त्रिणो मन्त्रिपरिषदं चाहूय ब्रूयात्
तत्र यद्भूयिष्ठा ब्रूयुः कार्यसिद्धिकरं वा तत् कुर्यात्
कुर्वतश्च
नास्य गुह्यं परे विद्युश्छिद्रं विद्यात् परस्य च ।
गूहेत् कूर्म इवाङ्गानि यत् स्याद् विवृतं आत्मनः
यथा ह्यश्रोत्रियः श्राद्धं न सतां भोक्तुं अर्हति ।
एवं अश्रुतशास्त्रार्थो न मन्त्रं श्रोतुं अर्हति
अपने और शत्रु के पक्ष की स्थिति, सहयोगियों और कार्य आरंभ के सभी पहलुओं पर विचार करना चाहिए।
हर कार्य की शुरुआत मंत्रणा (गुप्त परामर्श) से होनी चाहिए।

मंत्रणा का उद्देश्य और विषय पूर्णतः गोपनीय होना चाहिए — इतना कि पक्षी भी न सुन सकें और देख न सकें।
क्योंकि तोते और मैना जैसे पक्षियों के द्वारा भी मंत्र का भेदन हो सकता है, और कुत्तों या अन्य पशुओं द्वारा भी।
इसलिए जो मंत्रणा से संबंधित नहीं है, उसे उसमें सम्मिलित नहीं करना चाहिए।
मंत्र को भेदने वाला नष्ट हो जाता है।

मंत्र का भेदन राजा, दूत, मंत्री आदि के इशारों और हाव-भावों से भी हो सकता है।
इशारा बदलना ही 'इंगित' है, और आकृति को पकड़ना 'आकार' है।
इसलिए मंत्री के हाव-भाव और समय से पहले की गतिविधियों को रोकना चाहिए।

जो लोग प्रमाद, मद, नींद या वासनाओं में डूबे रहते हैं, या मंत्र को तुच्छ समझते हैं — वे मंत्र का भेदन करते हैं।
इसलिए मंत्र की रक्षा करनी चाहिए।
क्योंकि मंत्र का भेदन राजा और उसके सहायकों के लिए अनिष्टकारी होता है।

भरद्वाज कहते हैं:
"गोपनीय विषयों पर एक ही व्यक्ति से मंत्रणा करनी चाहिए।"
क्योंकि मंत्रियों के भी मंत्री होते हैं — और वे आगे भेद कर सकते हैं।
इसलिए कोई अन्य व्यक्ति न जान पाए कि क्या कार्य करने का विचार किया जा रहा है।
यदि कार्य आरंभ हुआ हो, तो केवल वही जान सकते हैं जो उसमें भागीदार हों।

विशालाक्ष कहते हैं:
"एक व्यक्ति से मंत्रणा करने से सिद्धि नहीं मिलती।
राजा की नीति प्रत्यक्ष, परोक्ष और अनुमान से समझी जाती है।
अनुपलब्ध विषय का ज्ञान, उपलब्ध का निर्णय, संदेह का समाधान, अज्ञात भाग का अनुमान — ये मंत्रियों से संभव होता है।
इसलिए बुद्धिमानों के साथ बैठकर मंत्रणा करनी चाहिए।
किसी को भी तुच्छ न समझें, सबकी राय सुनें।
यदि कोई बालक भी उचित बात कहे, तो पंडित उसे भी ग्रहण करता है।

यह मंत्र का ज्ञान है, किंतु यह मंत्र की रक्षा नहीं है — ऐसा पाराशर कहते हैं।

यदि कोई कार्य मन में है, तो उसके बारे में मंत्रियों से परामर्श करें — "यदि ऐसा हो तो क्या करना चाहिए?"
वे जो कहें, वही करें।
इस प्रकार मंत्रणा सफल और सुरक्षित होती है।

पिशुन (चुगलखोर) कहते हैं:
"मंत्री यदि पूछे गए विषय की अवहेलना कर दें या उसका भेदन कर दें — तो यह दोष है।"
इसलिए जिनके साथ कार्य करना है, उन्हीं के साथ मंत्रणा करनी चाहिए।
क्योंकि वही गुप्तता और सफलता लाते हैं।

कौटिल्य कहते हैं:
"एक से मंत्रणा करना ठीक नहीं, यह अस्थिर नीति है।
तीन या चार मंत्रियों के साथ मंत्रणा करें।
एक व्यक्ति कठिन मामलों में निर्णय नहीं कर सकता।
एक मंत्री अपनी इच्छा से विचरता है।
दो मंत्रियों से परामर्श करने पर यदि वे एकमत हों तो सहयोग मिलता है, अन्यथा हानि।
तीन या चार होने पर कठिनाई से सही निर्णय होता है।

यदि कार्य बड़ा हो तो, कई लोगों से विचार करें।
लेकिन निर्णय हेतु समय, स्थान और परिस्थिति के अनुसार एक या दो से परामर्श किया जा सकता है।

कार्य आरंभ के पांच अंग होते हैं:

1. उपाय (साधन),
2. पुरुष (व्यक्ति),
3. द्रव्य (संपत्ति),
4. देश-काल का ज्ञान,
5. संकट निवारण और कार्य सिद्धि।

इन सब पर एक-एक से प्रश्न करें, फिर सामूहिक रूप से।
उनके मतों का विवेकपूर्वक मूल्यांकन करें।
यदि लक्ष्य प्राप्त हो चुका है, तो समय व्यर्थ न करें।
बहुत अधिक देर तक मंत्रणा न करें, और विपक्षियों से न मिलें।

मानवों के अनुसार मंत्रिपरिषद् 12 मंत्रियों की होनी चाहिए।
बार्हस्पत्यों के अनुसार 16,
औशनसों के अनुसार 20 मंत्री।
कौटिल्य कहते हैं: "जितना संभव हो, उतने हों।"

वे राजा के और शत्रु के पक्षों पर विचार करें।
कार्य की योजना बनाएं और उस पर क्रियान्वयन करें।
निकटस्थों के साथ कार्य करें, दूरस्थों से पत्रों के माध्यम से मंत्रणा करें।

इंद्र की मंत्रिपरिषद् में हजारों ऋषि थे — वही उसका नेत्र थे।
इसलिए उसे 'द्व्यक्ष' (दो नेत्रों वाला) और 'सहस्राक्ष' (हजार नेत्रों वाला) कहा गया।

जब कोई आपात स्थिति आए, तो मंत्रिपरिषद् को बुलाकर बात करनी चाहिए।
जो सबसे उचित बात हो — वही करनी चाहिए।
और करते समय कोई भी गुप्त बात बाहर न जाए।
जैसे कछुआ अपने अंगों को भीतर छिपा लेता है, वैसे ही अपनी योजनाएं गुप्त रखें।

जैसे अज्ञानी व्यक्ति श्राद्ध में नहीं बैठ सकता,
वैसे ही शास्त्र न सुनने वाला व्यक्ति मंत्रणा में भाग नहीं ले सकता।

मन्त्र और कार्य के प्रारम्भ में सूक्ष्म विवेचन

मन्त्र की उत्पत्ति और उसकी संवेदनशीलता

राजनीति, प्रशासन एवं राज्यकार्य में मन्त्र की भूमिका अत्यंत सूक्ष्म और संवेदनशील होती है। मन्त्र न केवल विचारों का संकलन होता है, बल्कि वह एक रहस्यमय एवं गूढ़ संकेतों का संयोजन होता है, जिसे केवल योग्य और विश्वसनीय व्यक्ति ही समझ पाते हैं। इसलिए मन्त्र का उद्देश्य और उसका प्रयोग बिना स्पष्टता और विवेक के नहीं किया जाना चाहिए। मन्त्र को तैयार करने में जो पक्ष और विपक्ष, अर्थात् समर्थक और विरोधी वर्ग होते हैं, उनकी परिस्थितियों का गहन अध्ययन आवश्यक होता है। मन्त्र का उपयोग तभी सार्थक होता है जब वह स्वपक्ष और परपक्ष की स्थिति, दोनों को ध्यान में रखकर रचित हो।

स्वपक्ष और परपक्ष का चिन्तन

स्वपक्ष से आशय है स्वयं के समर्थक और सहयोगी, जबकि परपक्ष से विपरीत विचारधारा और विरोधी। मन्त्रकार को इन दोनों के व्यवहार, मानसिकता और संभावित प्रतिक्रियाओं का सूक्ष्म अध्ययन करना होता है। केवल स्वपक्ष की अपेक्षाओं के आधार पर मन्त्र तैयार करना अधूरा एवं असफल प्रयास होता है। परपक्ष की संभावित चालों और उसकी मानसिक स्थिति को समझे बिना मन्त्र की शक्ति प्रभावहीन बन जाती है।

कार्यारम्भ की सूझ-बूझ

किसी भी कार्य की शुरुआत अथवा योजना के आरम्भ में इसकी गहन चिंतन प्रक्रिया अपरिहार्य है। कार्य के विभिन्न पहलुओं, संभावित बाधाओं, सफलताओं और असफलताओं का पूर्वाभास आवश्यक होता है। मन्त्र, जो कार्य के आरम्भ का आधार है, उसकी योजना तभी सफल हो सकती है जब उसे प्रारम्भ में ही सम्पूर्ण दृष्टी से परखा जाए। कार्यारम्भ के बिना मन्त्र केवल एक कल्पना बनकर रह जाता है।

मन्त्रभेद और उसकी विघटनकारी प्रकृति

मन्त्रभेद से तात्पर्य है मन्त्र के भीतर विद्यमान विभाजन, जो राजदरबार में दूत, मात्य, स्वामी आदि के बीच संकेतों और संकेतान्तर्गत अनभिज्ञता उत्पन्न करता है। मन्त्रभेद किसी भी कार्य की सफलता के लिए घातक सिद्ध होता है। जब मन्त्र में भिन्नता आती है, तब उसके माध्यम से प्रेषित संदेश असमंजस और भ्रम उत्पन्न करते हैं।

इङ्गित और आकार की भूमिका

मन्त्र में प्रयुक्त इङ्गित (संकेत) और आकार (रूप) केवल बाह्य अभिव्यक्तियाँ नहीं होतीं, बल्कि वे गुप्तार्थ का वाहक होती हैं। यदि इङ्गित भिन्न हो जाए, तो उसके अर्थ में भी भिन्नता आ जाती है, जिससे कार्य में विघ्न उत्पन्न होता है। आकार ग्रहण का तात्पर्य इस संकेत की स्पष्ट पहचान से है, जो मन्त्र के अर्थ को सुरक्षित और संरक्षित रखता है।

संवरण और रक्षा

मन्त्र का संरक्षण, आयुक्त पुरुषों द्वारा किया जाना आवश्यक है, ताकि वह प्रमाद, निद्रा, अनावश्यक प्रलाप, काम या अवमानना से नष्ट न हो। मन्त्र को सुरक्षा की आवश्यकता होती है क्योंकि उसकी विघटनशीलता से कार्यों में त्रुटि और दुष्परिणाम उत्पन्न होते हैं।

गोपनीयता और मन्त्र की एकता

मन्त्र का गोपनीय रहना आवश्यक है। यदि मन्त्र का उद्देश्य स्पष्ट न हो और वह बिना संयोजन के बहुविध व्यक्तियों तक पहुँचे, तो मन्त्र अपना प्रभाव खो देता है। इसलिए एकीकृत और सुविचारित मन्त्र की आवश्यकता है, जिसे केवल चयनित और विश्वसनीय व्यक्तियों तक सीमित रखा जाए।

मन्त्रिणों के बीच एकता और सामंजस्य

मन्त्रिण केवल व्यक्तिवादी नहीं होते, वे एक प्रणाली के अंश होते हैं। यदि मन्त्रिणों के बीच भी विवाद और मतभेद उत्पन्न हों, तो मन्त्र की शक्ति कमज़ोर हो जाती है। मन्त्रिण परस्पर सहयोगी और एकमत होकर ही मन्त्र की सफलता सुनिश्चित कर सकते हैं।

मन्त्र के उद्देश्य की स्पष्टता

मन्त्र का कार्य केवल जानकारी देना नहीं, बल्कि कार्य के लक्ष्यों और उनके अनुपालन की दिशा दिखाना है। मन्त्र का उद्देश्य अस्पष्ट या व्यर्थ नहीं होना चाहिए। प्रत्येक मन्त्र का एक निश्चित लक्ष्य और उससे जुड़ा हुआ कार्य होना चाहिए, जो स्पष्ट और सटीक हो।

कार्य की समानता और मन्त्र का अनुरूप होना

किसी कार्य का आरम्भ उस मन्त्र के अनुरूप होना चाहिए, जिससे वह उपयुक्त और सफल हो। यदि कार्य और मन्त्र के बीच असंगति होगी, तो कार्य में बाधाएँ आएंगी। कार्य की प्रकृति, समय, स्थान और साधन के अनुरूप मन्त्र का निर्माण आवश्यक है।

मन्त्र की प्रभावशीलता के सिद्धांत

ज्ञान, अनुभव और विवेक की आवश्यकता

मन्त्र तभी सफल होता है जब उसके पीछे ज्ञान और अनुभव की गहनता हो। केवल मुँहफट या अनभिज्ञ व्यक्ति मन्त्र का सही अर्थ नहीं समझ पाते, बल्कि बुद्धि और विवेक से युक्त व्यक्ति ही मन्त्र के माध्यम से कार्यों में सफलता ला सकता है।

श्रोताओं की योग्यता

जिसे मन्त्र सुनना और समझना है, उसका श्रवण और बोध क्षमता उपयुक्त होनी चाहिए। जैसे अशिक्षित या अनभिज्ञ व्यक्ति गूढ़ शास्त्रों का सार न समझ पाता है, उसी प्रकार अशिक्षित श्रोता मन्त्र का सही अर्थ ग्रहण नहीं कर सकता।

मन्त्र का व्यावहारिक अन्वय

मन्त्र के सफल प्रयोग के लिए उसके व्यावहारिक पक्ष की समझ होना आवश्यक है। केवल मन्त्र का ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं, उसे कार्यान्वित करने की क्षमता और संसाधन भी चाहिए। मन्त्र का अर्थ तभी सिद्ध होता है जब वह प्रशासन और राज्य-नीति में सशक्त और संतुलित रूप से लागू हो।

मन्त्र के प्रयोग में समय और स्थान का महत्व

मन्त्र का प्रयोग यथार्थ समय और उचित स्थान पर ही प्रभावशाली होता है। यदि मन्त्र का प्रयोग समय से पूर्व या पश्चात् किया जाए, तो वह विफल हो सकता है। इसलिए, मन्त्र का आरम्भ और संरक्षण कार्य के काल और प्रदेश के अनुसार किया जाना चाहिए।

मन्त्रिण परिषद और निर्णय प्रणाली

मन्त्र का निर्णय केवल एक व्यक्ति का कार्य नहीं, बल्कि मन्त्रिण परिषद के सहयोग से ही बेहतर परिणाम देता है। परिषद में विविध विचार आते हैं, जिनसे मन्त्र का त्रुटिहीन निर्माण संभव होता है। परिषद के सदस्यों की संख्या और उनकी योग्यता, मन्त्र की सफलता में निर्णायक भूमिका निभाती है।

परिषद के सदस्यों की संख्या और क्षमता

परिषद के सदस्यों की संख्या स्थिति और आवश्यकता के अनुसार भिन्न हो सकती है—बारह, सोलह या बीस तक। प्रत्येक सदस्य का दायित्व और योग्यता इस परिषद के निर्णयों को प्रभावी बनाती है। अत्यधिक सदस्य होने पर भी विवाद बढ़ सकता है, अतः संख्या उचित और सामंजस्यपूर्ण होनी चाहिए।

मन्त्र के संरक्षण में सतर्कता

मन्त्र का संरक्षण अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यदि वह किसी अनधिकृत व्यक्ति तक पहुँच जाए, तो उसका गुप्तार्थ खुल सकता है और कार्य विफल हो सकता है। इसलिए मन्त्र का गुप्त रहना आवश्यक है, और इसे सुरक्षित रखने के लिए उपाय अपनाने चाहिए।

गुप्तता का महत्व

गुप्तता इस प्रकार होनी चाहिए कि मन्त्र कहीं फूट न पाए। गुप्तता की सुरक्षा के लिए केवल शब्दों का नहीं, बल्कि मन्त्र के अर्थ, उद्देश्य और संकेतों का भी रक्षण आवश्यक है। यदि गुप्तार्थ खुल गया तो वह कूर्म की तरह अपनी सुरक्षा खो बैठता है।

मन्त्र सिद्धि के अभाव में उत्पन्न समस्याएँ

अवस्था और अनियमितता की समस्या

मन्त्र के साथ जब अव्यवस्था और असमंजस उत्पन्न होता है, तो मन्त्र का उद्देश्य सिद्ध नहीं हो पाता। यदि मन्त्र का अनुचित प्रयोग हो या वह अस्पष्ट हो, तो वह कार्यों में विघ्न डालता है। एक मंत्री यदि गलत निर्णय लेता है तो मन्त्र की सफलता संभव नहीं।

मन्त्र की असंगति से होने वाले दुष्परिणाम

असंगत मन्त्र से कार्य विफल हो जाता है और उसका प्रभाव सम्पूर्ण प्रशासन प्रणाली पर पड़ता है। कई मंत्रियों के बीच असहमति या गलत व्याख्या से भी मन्त्र का प्रभाव नकारात्मक हो सकता है।

कार्य सिद्धि और मन्त्र की अनिवार्यता

राज्य के कार्यों की सिद्धि के लिए मन्त्र की आवश्यक भूमिका है। कार्य की योजना, संसाधन, समय, पुरुष और वस्तु संपदा का ध्यान रखते हुए मन्त्र तैयार और प्रयुक्त किया जाना चाहिए। बिना मन्त्र के कार्य में दिशाहीनता होती है और सफलता दुर्लभ होती है।

कार्य की प्रकृति और मन्त्र का अनुकूलन

प्रत्येक कार्य की अपनी विशेषता होती है। जैसे युद्ध, शांति, आर्थिक नीतियाँ, सामाजिक सुधार आदि में मन्त्र के स्वरूप, संख्या और गोपनीयता का भेद होता है। इस भेद को समझकर ही मन्त्र को प्रभावी बनाया जा सकता है।

सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ में मन्त्र की भूमिका

मन्त्र का राजनैतिक महत्व

राज्य व्यवस्था में मन्त्र केवल जानकारी या सुझाव नहीं, बल्कि सत्ता और नियंत्रण के माध्यम होते हैं। मन्त्र के द्वारा राजा और उसके मंत्री अपने उद्देश्यों को छुपाकर विरोधियों को परास्त कर सकते हैं। इसलिए मन्त्र की राजनीति सूक्ष्म और गूढ़ होती है।

विरोधी दलों के प्रति सावधानी

राजनीति में विरोधी दलों का ध्यान रखना अनिवार्य है। यदि मन्त्र का उपयोग विरोधियों को समझ में आ जाए, तो उसका राजनीतिक मूल्य घट जाता है। अतः मन्त्र की योजना करते समय विरोधियों की मानसिकता और संभावित कदमों का अध्ययन आवश्यक है।

राज्य प्रशासन में मन्त्र की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि

भारतीय शास्त्रों में मन्त्र केवल आध्यात्मिक अथवा धार्मिक संदर्भ में ही नहीं, बल्कि प्रशासनिक और राजनैतिक संदर्भ में भी एक महत्वपूर्ण उपकरण हैं। मन्त्र को संस्कृत भाषा, सांकेतिक रूप और पारंपरिक संरचनाओं के आधार पर तैयार किया जाता है, जिससे वह गूढ़ एवं प्रभावशाली बनता है।

मन्त्र और पारंपरिक ज्ञान

मन्त्र का ज्ञान केवल शाब्दिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और परंपरागत अनुभवों का संग्रह होता है। यह ज्ञान वर्षों की परीक्षा-परख का परिणाम है, जो प्रभावी प्रशासन के लिए अनिवार्य है।

मन्त्र के संरक्षण के लिए व्यवहारिक निर्देश

मन्त्र का उपयोग और संचार

मन्त्र का संचार सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए। केवल आवश्यक और विश्वसनीय व्यक्तियों तक ही मन्त्र पहुँचना चाहिए। मंत्रिणों द्वारा भी अनावश्यक खुलासा, उपेक्षा या लापरवाही से बचना चाहिए।

संदेह और अनादर से बचाव

मन्त्र का प्रयोग करते समय शंका और अविश्वास से बचना चाहिए। यदि मन्त्रिण में से कोई भी मन्त्र को अनादर करता है या उसे अस्वीकार करता है, तो उसका प्रभाव कमजोर हो सकता है। इसलिए परिषद में सहमति और सम्मान आवश्यक है।

मन्त्र की सतत समीक्षा और पुनः परीक्षण

मन्त्र का निर्माण होने के बाद भी उसकी निरंतर समीक्षा जरूरी होती है। समय, परिस्थितियाँ और पक्ष-विपक्ष की स्थिति में बदलाव के अनुसार मन्त्र में आवश्यक संशोधन किए जाने चाहिए। यह प्रक्रिया मन्त्र को सशक्त और प्रभावी बनाती है।

समीक्षा के लिए संवाद और प्रश्न-उत्तर

कार्य की विविध स्थितियों के अनुसार मन्त्रिणों को अपने-अपने विचार और प्रश्न उठाने चाहिए। इससे मन्त्र की प्रामाणिकता और उपयोगिता में वृद्धि होती है। इस संवादात्मक प्रक्रिया से मन्त्र को अंतिम रूप दिया जाता है।

मन्त्र की उपयुक्तता और असंगत प्रयोग के जोखिम

मन्त्र का असंगत प्रयोग और परिणाम

मन्त्र का उपयुक्त न होना या अनुचित उपयोग राज्य के लिए खतरनाक हो सकता है। यदि मन्त्र कार्य के अनुरूप नहीं है, तो वह विफलता और भ्रांतियों को जन्म देता है। इसीलिए मन्त्र के चयन में व्यापक सोच और सटीकता आवश्यक है।

मन्त्र की अनियमितता से उत्पन्न संकट

अनियमित मन्त्र के कारण कार्यों में अनिश्चितता, विवाद और असफलता आती है। मन्त्र का उद्देश्य और उसका परिणाम एक दूसरे के अनुकूल होना चाहिए, अन्यथा वह हानि का कारण बनता है।

गोपनीयता का उल्लंघन और उसके दुष्परिणाम

यदि मन्त्र का गुप्त रहस्य किसी परे व्यक्ति को ज्ञात हो जाए, तो वह राज्य की सुरक्षा और कार्यप्रणाली के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न करता है। इसीलिए मन्त्र की रक्षा का दायित्व अत्यंत गंभीर होता है।

गुप्तता में चूक और शासन की कमजोरी

गुप्तता टूटने पर राजनैतिक और प्रशासनिक निर्णयों की विश्वसनीयता घटती है। यह स्थिति शासन के पतन का कारण बन सकती है। अतः मन्त्र को कूर्म के खोल की भाँति सुरक्षित रखना अनिवार्य है।

मन्त्र के आधारभूत तत्व और प्रभावशीलता के कारण

पंचाङ्गीय मन्त्र की अवधारणा

कार्य की सिद्धि के लिए मन्त्र पंचाङ्गीय होना चाहिए, जिसमें पुरुष, द्रव्य, सम्पदा, देश, काल और विनिपात (विपरीत परिस्थितियों का निराकरण) सम्मिलित हों। ये तत्व मिलकर मन्त्र को समग्र और प्रभावशाली बनाते हैं।

सभी अंगों की समान जांच और विवेचना

इन पांच अंगों के प्रत्येक पहलू को गहराई से समझना और उनका सम्यक् मूल्यांकन करना आवश्यक है। प्रत्येक अंग पर सही निर्णय से मन्त्र की सुदृढ़ता और कार्य की सफलता सुनिश्चित होती है।

मन्त्र की सिद्धि में बौद्धिक वृत्ति का योगदान

मन्त्र को समझने, लागू करने और संरक्षण में बुद्धि, विवेक तथा अनुभव की भूमिका प्रमुख होती है। केवल ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं, उसे सही दिशा में उपयोग करने की क्षमता भी अनिवार्य है।

समीक्षा और तार्किक प्रवृत्ति

विवेकशील विचार विमर्श, आलोचनात्मक दृष्टिकोण और तार्किक समीक्षा से मन्त्र की गुणवत्ता बढ़ती है। यह प्रक्रिया कार्य के प्रति उचित निर्णय लेने में सहायता करती है।

मन्त्र के माध्यम से राजकाज की सूक्ष्मता

कार्यक्रम की पूर्व-योजना और अनुष्ठान

राजकार्य में मन्त्र के साथ कार्यक्रमों का पूर्व नियोजन आवश्यक है। जिसमें आरम्भ, अनुष्ठान, कर्मों का नियोजन और संसाधनों का संयोजन शामिल है। इन सबके बिना कार्य सफल नहीं हो सकता।

संसाधनों और परिस्थिति का सम्यक् आकलन

कार्य की तैयारी में संसाधनों, पुरुषों, वस्तुओं, समय और स्थान का सम्यक् आकलन आवश्यक है। इससे कार्य के सफल अनुष्ठान और परिणामी सिद्धि सुनिश्चित होती है।

राज्य के संकट में मन्त्र का निर्णायक योगदान

आपातकालीन स्थितियों में मन्त्र की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। ऐसी स्थिति में मन्त्र द्वारा निर्णय लेने वाली परिषद् का संगठन, विचार-विमर्श और क्रियान्वयन त्वरित और प्रभावशाली होना चाहिए।

आपातकालीन परिस्थिति में मन्त्र की गोपनीयता

आपातकालीन स्थिति में मन्त्र का गुप्त रहना और परिषद् के द्वारा सावधानीपूर्वक निर्णय लेना अनिवार्य होता है, क्योंकि इस स्थिति में एक भी त्रुटि राज्य के लिए विनाशकारी सिद्ध हो सकती है।

निषेध और सतर्कता के नियम

मन्त्र का प्रकटीकरण और संभावित दुष्परिणाम

मन्त्र का अनावश्यक प्रकटीकरण अत्यंत हानिकारक होता है। यदि मंत्र का रहस्य सार्वजनिक हो जाए, तो विरोधी इसका लाभ उठाकर राज्य को नुकसान पहुँचा सकते हैं। इसलिए मन्त्र का प्रकटीकरण सख्त वर्जित है।

श्रोता और ज्ञान का परिमाण

मन्त्र केवल उन्हीं को सुनाना चाहिए जो योग्य और विवेकी हों। अनुचित श्रोता न केवल मन्त्र को गलत समझ सकते हैं, बल्कि उसे विकृत रूप में प्रसारित भी कर सकते हैं। इसीलिए ज्ञान का सीमित प्रसारण आवश्यक है।

अनुभवहीनता और असावधानी की क्षति

अनुभवहीन या असावधान व्यक्ति मन्त्र का अनुचित उपयोग कर सकते हैं, जिससे प्रशासनिक अस्थिरता पैदा होती है। इस कारण मन्त्र का प्रशिक्षण और मार्गदर्शन जरूरी है।

मन्त्र का अनुशासन और प्रशिक्षण

मन्त्रिणों का प्रशिक्षण, अनुशासन और परस्पर संवाद से मन्त्र की गुणवत्ता में वृद्धि होती है। यही प्रक्रिया मन्त्र को गूढ़ और प्रभावशाली बनाती है, तथा राज्य को स्थायित्व प्रदान करती है।