श्लोक ०१-१४

Kautilya Arthashastra by Acharya Chankya
कृत्याकृत्यपक्ष उपग्रहः स्वविषये व्याख्यातः, परविषये वाच्यः
संश्रुत्यार्थान् विप्रलब्धः, तुल्यकारिणोः शिल्पे वा उपकारे वा विमानितः, वल्लभावरुद्धः,
समाहूय पराजितः, प्रवास उपतप्तः, कृत्वा व्ययं अलब्धकार्यः, स्वधर्माद् दायाद्याद् वा उपरुद्धः,
मानाधिकाराभ्यां भ्रष्टः, कुल्यैरन्तर्हितः, प्रसभाभिमृष्टस्त्रीकः, काराभिन्यस्तः,
पर उक्तदण्डितः, मिथ्याऽऽचारवारितः, सर्वस्वं आहारितः, बन्धनपरिक्लिष्टः, प्रवासितबन्धुः
इति क्रुद्धवर्गः
स्वयं उपहतः, विप्रकृतः, पापकर्माभिख्यातः, तुल्यदोषदण्डेन उद्विग्नः, पर्यात्तभूमिः, दण्डेन उपनतः, सर्वाधिकरणस्थः, सहसा उपचितार्थः, तत्कुलीन उपाशंसुः, प्रद्विष्टो राज्ञा, राजद्वेषी च - इति भीतवर्गः
परिक्षीणः, अन्यात्तस्वः, कदर्यः, व्यसनी, अत्याहितव्यवहारश्च - इति लुब्धवर्गः
आत्मसम्भावितः, मानकामः, शत्रुपूजाऽमर्षितः, नीचैरुपहितः, तीक्ष्णः, साहसिकः, भोगेनासन्तुष्टः - इति मानिवर्गः
तेषां मुण्डजटिलव्यञ्जनैर्यो यद्भक्तिः कृत्यपक्षीयः तं तेन उपजापयेत्
यथा मदान्धो हस्ती मत्तेनाधिष्ठितो यद् यद् आसादयति तत् सर्वं प्रमृद्नाति, एवं अयं अशास्त्रचक्षुरन्धो राजा पौरजानपदवधायाभ्युत्थितः, शक्यं अस्य प्रतिहस्तिप्रोत्साहनेनापकर्तुं, अमर्षः क्रियताम् इति क्रुद्धवर्गं उपजापयेत्
यथा लीनः सर्पो यस्माद् भयं पश्यति तत्र विषं उत्सृजति, एवं अयं राजा जातदोषाशङ्कः त्वयि पुरा क्रोधविषं उत्सृजति, अन्यत्र गम्यताम् इति भीतवर्गं। उपजापयेत्
यथा श्वगणिनां धेनुः श्वभ्यो दुह्यते न ब्राह्मणेभ्यः, एवं अयं राजा सत्त्वप्रज्ञावाक्यशक्तिहीनेभ्यो दुह्यते नात्मगुणसम्पन्नेभ्यः, असौ राजा पुरुषविशेषज्ञः, तत्र गम्यताम् इति लुब्धवर्गं। उपजापयेत्
यथा चण्डाल उदपानश्चण्डालानां एव उपभोग्यो नान्येषां, एवं अयं राजा नीचो नीचानां एव उपभोग्यो न त्वद्विधानां आर्याणां, असौ राजा पुरुषविशेषज्ञः, तत्र गम्यताम् इति मानिवर्गं उपजापयेत्
तथा इति प्रतिपन्नांः तान् संहितान् पणकर्मणा ।
योजयेत यथाशक्ति स-अपसर्पान् स्वकर्मसु
लभेत सामदानाभ्यां कृत्यांश्च परभूमिषु ।
अकृत्यान् भेददण्डाभ्यां परदोषांश्च दर्शयन् ॥१४॥
जो कार्य करने योग्य हैं और जो नहीं, ऐसे पक्ष के अनुसार सहयोगी को अपने क्षेत्र में स्पष्ट किया गया है, पर-क्षेत्र में बताना चाहिए। जो वचनबद्ध होने के बाद भी धोखा खाए, समान कार्य करने वालों से कला या सहायता में अपमानित हो, प्रियजनों से वंचित हो, बुलाए जाने पर पराजित हो, प्रवास में पीड़ा पाए, व्यय करके भी फल न पाए, अपने धर्म या उत्तराधिकार से रोका गया हो, मान या अधिकार से गिराया गया हो, संबंधियों द्वारा तिरस्कृत हो, बलपूर्वक स्त्री से अपमानित हो, कारागार में डाला गया हो, अन्य के अपराध के लिए दंडित हो, झूठे आचरण से रोका गया हो, सम्पत्ति छीन ली गई हो, बंधन से क्लेशित हो, या प्रवासित संबंधी हो — ये 'क्रुद्धवर्ग' हैं।
जो स्वयं पीड़ित हो, अपमानित हो, पापकर्म के लिए कुख्यात हो, समान दोष के दंड से भयभीत हो, भूमि छिनी गई हो, दंडित हो, सभी न्यायालयों में उलझा हो, अचानक धनसंपन्न हो, कुल के समान जनों द्वारा आलोचना का पात्र हो, राजा द्वारा नापसंद हो, या राजा से द्वेष रखता हो — ये 'भीतवर्ग' हैं।
जो निर्धन हो गया हो, पराया धन खा चुका हो, कंजूस हो, व्यसनी हो, अत्यधिक गलत व्यवहार करता हो — ये 'लुब्धवर्ग' हैं।
जो आत्ममुग्ध हो, मान की इच्छा रखता हो, शत्रु की पूजा देखकर ईर्ष्यालु हो, नीचों द्वारा अपमानित हो, तीव्र स्वभाव का हो, साहसी हो, भोग से असंतुष्ट हो — ये 'मानीवर्ग' हैं।
इनमें जो जिस प्रकार के व्रत या चिह्न से दिखे, उसे उसी के अनुरूप कार्य पक्ष में उकसाना चाहिए।
जैसे पागल हाथी दूसरे पागल हाथी द्वारा प्रेरित होकर जो भी पाता है उसे रौंद देता है, वैसे ही यह शास्त्रहीन अंधा राजा नगर और जनपद के विनाश के लिए उठ खड़ा हुआ है — उसे उत्तेजित हाथी के समान विरोध देकर हटाया जा सकता है, इसलिए 'क्रुद्धवर्ग' को उत्तेजित करो।
जैसे छिपा साँप जहाँ से डरता है वहीं विष छोड़ता है, वैसे ही यह दोषशंका से ग्रस्त राजा भविष्य में तुम पर क्रोध-विष उगल सकता है — कहीं और चले जाओ, यह 'भीतवर्ग' को बताओ।
जैसे कुत्तों के झुंड की गाय केवल कुत्तों को दूध देती है, ब्राह्मणों को नहीं — वैसे ही यह राजा गुणहीनों से ही लाभ देता है, गुणवानों से नहीं, इसलिए 'लुब्धवर्ग' को बताओ कि यह राजा केवल अयोग्यों का पालक है।
जैसे चांडाल का कुआँ केवल चांडालों के उपयोग का होता है — वैसे ही यह राजा केवल नीचों के लिए उपयोगी है, तुम जैसे आर्यों के लिए नहीं — यह 'मानीवर्ग' को बताओ।
इस प्रकार तैयार किए गए लोगों को गुप्त रूप से कार्य में लगाओ। उन्हें उनके अनुसार उनके कार्यों में लगाकर, अपनी भूमि में साम और दान से योग्य कार्य कराओ। जो कार्य न करने योग्य हैं उन्हें भेद और दंड से दबाओ, और पराए दोषों को उजागर करो।

वर्गीकरण और सामाजिक संरचना का दर्शन

सामाजिक व्यवस्था में विभिन्न व्यक्तियों का वर्गीकरण उनके कर्म, चरित्र, और स्थिति के आधार पर किया जाता है। इस वर्गीकरण में कई प्रकार के व्यक्ति सम्मिलित होते हैं जिनके स्वभाव, आचरण और सामाजिक प्रभाव के अनुसार उन्हें विशेष नामों से संबोधित किया जाता है। प्रत्येक वर्ग का अस्तित्व समाज के समुचित संचालन के लिए आवश्यक होता है, परंतु उनकी भूमिकाएँ, अधिकार-हक़ और दायित्व भिन्न-भिन्न होते हैं।

कृत्य और अकृत्य पक्ष के व्यक्ति

कृत्यपक्षीय व्यक्ति वे हैं जो अपने कर्तव्य और कृत्यों का पालन करते हैं, पर अकृत्यपक्षीय वे जो कर्तव्यविमुख होते हैं। अकृत्य पक्ष के लोग अपने स्वार्थ के लिए कर्तव्यों का उल्लंघन करते हैं या समाज के नियमों का उल्लंघन कर उत्पात मचाते हैं। ये दोनों ही पक्ष समाज के संतुलन में भूमिका रखते हैं, परन्तु अकृत्यपक्ष के लोग व्यवधान उत्पन्न करते हैं।

स्वविषय और परविषय की भिन्नता

स्वविषय से आशय है अपनी व्यक्तिगत या पारिवारिक सीमाओं तक सीमित हितों का पालन, जबकि परविषय का तात्पर्य है व्यापक, सामाजिक या सामूहिक हितों की दृष्टि। स्वविषय में व्यक्ति स्वयं के हित में कार्य करता है, पर परविषय में उसका कर्म समाज या राज्य के हित में होता है। जो व्यक्ति स्वविषय में ही लिप्त रहते हैं और परविषय की अवहेलना करते हैं, वे सामाजिक सद्भाव के लिए हानिकारक माने जाते हैं।

उपग्रह और व्याख्या

उपग्रह का अर्थ होता है किसी मुख्य विषय के सहायक या अतिरिक्त पक्ष। कृत्य और अकृत्य दोनों ही उपग्रह स्वरूप हैं, जो समाज की विविधता दर्शाते हैं। व्याख्यातः का आशय है कि स्वयं के विषय में स्पष्ट हैं, परन्तु परविषय (सामाजिक हित) में वाच्य अर्थात् वाचनीय, समझने योग्य नहीं होते। यह भाव दर्शाता है कि स्वार्थी व्यक्ति सामाजिक हितों को समझने में असमर्थ होते हैं और वे उनके प्रति उपेक्षित रहते हैं।

विभिन्न वर्गों का विस्तार और उनका मनोविज्ञान

क्रुद्धवर्ग: क्रोध में उद्विग्न व्यक्ति

क्रुद्धवर्ग वे व्यक्ति होते हैं जो स्वार्थी और अहंकारी होते हैं, जिनका व्यवहार प्रायः हिंसक, आवेगपूर्ण और विरोधी होता है। ये वर्ग स्वयं को चोट पहुँचाने वाले सामाजिक तत्वों के प्रति आक्रामक होते हैं, वे अपने अधिष्ठानों की रक्षा के लिए कठोर कदम उठाते हैं। पराक्रम, साहस और प्रचंड क्रोध उनके स्वभाव के मूल तत्व होते हैं।

  • स्वयं उपहतः – स्वयं को हानि पहुँचाने की प्रवृत्ति।
  • विप्रकृतः – भ्रामक या विकृत व्यवहार।
  • पापकर्माभिख्यातः – दोषपूर्ण कृत्यों में विख्यात।
  • तुल्यदोषदण्डेन उद्विग्नः – समान दोष के लिए दंड से भयभीत।
  • सर्वाधिकरणस्थः – विधि-व्यवस्था के मध्यस्थ, फिर भी क्रोध में।

क्रोध ही इस वर्ग का संचालक होता है, जो अकस्मात उत्पन्न होता है और समाज में अस्थिरता एवं अव्यवस्था लाता है। इसे नियंत्रण में रखना राज्य का आवश्यक दायित्व होता है, क्योंकि यह वर्ग अस्थिरता के स्रोत हैं।

भीतवर्ग: भयभीत और संशयग्रस्त व्यक्ति

भीतवर्ग के लोग भय से ग्रस्त होते हैं, जो सामाजिक या व्यक्तिगत कारणों से डरे हुए, संकोचशील और कमजोर होते हैं। ये वर्ग भय के कारण निर्णय लेने में असमर्थ, सतर्क और कभी-कभी आक्रामक भी हो सकते हैं। उनके मन में डर की भावना इतनी गहरी होती है कि वे अक्सर सामाजिक समरसता के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं।

  • परयुक्त दण्ड से उपनतः – दंड से घबराए हुए।
  • सहसा उपचितार्थः – आकस्मिक घटनाओं से भयभीत।
  • राजद्वेषी – शासक से द्वेष रखते हैं।

भीतवर्ग की मनःस्थिति राज्य के प्रति निष्ठा की कमी दिखाती है, और इनके भय से उत्पन्न असंतोष शासकीय व्यवस्था के लिए चुनौती हो सकता है। इन्हें समझदारी और संवेदनशीलता से नियंत्रित करना आवश्यक है।

लुब्धवर्ग: लालची और आसक्त व्यक्ति

लुब्धवर्ग के लोग अत्यधिक लालची, मोहग्रस्त और आसक्त होते हैं। ये व्यक्ति स्वार्थी होते हैं, जो केवल भौतिक लाभ की ओर आकृष्ट होते हैं और नैतिकता, धर्म या सामाजिक नियमों को नजरअंदाज कर देते हैं। इनका व्यवहार अनैतिक और अस्वच्छ होता है।

  • आत्मसम्भावितः – स्वार्थी और स्वकेंद्रित।
  • व्यसनी – नशे या अन्य बुरी आदतों के आदी।
  • अत्याहितव्यवहारश्च – अनावश्यक और बुरा आचरण।

लुब्धवर्ग के स्वभाव में स्वधर्म की अवहेलना और सामाजिक नियमों का उल्लंघन निहित होता है। उनकी लालसा अनियंत्रित रहती है जो सामाजिक शांति और आर्थिक स्थिरता के लिए हानिकारक होती है।

मानिवर्ग: अभिमानी और अहंकारी व्यक्ति

मानिवर्ग वे होते हैं जो आत्ममुग्ध, अहंकारी, और सामाजिक नीचता से ग्रसित होते हैं। ये वर्ग अपनी श्रेष्ठता का अहंकार रखते हैं, दूसरों के प्रति कटु और कभी-कभी हिंसक रवैया अपनाते हैं। उनका व्यवहार असभ्य और असहिष्णु होता है।

  • मानकामः – अपनी प्रतिष्ठा के प्रति अत्यधिक आसक्त।
  • शत्रुपूजाऽमर्षितः – शत्रुओं के प्रति अत्यधिक क्रोध।
  • नीचैरुपहितः – नीच वर्ग के प्रति दुर्व्यवहार।

मानिवर्ग का अस्तित्व सामाजिक विभाजन को गहरा करता है, जिससे सामाजिक तनाव बढ़ता है। उनका अहंकार सामूहिक हित के विपरीत होता है। ऐसे व्यक्तियों को संयमित करने के लिए कठोर नीतियां अपनानी पड़ती हैं।

राजा और उसकी दृष्टि: विभिन्ने प्रकार के臣ाः (प्रजा) के प्रति

अशास्त्रचक्षुरन्धो राजा: क्रोधित और अज्ञानतापूर्ण शासक

अशास्त्रचक्षुरन्धो अर्थात् जो शासक धर्म, नीति और न्याय के विषय में अनभिज्ञ और अंधे हैं। ऐसे राजा समाज के दोषों को नहीं पहचान पाते, अतः वे अनुचित निर्णय लेते हैं और सामूहिक हानि का कारण बनते हैं। उनका क्रोध अंधा होता है, जो सम्यक दंड या न्याय की अपेक्षा व्यक्तिगत भावना से प्रेरित होता है।

ऐसे शासक का नेतृत्व अस्थिरता और अशांति का कारण बनता है। उनके क्रोध का परिणाम होता है दंड का अत्यधिक और अनुचित वितरण, जो जनता के बीच असंतोष और विद्रोह की स्थिति उत्पन्न करता है। उनके प्रति क्रुद्धवर्ग उपजता है, जो उनके आक्रामक और क्रूर रवैये का प्रतिबिंब होता है।

भीतवर्ग और राजा का भय

भीतवर्ग के भयभीत और संकोचशील लोगों के कारण राजा भी भयग्रस्त हो जाता है। इसका परिणाम होता है कि राजा न्याय करने में असमर्थ हो जाता है, और अपने निर्णयों में झिझकता है। इससे शासन प्रणाली में कमजोरी आती है, और विरोधी तत्वों को बल मिलता है।

भीतवर्ग की स्थिति राजा के प्रति अविश्वास और डर की द्योतक है, जो शासन में पारदर्शिता और स्थिरता के लिए हानिकारक है। इस वर्ग की भयभीत स्थिति शासन व्यवस्था के कमजोर पड़ने का संकेत देती है।

लुब्धवर्ग और राज्य की आर्थिक व्यवस्था

लुब्धवर्ग की लालसा और स्वार्थ परक प्रवृत्ति राज्य की आर्थिक नीति के लिए चुनौती होती है। वे सत्ताधारियों का शोषण करते हैं और न्याय व्यवस्था को कमजोर करते हैं। इससे राजस्व संग्रह और आर्थिक संतुलन बिगड़ता है।

राजा के लिए यह आवश्यक है कि वह इस वर्ग को नियंत्रित करे, ताकि शासन व्यवस्था सुचारू रूप से चल सके। लुब्धवर्ग की लालसा और आसक्ति राज्य के हित में नहीं होती, अतः इनके नियंत्रण के लिए कठोर नियम आवश्यक हैं।

मानिवर्ग और सामाजिक न्याय

मानिवर्ग के अहंकार और सामाजिक विभाजन से राज्य की समरसता प्रभावित होती है। वे समाज में द्वेष और कटुता उत्पन्न करते हैं, जो सामाजिक न्याय और समता के लिए खतरनाक है।

राजा को चाहिए कि वह मानिवर्ग की प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखे, ताकि सामाजिक शांति और एकता बनी रहे। यह वर्ग सामाजिक और नैतिक दंड के अंतर्गत आता है, जिसके द्वारा उसकी प्रवृत्तियों को नियंत्रित किया जाना चाहिए।

राजनीतिक नीतियाँ और वर्गों के साथ व्यवहार

कृत्यांश और परदोष का भेद

राज्य और शासक के लिए आवश्यक है कि वे सामाजिक वर्गों के बीच कृत्य और अकृत्य, दोष और परदोष का भेद स्पष्ट रूप से करें। कृत्यांश वे कार्य हैं जो उचित और नियमों के अनुसार किए गए हैं, जबकि अकृत्य या परदोष वे हैं जो समाज या राज्य के हित में बाधक हैं।

राज्य का न्याय तभी सफल हो सकता है जब वह इन भेदों को समझ कर उचित दंड और पुरस्कार प्रदान करे। इससे समाज में अनुशासन और व्यवस्था बनी रहती है।

सामाजिक समरसता के लिए दंड व्यवस्था

दंड केवल दंड नहीं, बल्कि समाज में व्यवस्था बनाए रखने का एक उपकरण है। इसका उद्देश्य व्यक्तियों को सुधारना और सामाजिक नियमों का पालन करवाना होता है। उचित दंड व्यवस्था से ही विभिन्न वर्गों के बीच संतुलन बना रहता है।

दंड व्यवस्था में यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि न तो अत्यधिक कठोरता हो और न ही लापरवाही। इससे शासन का विश्वास बढ़ता है और समाज में स्थिरता आती है।

राज्य की सुरक्षा और प्रशासनिक रणनीति

राज्य की सुरक्षा तभी संभव है जब वह सामाजिक वर्गों की मनोस्थिति और व्यवहार को गहराई से समझे। प्रत्येक वर्ग की प्रवृत्तियों को जानकर ही उचित प्रशासनिक रणनीति बनाई जा सकती है।

राज्य को चाहिए कि वह विभिन्न वर्गों के अनुरूप नीति बनाकर उन्हें नियंत्रित करे और समाज में संतुलन बनाए रखे। इसके बिना शासन कमजोर और अस्थिर हो जाता है।

अन्तःप्रेरणा और व्यवहारिक उदाहरणों द्वारा समझ

मद और अज्ञानता के कारण उत्पन्न व्यवहार

अज्ञानता और मद से ग्रसित व्यक्ति अन्याय, क्रोध और हिंसा की ओर प्रवृत्त होता है। जैसे मदान्ध हाथी जो अपनी शक्ति और उत्तेजना में संतुलन खो देता है, वैसे ही ऐसे व्यक्ति समाज को विनाश के मार्ग पर ले जाते हैं।

राज्य के लिए आवश्यक है कि वह ऐसे मदान्ध व्यक्तियों के प्रति सावधान रहे और उन्हें सही मार्ग पर लाने के लिए नीति बनाये।

भय के कारण उत्पन्न नकारात्मक प्रवृत्तियाँ

जैसे विषैले सर्प अपने भय के कारण विष छोड़ते हैं, वैसे ही भयभीत व्यक्ति भी अपने संकोच और डर से समाज में विषाक्त वातावरण पैदा करते हैं।

इसलिए राज्य को चाहिए कि वह भयभीत व्यक्तियों को आश्वस्त करे और उन्हें सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा बनाए। इससे भय का वातावरण कम होगा और समरसता बढ़ेगी।

लालसा और स्वार्थ की सीमाएँ

धेनु जो अपने ही समूह के लिए दुहाई जाती है, वह समूह के बाहर के लोगों के लिए नहीं होती। इसी प्रकार, लालची व्यक्ति भी केवल अपने स्वार्थी वर्ग के लिए काम करता है, अन्य समाज के लिए नहीं।

राज्य को लालसा की इन सीमाओं को समझना चाहिए और उसे नियंत्रित करने के लिए नियम बनाना चाहिए, ताकि समाज का व्यापक हित संरक्षित रहे।

नीचता और सामाजिक उपयोगिता

नीच वर्ग के लोग केवल अपने ही समान वर्ग के लिए उपयोगी होते हैं, और उनके उपयोग से समाज के उच्च वर्ग प्रभावित होते हैं। इस असंतुलन को समझना और उसे संतुलित करना शासन की महत्वपूर्ण भूमिका है।

समाज में वर्गभेद को समझकर ही राज्य समरसता, न्याय और स्थिरता प्राप्त कर सकता है।


इस प्रकार, समाज के विभिन्न वर्गों की मनोवृत्ति, व्यवहार और सामाजिक स्थिति की गहन समझ के बिना न्याय, प्रशासन और शासन की कल्पना करना संभव नहीं है। प्रत्येक वर्ग की प्रवृत्तियों और दोषों को समझकर उनका नियमन और सुधार करना राज्य की प्राथमिक जिम्मेदारी है। सामाजिक समरसता, न्याय और स्थिरता इसी से सुनिश्चित होती है।