ये जनपदे शूराः त्यक्तात्मानो हस्तिनं व्यालं वा द्रव्यहेतोः प्रतियोधयेयुः ते तीक्ष्णाः
ये बन्धुषु निह्स्नेहाः क्रूरा अलसाश्च ते रसदाः
परिव्राजिका वृत्तिकामा दरिद्रा विधवा प्रगल्भा ब्राह्मण्यन्तःपुरे कृतसत्कारा महामात्रकुलान्यभिगच्छेत्
एतया मुण्डा वृषल्यो व्याख्याताः इति सञ्चाराः ।
तान् राजा स्वविषये मन्त्रिपुरोहितसेनापतियुवराजदौवारिकान्तर्वंशिकप्रशास्तृ
समाहर्तृसम्निधातृप्रदेष्टृनायकपौरव्यावहारिककार्मान्तिकमन्त्रिपरिषद्ऽध्यक्षदण्ड
दुर्गान्तपालाटविकेषु श्रद्धेयदेशवेषशिल्पभाषाऽभिजनापदेशान् भक्तितः
सामर्थ्ययोगाच्चापसर्पयेत्
तेषां बाह्यं चारं छत्रभृङ्गारव्यजनपादुकासनयानवाहन उपग्राहिणः तीक्ष्णा विद्युः
तं सत्त्रिणः संस्थास्वर्पयेयुः
सूदारालिकस्नापकसंवाहकास्तरककल्पकप्रसाधक उदकपरिचारका रसदाः
कुब्जवामनकिरातमूकबधिरजडान्धच्छद्मानो नटनर्तकगायनवादकवाग्जीवनकुशीलवाः
स्त्रियश्चाभ्यन्तरं चारं विद्युः
तं भिक्ष्क्यः संस्थास्वप्रयेयुः
संस्थानां अन्तेवासिनः संज्ञालिपिभिश्चारसञ्चारं कुर्युः
न चान्योन्यं संस्थाः ते वा विद्युः
भिक्षुकीप्रतिषेधे द्वाह्स्थपरम्परा मातापितृव्यञ्जनाः शिल्पकारिकाः कुशीलवा दास्यो
वा गीतपाठ्यवाद्यभाण्डगूढलेख्यसंज्ञाभिर्वा चारं निर्हरेयुः
दीर्घरोग उन्मादाग्निरसविसर्गेण वा गूढनिर्गमनम्
त्रयाणां एकवाक्ये सम्प्रत्ययः
तेषां अभीक्ष्णविनिपाते तूष्णीन्दण्डः प्रतिषेधः
कण्टकशोधन उक्ताश्चापसर्पाः परेषु कृतवेतना वसेयुरसम्पातिनश्चारार्थम्
त उभयवेतनाः
गृहीतपुत्रदारांश्च कुर्याद् उभयवेतनान् ।
तांश्चारिप्रहितान् विद्यात् तेषां शौचं च तद्विधैः
एवं शत्रौ च मित्रे च मध्यमे चावपेच्चरान् ।
उदासीने च तेषां च तीर्थेष्वष्टादशस्वपि
अन्तर्गृहचराः तेषां कुब्जवामनपण्डकाः ।
शिल्पवत्यः स्त्रियो मूकाश्चित्राश्च म्लेच्छजातयः
दुर्गेषु वणिजः संस्था दुर्गान्ते सिद्धतापसाः ।
कर्षक उदास्थिता राष्ट्रे राष्ट्रान्ते व्रजवासिनः
वने वनचराः कार्याः श्रमणाटविकादयः ।
परप्रवृत्तिज्ञानार्थाः शीघ्राश्चारपरम्पराः
परस्य च एते बोद्धव्याः तादृशैरेव तादृशाः ।
चारसञ्चारिणः संस्था गूढाश्चागूढसंज्ञिताः
अकृत्यान् कृत्यपक्षीयैर्दर्शितान् कार्यहेतुभिः ।
परापसर्पज्ञानार्थं मुख्यान् अन्तेषु वासयेत्
व्यवस्थापकीय समाजविज्ञान: व्यक्तियों और संस्थाओं का वर्गीकरण
सामाजिक और राजनीतिक ढाँचे के वर्गीकरण
सामाजिक व्यवस्था का सशक्त और स्थिर संचालन तभी संभव होता है जब उसमें विभिन्न व्यक्तियों और समूहों के सामाजिक कर्तव्य, स्वभाव और व्यवहार का सूक्ष्म ज्ञान हो। यह ज्ञान राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवहार का मूलाधार है। व्यक्तियों एवं संस्थाओं के प्रकार को समझना न केवल शासन के लिए आवश्यक है, बल्कि यह सामाजिक अनुशासन और व्यवस्था बनाए रखने के लिए भी अनिवार्य है।
व्यक्तियों को विभिन्न श्रेणियों में विभाजित करना उनके गुण, व्यवहार और कर्तव्यों के अनुसार किया गया है। इस वर्गीकरण में शूरवीर, दंडाधिकारी, विद्वान, सामाजिक सेवक, आर्थिक रूप से दुर्बल, कला-कौशल से युक्त, भिक्षु एवं अन्य प्रकार सम्मिलित हैं। प्रत्येक वर्ग की विशेषताओं का विवेचन सामाजिक व्यवस्था के बहुआयामी पक्ष को उजागर करता है।
शूरवीर और उनकी भूमिका
शूरवीरों का वर्ग वे हैं जो अपने स्वभाव और कर्तव्य के अनुसार युद्ध, रक्षा और पराक्रम के क्षेत्र में सक्रिय रहते हैं। उनका त्याग और साहस प्रशासनिक तथा सैन्य सुरक्षा का आधार बनता है। ये न केवल बाहरी आक्रमणों से राष्ट्र की रक्षा करते हैं, बल्कि आंतरिक शत्रुओं और दुष्टों के विरुद्ध भी कड़ा संघर्ष करते हैं।
हस्तिन, व्याल जैसे शक्तिशाली और खतरनाक प्राणियों से मुकाबला करने में ये वीर तत्पर रहते हैं। इस प्रकार के योद्धा तीव्र बुद्धि, शारीरिक शक्ति और अनुशासन से युक्त होते हैं। उनकी भूमिका सिर्फ सैनिक नहीं बल्कि राष्ट्र की सुरक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों की होती है। यह सच्ची वीरता और त्याग की भावना का परिचायक है।
विद्वानों और शिक्षकों की श्रेणी
विद्वानों का वर्ग जो ज्ञान, विद्या, तकनीकी कौशल और धार्मिक कर्मकाण्ड में निपुण होते हैं, समाज की बौद्धिक और आध्यात्मिक धुरी होते हैं। इनकी विशेषता उनके ज्ञान की गहराई, धार्मिक अनुष्ठानों की समझ, तथा सामाजिक नियमों का ज्ञान होता है।
विद्वानों में ऐसी विद्या शामिल है जो सामाजिक, धार्मिक और प्रशासनिक विधाओं को समझने में सक्षम बनाती है। आचार्यों, मन्त्रिपुरोहितों और अन्य विद्वान इस वर्ग में आते हैं जो नीति, अर्थशास्त्र, न्याय, और धर्मशास्त्र में पारंगत होते हैं। उनका कार्य केवल शिक्षा देना ही नहीं, बल्कि शासन को उचित निर्णय लेने में मार्गदर्शन भी प्रदान करना होता है।
आर्थिक और सामाजिक रूप से दुर्बल वर्ग
दुर्बलता, चाहे वह आर्थिक हो या सामाजिक, किसी भी व्यवस्था के लिए चुनौती है। गरीबी, विधवत्व, अशक्तता जैसे लक्षण सामाजिक संगठन को प्रभावित करते हैं। ये वर्ग समाज के वे घटक हैं जिन्हें सहानुभूति, संरक्षण और उचित प्रबंधन की आवश्यकता होती है।
परिव्राजिका, विधवाएं, निर्धन व्यक्ति और वे जो आर्थिक तंगी में जीवनयापन करते हैं, ऐसे समूह होते हैं जिनके लिए विशेष प्रकार की सामाजिक सुरक्षा और आर्थिक सहायता अनिवार्य होती है। इनके बिना सामाजिक शांति और न्याय संभव नहीं होता।
कला और संगीत के क्षेत्र के कार्यकर्ता
संगीत, नृत्य, नाटक तथा कला के अन्य क्षेत्र समाज के सांस्कृतिक विकास का माध्यम होते हैं। नट-नर्तक, गायनकार, वादक, और अन्य कलाकार सामाजिक चेतना को जागृत करने के साथ-साथ मनोरंजन का भी कार्य करते हैं। ये वर्ग न केवल कला को जीवित रखता है, बल्कि समाज में सांस्कृतिक समरसता का संचार भी करता है।
उनका सामाजिक व्यवहार और जीवनशैली विशिष्ट होती है, और अक्सर इन्हें विशिष्ट संरक्षण और प्रोत्साहन की आवश्यकता होती है। इनकी कला समाज की ध्वनि और रंग होती है जो सामाजिक जीवन में विविधता और सौंदर्य लाती है।
भिक्षु एवं धार्मिक साधु
भिक्षु और साधु वर्ग सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र के महत्वपूर्ण अंग हैं। ये लोग समाज से कुछ दूरी बनाकर अपने आध्यात्मिक जीवन की ओर अग्रसर होते हैं, परन्तु इनके आचरण और उपस्थिति का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
धार्मिक निष्ठा, संयम और तपस्या इनके जीवन का मूल मंत्र है। इनके प्रति समाज में श्रद्धा होती है और ये सामाजिक मान्यताओं एवं संस्कारों के संरक्षण में भूमिका निभाते हैं। इनकी गतिविधियों को उचित संरक्षण और सम्मान की आवश्यकता होती है ताकि धार्मिक अनुशासन और समाज की नैतिकता बनी रहे।
संस्थाएं और उनके नियम
संस्थाओं का वर्गीकरण तथा उनके आंतरिक नियम-व्यवस्था को समझना सामाजिक शासन के लिए आवश्यक है। हर संस्था अपने उद्देश्यों, नियमों और सामाजिक अनुशासन के अनुसार संचालित होती है। संस्थान और उनके सदस्यों के बीच संबंधों की स्पष्टता शासन को सशक्त बनाती है।
संस्थाओं के अंतर्वासियों की गतिविधि, उनका सामाजिक व्यवहार, तथा उनका शासन और नियमन के प्रति उत्तरदायित्व सामाजिक स्थिरता के लिए आवश्यक है। इनके बीच न केवल पारस्परिक सहयोग बल्कि स्पष्ट कार्य विभाजन भी होना चाहिए।
शासन-प्रशासन में विविध व्यक्तित्व और उनके सामाजिक कर्तव्य
कर्तव्यपरायण और क्रूर व्यक्तियों का वर्गीकरण
सामाजिक जीवन में विभिन्न व्यक्तित्व पाए जाते हैं, जिनके व्यवहार और स्वभाव के आधार पर उनके सामाजिक कर्तव्य अलग-अलग होते हैं। कुछ लोग अपने रिश्तों में कठोर और निर्दयी होते हैं, तो कुछ उदासीन और अलसी। इन व्यक्तियों को पहचान कर उनके अनुसार नियमन करना शासन की प्राथमिकता होती है।
क्रूरता और उदासीनता जैसे स्वभाव सामाजिक सामंजस्य को बाधित कर सकते हैं। अतः इनके लिए कठोर नियम और नियंत्रण व्यवस्था आवश्यक है ताकि समाज के अन्य सदस्यों को उनसे हानि न हो।
विद्या का व्यवहारिक उपयोग और सामाजिक नियंत्रण
विद्या और ज्ञान केवल संग्रहित सूचनाएं नहीं होते, बल्कि उनका व्यवहारिक उपयोग समाज के समग्र विकास के लिए आवश्यक है। ज्ञान का सही उपयोग सामाजिक नियमन, न्याय और नीति निर्माण में किया जाता है।
शिक्षित वर्ग, जो आचार्य, मन्त्रिपुरोहित, सेनापति, युवराज आदि होते हैं, वे नीति निर्धारण, प्रशासनिक क्रियान्वयन और सामाजिक अनुशासन के लिए जिम्मेदार होते हैं। इनका कार्य शासन के सर्वोच्च हितों की रक्षा करना है।
विद्या और कला के साथ सामाजिक जिम्मेदारी
विद्या एवं कला के लोग सामाजिक व्यवहार और नैतिकता के संवाहक भी होते हैं। उनके कर्तव्य केवल अपनी कला में निपुणता नहीं बल्कि समाज के हित में उनका सही मार्गदर्शन भी शामिल होता है। इनकी गतिविधियां सामाजिक शांति और सौहार्द को बढ़ावा देती हैं।
इसलिए शासन को इन वर्गों को उचित सम्मान, संरक्षण और आवश्यक संसाधन प्रदान करने चाहिए, ताकि वे समाज के नैतिक और सांस्कृतिक आधार को मजबूत कर सकें।
आध्यात्मिक जीवन और सामाजिक संतुलन
धार्मिक साधु, भिक्षु, और तपस्वी समाज के आध्यात्मिक संतुलन के निर्माता होते हैं। इनके उपवास, तप, और ध्यान की प्रवृत्ति समाज के नैतिक और धार्मिक जीवन को सुदृढ़ बनाती है। इनके आचरण से समाज में अनुशासन और नैतिकता की भावना उत्पन्न होती है।
उनके लिए सामाजिक समर्थन और संरक्षण आवश्यक होता है ताकि वे अपना ध्यान और साधना निर्बाध रूप से जारी रख सकें, जिससे समग्र समाज को लाभ पहुंचता है।
सामाजिक दंड और अनुशासन की व्यवस्था
दण्ड और दंडाधिकारी व्यक्तियों की भूमिका
सामाजिक अनुशासन स्थापित करने के लिए दंड व्यवस्था का होना अनिवार्य है। दंडाधिकारी वे व्यक्ति होते हैं जिनके पास अनुशासन बनाए रखने और सामाजिक नियमों के उल्लंघन पर कड़ी कार्रवाई करने का अधिकार होता है। ये तीव्र बुद्धि और कठोरता से लैस होते हैं ताकि दुष्टों को शीघ्र दंडित किया जा सके।
इनका कार्य केवल दंड देना ही नहीं, बल्कि समाज में भय का निर्माण कर शांति और सुरक्षा को सुनिश्चित करना भी होता है। यह सुनिश्चित करता है कि समाज के हर सदस्य अपने कर्तव्यों का पालन करें और अन्याय न हो।
सामाजिक दंड के प्रकार और प्रभाव
दंड केवल शारीरिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और मानसिक भी हो सकता है। शिल्पकार, दास, और अन्य वर्गों पर उपयुक्त दंडात्मक प्रतिबंध लगाकर समाज में व्याप्त अनियमितताओं को नियंत्रित किया जाता है। दंड का उद्देश्य सुधार और पुनर्वास होना चाहिए न कि केवल दंडात्मक प्रतिशोध।
समाज में उचित दंड व्यवस्था होने से अपराध की संख्या कम होती है और व्यक्तियों में सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना जागृत होती है। इससे सामाजिक स्थिरता और सद्भाव बढ़ता है।
मध्यम मार्ग और सामाजिक सहिष्णुता
सामाजिक दंड और नियंत्रण के बीच मध्यम मार्ग अपनाना आवश्यक है ताकि अनुशासन के साथ सहिष्णुता भी बनी रहे। उदासीन, मध्यम मार्ग अपनाने वाले और विनम्र व्यवहार करने वाले वर्गों का संरक्षण और प्रोत्साहन किया जाना चाहिए।
यह सामाजिक संतुलन बनाए रखने में सहायक होता है, जिससे न तो अत्यधिक कठोरता होती है और न ही अव्यवस्था। मध्यम मार्ग से समाज के सभी वर्गों के बीच सामंजस्य स्थापित रहता है।
सामाजिक नियंत्रण के उपादान: संस्थाएं, नियम और व्यवहार
संस्थाओं का वर्गीकरण और सामाजिक कार्य
संस्थाएं सामाजिक जीवन के नियामक के रूप में कार्य करती हैं। प्रत्येक संस्था की अपनी विशिष्ट भूमिका, नियम और सदस्य होते हैं। ये संस्थाएं सामाजिक कर्तव्यों के निर्वहन, धार्मिक अनुष्ठानों के संचालन, तथा सामाजिक विवादों के समाधान में सहायता प्रदान करती हैं।
संस्थाओं के अंतर्वासियों का पारस्परिक व्यवहार सामाजिक स्थिरता का आधार होता है। उनके बीच सामंजस्य, सहयोग, और पारदर्शिता संस्थागत स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं।
संस्थानिक नियम और उनके अनुपालन के महत्त्व
संस्थागत नियम सामाजिक अनुशासन को बनाए रखने का महत्वपूर्ण साधन हैं। नियमों का कठोर पालन होने पर सामाजिक और प्रशासनिक व्यवस्था सुदृढ़ होती है। ये नियम न केवल व्यवहार के नियम बताते हैं, बल्कि कार्य विभाजन, उत्तरदायित्व और दंड व्यवस्था भी सुनिश्चित करते हैं।
संस्थाएं बिना नियमों के कमजोर हो जाती हैं और उनका उद्देश्य अधूरा रह जाता है। इसलिए नियमों का सम्मान और पालन सामाजिक और प्रशासनिक व्यवस्था के लिए अनिवार्य है।
परस्पर सहयोग और सामाजिक समरसता
संस्थाओं और व्यक्तियों के बीच परस्पर सहयोग समाज के सुचारू संचालन के लिए आवश्यक है। सहयोग से सामाजिक विवादों का समाधान, प्रशासनिक क्रियान्वयन में सफलता, और आर्थिक विकास संभव होता है।
जब विभिन्न संस्थाएं और वर्ग एक-दूसरे के कार्यों का सम्मान करते हैं और मिलजुलकर कार्य करते हैं, तभी समाज का समग्र विकास होता है। परस्पर अविश्वास, टकराव या उपेक्षा से सामाजिक ताने-बाने में दरारें आती हैं जो सामाजिक विनाश का कारण बन सकती हैं।
अशक्त वर्गों की देखभाल और सामाजिक सुरक्षा
गरीब, विधवा और असमर्थों की सामाजिक स्थिति
समाज के कमजोर और दुर्बल वर्गों की देखभाल और संरक्षण सामाजिक न्याय के महत्वपूर्ण पक्ष हैं। गरीबी, विधवा स्थिति, वामनत्व, मूर्खता, और विकलांगता से ग्रसित व्यक्तियों को सामाजिक सुरक्षा के माध्यम से उचित संरक्षण देना आवश्यक होता है।
ये वर्ग स्वयं अपने अधिकारों की रक्षा करने में असमर्थ होते हैं, अतः उन्हें शासन और समाज की सहानुभूति तथा उचित सहायता मिलनी चाहिए। यह न केवल नैतिक आवश्यकता है, बल्कि सामाजिक स्थिरता के लिए भी अपरिहार्य है।
सहायता के साधन और प्रभाव
गरीबों, विधवाओं, और असमर्थों के लिए आर्थिक सहायता, आवास, भोजन और स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करना समाज की संवेदनशीलता दर्शाता है। इनके जीवन स्तर में सुधार सामाजिक समरसता को बढ़ावा देता है और अपराध तथा सामाजिक अशांति को कम करता है।
ऐसे वर्गों की उचित देखभाल से समाज में सहिष्णुता, करुणा और मानवता के मूल्य बनाए रखते हुए विकास की दिशा में कदम बढ़ाया जा सकता है।
नियंत्रण और संरक्षण के दायित्व
शासन का यह दायित्व होता है कि वह अशक्त वर्गों के हितों की रक्षा करे। इसके लिए नीतिगत रूप से योजनाएं बनाकर उनका क्रियान्वयन सुनिश्चित करना आवश्यक है। यह सामाजिक समरसता, न्याय और स्थायित्व के लिए आवश्यक है।
अशक्तों के लिए विशेष सामाजिक नियम, उनकी सुरक्षा के उपाय और सामाजिक पुनर्वास कार्यक्रम शासन की प्राथमिकता होनी चाहिए। यह समाज की समृद्धि और स्थिरता के लिए अनिवार्य है।
निष्कर्षात्मक विचार: सामाजिक व्यवहार के अंतर्निहित तत्त्व
समाज का समग्र ज्ञान और नीति निर्माण
सामाजिक व्यवहार के विविध पहलुओं का सूक्ष्म अध्ययन ही कुशल शासन की नींव रखता है। व्यक्तियों और संस्थाओं के गुण, स्वभाव, कर्तव्य, और व्यवहार का गहन विश्लेषण शासन को सक्षम बनाता है कि वह उचित नीति, दंड, संरक्षण और प्रोत्साहन के माध्यम से समाज को सुव्यवस्थित रख सके।
राजनीतिक और प्रशासनिक ज्ञान का यह समग्र रूप, जो समाज के हर वर्ग और संस्था की विशेषताओं को ध्यान में रखता है, सामाजिक शांति, न्याय और विकास के लिए अनिवार्य है।
सामाजिक विविधता में समरसता का महत्व
समाज विभिन्न व्यक्तित्वों, स्वभावों, और कर्तव्यों से बना है। इन विभिन्नताओं को समझना और स्वीकार करना सामाजिक समरसता के लिए जरूरी है। विविधता में एकता समाज की सबसे बड़ी शक्ति होती है।
सभी वर्गों के उचित संरक्षण, नियंत्रण और प्रोत्साहन से ही सामाजिक ताने-बाने को मजबूत किया जा सकता है। इससे सामाजिक विवादों और द्वेष की संभावना कम होती है तथा समाज में स्थिरता आती है।
सामाजिक नियंत्रण और मानवतावाद का समन्वय
सामाजिक अनुशासन और नियंत्रण के नियमों में मानवतावाद का समावेश आवश्यक है। कठोरता और दंड व्यवस्था के साथ सहानुभूति, करुणा और सहायता का भाव भी होना चाहिए।
यह संतुलन समाज को केवल नियंत्रित नहीं करता, बल्कि उसके सदस्यों को सशक्त, समर्थ और जागरूक भी बनाता है। इस समन्वय के बिना समाज में स्थायित्व और समृद्धि सम्भव नहीं होती।