श्लोक ०१-११

Kautilya Arthashastra by Acharya Chankya
उपधाभिः शुद्धामात्यवर्गो गूढपुरुषान् उत्पादयेत् कापटिक उदास्थितगृहपतिकवैदेहकतापसव्यञ्जनान् सत्त्रितीष्क्णरसदभिक्षुकीश्च
परमर्मज्ञः प्रगल्भश्छात्रः कापटिकः
तं अर्थमानाभ्यां प्रोत्साह्य मन्त्री ब्रूयात् - राजानं मां च प्रमाणं कृत्वा यस्य यद् अकुशलं पश्यसि तत् तदानीं एव प्रत्यादिश इति
प्रव्रज्या प्रत्यवसितः प्रज्ञाशौचयुक्त उदास्थितः
स वार्त्ताकर्मप्रदिष्टायां भूमौ प्रभूतहिरण्यान्तेवासी कर्म कारयेत्
कर्मफलाच्च सर्वप्रव्रजितानां ग्रासाच्छादनावसथान् प्रतिविदध्यात्
वृत्तिकामांश्च उपजपेत् - एतेन एव वेषेण राजार्थश्चरितव्यो भक्तवेतनकाले च उपस्थातव्यम् इति
सर्वप्रव्रजिताश्च स्वं स्वं वर्गं एवं उपजपेयुः
कर्षको वृत्तिक्षीणः प्रज्ञाशौचयुक्तो गृहपतिकव्यञ्जनः
स कृषिकर्मप्रदिष्टायां भूमौ - इति समानं पूर्वेण
वाणिजको वृत्तिक्षीणः प्रज्ञाशौचयुक्तो वैदेहकव्यञ्जनः
स वणिक्कर्मप्रदिष्टायां भूमौ - इति समानं पूर्वेण
मुण्डो जटिलो वा वृत्तिकामः तापसव्यञ्जनः
स नगराभ्याशे प्रभूतमुण्डजटिलान्तेवासी शाकं यवमुष्टिं वा मासद्विमासान्तरं प्रकाशं अश्नीयात्, गूढं इष्टं आहारम्
वैदेहकान्तेवासिनश्च एनं समिद्धयोगैरर्चयेयुः
शिष्याश्चास्यावेदयेयुः - असौ सिद्धः सामेधिकः इति
समेधाशास्तिभिश्चाभिगतानां अङ्गविद्यया शिष्यसंज्ञाभिश्च कर्माण्यभिजने अवसितान्यादिशेत् - अल्पलाभं अग्निदाहं चोरभयं दूष्यवधं तुष्टिदानं विदेशप्रवृत्तिज्ञानं, इदं अद्य श्वो वा भविष्यति, इदं वा राजा करिष्यति इति
तद् अस्य गूढाः सत्त्रिणश्च सम्पादयेयुः
सत्त्वप्रज्ञावाक्यशक्तिसम्पन्नानां राजभाग्यं अनुव्याहरेत्, मन्त्रिसम्योगं च ब्रूयात्
मन्त्री च एषां वृत्तिकर्मभ्यां वियतेत
ये च कारणाद् अभिक्रुद्धाः तान् अर्थमानाभ्यां शमयेत्, अकारणक्रुद्धांः तूष्णीं दण्डेन, राजद्विष्टकारिणश्च
पूजिताश्चार्थमानाभ्यां राज्ञा राज उपजीविनाम् ।
जानीयुः शौचं इत्येताः पञ्चसंस्थाः प्रकीर्तिताः
उपधाओं द्वारा शुद्ध मंत्रियों का समूह गुप्तचरों को नियुक्त करे, जैसे कपटी, उदासीन, गृहस्थ, व्यापारी और तपस्वी के वेश में, साथ ही सत्तरी, तीक्ष्ण, रसद और भिक्षुकी। कपटी छात्र गुप्त रहस्यों को जानने वाला और वाक्पटु होता है। मंत्री उसे धन और सम्मान से प्रेरित करके कहे, 'राजा और मुझे प्रमाण मानकर, जिसका जो अकुशल कार्य देखे, उसे तत्काल सूचित करे।' प्रव्रज्या में निपुण, बुद्धि और शुद्धता से युक्त उदासीन व्यक्ति, निर्धारित वार्त्ता कर्म की भूमि में बहुत धन वाले शिष्यों के साथ कार्य कराए। कार्य के फल से सभी प्रव्रजितों को भोजन, वस्त्र और आवास प्रदान करे। आजीविका चाहने वालों से कहे, 'इसी वेश में राजा के हित के लिए कार्य करना है और भोजन-वेतन के समय उपस्थित होना है।' सभी प्रव्रजित अपने-अपने समूह से इसी तरह बात करें। आजीविका से रहित, बुद्धि और शुद्धता से युक्त किसान, गृहस्थ के वेश में, निर्धारित कृषि कार्य की भूमि में कार्य करे। आजीविका से रहित, बुद्धि और शुद्धता से युक्त व्यापारी, वैदेहक के वेश में, निर्धारित व्यापार कार्य की भूमि में कार्य करे। मुंडित या जटिल, आजीविका चाहने वाला तपस्वी के वेश में, नगर के निकट बहुत मुंडित-जटिल शिष्यों के साथ, महीने-दो महीने के अंतराल पर शाक या जौ का मुट्ठीभर भोजन सार्वजनिक रूप से खाए, और गुप्त रूप से इच्छित भोजन ले। वैदेहक शिष्य उसे समृद्ध योगों से पूजें। शिष्य यह प्रचार करें कि वह सिद्ध और सामेधिक है। सामेधिक शास्तियों द्वारा आने वालों को अंगविद्या और शिष्य संज्ञा के साथ, समाप्त कार्यों का निर्देश दे—अल्प लाभ, अग्नि से जलना, चोरों का भय, दुष्ट का वध, संतुष्टि देना, विदेश की गतिविधियों का ज्ञान, यह आज या कल होगा, या राजा यह करेगा। उसके गुप्त सत्तरी इसे सिद्ध करें। सत्त्व, बुद्धि और वाक्शक्ति से युक्त लोगों को राजा का भाग्य बताए और मंत्रियों से संयोग की बात कहे। मंत्री इनके कार्य और आजीविका से अलग रहे। जो कारणवश क्रुद्ध हों, उन्हें धन और सम्मान से शांत करे, बिना कारण क्रुद्ध लोगों को चुपके से दंड दे, और राजद्रोहियों को भी। राजा द्वारा सम्मानित और धन-सम्मान से युक्त राज उपजीवियों की शुद्धता को जानें। ये पाँच संस्थाएँ बताई गई हैं।

सामाजिक वर्गीकरण और उसके गुणधर्म

उपधि और वर्गीकरण की आवश्यकता

समाज में विभिन्न व्यक्तियों को उनके कर्म, स्वभाव, योग्यता, और सामाजिक भूमिका के अनुसार वर्गीकृत करना आवश्यक होता है ताकि प्रशासन और शासन का कार्य सुव्यवस्थित रूप से संचालित हो सके। उपधि या उपनाम जैसे "कापटिक", "उदास्थित", "गृहपति", "वैदेहक", "तापस" आदि से व्यक्तियों के व्यक्तित्व, कार्यक्षमता और प्रवृत्तियों का अनुमान लगाया जाता है। इन वर्गों के आधार पर ही उन्हें विभिन्न सामाजिक और प्रशासनिक कार्यों के लिए नियुक्त किया जाता है।

गूढ़ पुरुषों की भूमिका

गूढ़ पुरुष वे होते हैं जिनमें अनुभव, बुद्धिमत्ता और सामाजिक स्थिति का समन्वय होता है। ये ऐसे व्यक्ति होते हैं जो शासन, न्याय, अर्थ और धर्म के गूढ़ रहस्यों को समझते हुए शासन व्यवस्था को सुदृढ़ करते हैं। इनका कार्य शासन के विभिन्न पहलुओं को समझकर उन्हें क्रियान्वित करना होता है। इनकी गुप्त और सूक्ष्म समझ से राज्य की नीतियां अधिक प्रभावशाली और सफल होती हैं।

प्रज्ञा, शुद्धता, और उदास्थितता का महत्व

प्रज्ञाशौचयुक्त व्यक्ति वे होते हैं जो न केवल ज्ञान और बुद्धि से संपन्न होते हैं, बल्कि उनका आचरण, सोच और कर्म भी शुद्ध और स्थिर रहता है। उदास्थितता से तात्पर्य है मानसिक स्थिरता और विचलित न होना। ऐसे गुणों से युक्त व्यक्ति प्रशासन, नीति निर्माण और कार्यान्वयन में सक्षम होते हैं। इनके बिना शासन का कार्य अव्यवस्थित और असफल हो सकता है।

राजनीतिक सलाह और निर्णय लेने की प्रक्रिया

मंत्री और अर्थमान के संवाद का महत्त्व

राज्य संचालन में मंत्री का कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। वह राजा को सूचित करता है कि किन कार्यों में अक्षमता या दिक्कत आ रही है और तत्काल सुधार हेतु क्या उपाय आवश्यक हैं। मंत्री को चाहिए कि वह अपनी गूढ़ बुद्धि से राजा को प्रोत्साहित करे और न केवल समस्या बताये, बल्कि उसका उचित समाधान भी प्रस्तुत करे। बिना सही सलाह और ज्ञान के राजा के निर्णय अधूरे और असफल हो सकते हैं।

प्रोत्साहन और प्रमाण का आधार

मंत्री का कार्य केवल आलोचना करना नहीं, बल्कि राजा को आवश्यक प्रमाण देकर उसके निर्णयों का समर्थन करना भी है। किसी कार्य में असफलता दिखने पर मंत्री को तत्काल उस असफलता का निवारण सुझाना चाहिए, जिससे शासन का तंत्र बाधित न हो। राजा और मंत्री के बीच विश्वास और स्पष्टता शासन की सफलता की कुंजी है।

अकुशलता की पहचान और सुधार

राजा के द्वारा अपने कार्यों में जो अकुशलताएं दिखती हैं, उन्हें मंत्री की सूझ-बूझ और प्रज्ञा से तुरंत पहचान कर ठीक करना आवश्यक होता है। इससे समय पर निवारण हो जाता है और शासन की कार्यक्षमता बढ़ती है। यह प्रक्रिया शासन को सुदृढ़ बनाती है और प्रशासनिक विफलताओं को कम करती है।

प्रव्रजित वर्ग की संरचना और कार्य

प्रव्रजितों का सामाजिक आर्थिक महत्व

प्रव्रजित वे व्यक्ति हैं जो गृहस्थ जीवन छोड़कर विभिन्न कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। ये अपनी प्रज्ञा, शौच और स्थिरता के आधार पर भूमि पर कृषि, वाणिज्य, तपस्या आदि कर्मों को संपादित करते हैं। उनका कार्य केवल उत्पादन करना नहीं बल्कि कर्मफल के संग्रह, संरक्षण और वितरण में भी योगदान देना होता है। ये राज्य के आर्थिक और सामाजिक विकास के स्तम्भ हैं।

कृषक प्रव्रजित

कृषक प्रव्रजित वे हैं जो प्रज्ञाशौचयुक्त गृहपति के समान होते हैं और कृषि कर्म में संलग्न रहते हैं। ये भूमि की उर्वरता बढ़ाते हुए कृषिकर्म के लिए आवश्यक कार्यों को संचालित करते हैं। इनकी मेहनत और कुशलता से ही राज्य की अन्न सुरक्षा सुनिश्चित होती है।

वाणिजक प्रव्रजित

वाणिजक प्रव्रजित वे होते हैं जो व्यापार और वाणिज्य में सक्रिय रहते हैं। वे वैदेहकव्यञ्जन से युक्त होते हुए आर्थिक लेन-देन, वस्तु विनिमय और व्यापारिक संबंधों को संचालित करते हैं। इनके प्रयासों से राज्य की आर्थिक समृद्धि और बाह्य संबंध मजबूत होते हैं।

तपस्वी प्रव्रजित

तपस्वी प्रव्रजित वे साधु या तपस्वी होते हैं जो नगरों में रहते हुए अपने आध्यात्मिक आचरण में लीन रहते हैं। जटिलो या मुण्डो रूप में रहने वाले ये लोग गूढ़ साधनाओं, धार्मिक अनुष्ठानों और तपों में व्यस्त रहते हैं। इनके आचार-व्यवहार से समाज में आध्यात्मिक शुद्धता और मानसिक स्थिरता आती है।

प्रव्रजितों की वेशभूषा और आचरण

प्रव्रजितों की वेशभूषा और आचरण उनके वर्ग और कार्य के अनुरूप होता है। कृषक सादे वस्त्रों और साधारण आचरण में रहते हैं, वाणिजक सज्जन वाणिज्य के लिए उपयुक्त वेश में होते हैं, और तपस्वी साधारण या विशेष वेशभूषा धारण करते हैं। इनके आचरण और व्यवहार से ही उनकी पहचान होती है।

शिष्य, शिक्षा और कर्मकुशलता

समेध और अंगविद्या का शिक्षण

शिष्य वे होते हैं जिन्हें समेध (ज्ञान) और अंगविद्या (विशेष कौशल) के माध्यम से कर्मों की गूढ़ विधियों की शिक्षा दी जाती है। वे अग्निदाह, चोरभय, दूष्यवध जैसे विशिष्ट और संवेदनशील कार्यों में पारंगत होते हैं। यह शिक्षा उन्हें सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक कार्यों में दक्ष बनाती है।

कर्म के विविध आयाम

कर्म केवल शारीरिक कार्य नहीं बल्कि उसमें भाव, नीति, समयबद्धता और परिणाम की समझ शामिल होती है। शिष्य इन सभी आयामों को समझकर ही समाज और राज्य के लिए योग्य कर्म करते हैं। उनकी शिक्षा में भविष्य की घटनाओं, वर्तमान परिस्थितियों और राजकीय योजनाओं का समावेश होता है।

राजनीतिक चालाकी और गूढ़ कर्म

शिष्य को राजनीति की जटिलताओं, गुप्त रहस्यों और गूढ़ कर्मकांडों का ज्ञान प्राप्त होता है। इसके माध्यम से वे राज्य की सुरक्षा, राज्य विरोधी तत्वों का दमन, और सामाजिक शांति बनाए रखने में योगदान देते हैं। यह ज्ञान शासन की गुप्त शाखा का भी अंग होता है।

सत्त्रिण और मंत्रियों का शासन में महत्व

सत्त्रिण की प्रज्ञा और वाक् शक्ति

सत्त्रिण वे बुद्धिमान और वाक्पटु व्यक्ति होते हैं जिनके पास शासन के गूढ़ और सूक्ष्म पक्षों का ज्ञान होता है। उनकी प्रज्ञा और वाक् कौशल से राज्य के कार्य प्रभावी और न्यायपूर्ण बनते हैं। वे नीति निर्धारण और क्रियान्वयन में मुख्य भूमिका निभाते हैं।

मंत्रियों का उचित संयोजन

मंत्री और सत्त्रिणों के मध्य स्पष्ट सीमाएं और कार्य विभाजन आवश्यक हैं। मंत्रियों को सत्त्रिणों के कर्मकांडों से स्वयं को अलग रखना चाहिए ताकि व्यक्तिगत हितों का प्रभाव शासन पर न पड़े। यह संतुलन शासन के दीर्घकालिक स्थायित्व के लिए आवश्यक है।

अनुशासन, क्रोध का नियंत्रण और न्यायिक व्यवस्था

क्रोध का उचित नियंत्रण

राज्य में अनुचित और अकारण क्रोध को दंड और मौन के माध्यम से नियंत्रित करना चाहिए। ऐसा न होने पर शासन व्यवस्था विकृत हो सकती है और अनुचित व्यवहार सामाजिक स्थिरता को नुकसान पहुंचा सकता है। अनुशासन बनाए रखने के लिए शांति और संयम आवश्यक हैं।

पूजा और सम्मान के माध्यम से सामाजिक संतुलन

राज्य के द्वारा सम्मानित व्यक्ति और संस्थाएं न केवल शासन के समर्थक होते हैं, बल्कि सामाजिक सद्भाव और संतुलन के संरक्षक भी। उनकी उपजीविका और सम्मान सुनिश्चित करने से शासन का सामाजिक आधार मजबूत होता है।

शौच और सामाजिक संस्थाएं

पाँच प्रमुख संस्थाओं की स्थापना

शौच केवल शारीरिक सफाई नहीं, बल्कि मानसिक, सामाजिक और नैतिक शुद्धता का प्रतीक है। पांच प्रमुख संस्थाएं सामाजिक व्यवस्था के मूल स्तंभ हैं जो प्रशासन, कर्म, शिक्षा, धार्मिकता और व्यवहार को नियंत्रित करती हैं। इन संस्थाओं के बिना समाज अराजकता की ओर बढ़ सकता है।

संस्थाओं का संगठनात्मक प्रभाव

सामाजिक संस्थाएं वर्गों के बीच संतुलन बनाए रखती हैं। ये समाज में अनुशासन, न्याय, और सहिष्णुता को बढ़ावा देती हैं। इनके द्वारा बनाए गए नियम और शुद्धता के सिद्धांतों का पालन सामाजिक समरसता और स्थिरता में सहायक होता है।

शौच के विभिन्न आयाम

  • व्यक्तिगत शौच: शारीरिक और मानसिक शुद्धता जो व्यक्ति के आचरण और सोच को शुद्ध बनाती है।
  • सामाजिक शौच: सामाजिक नियमों और व्यवहार का पालन जो समाज में सौहार्द्र बनाए रखता है।
  • धार्मिक शौच: अनुष्ठान और पूजा-पाठ में शुद्धता जो आध्यात्मिक उन्नति सुनिश्चित करती है।