चन्दनं दधि ताम्बूलं मर्दनं गुणवर्धनम् ॥ ॥९-१३॥
कुछ तत्व प्रकृति द्वारा ऐसे रचे गए हैं जो केवल अपने मूल स्वरूप में सीमित नहीं रहते, बल्कि स्पर्श, घर्षण या दबाव के द्वारा अपने श्रेष्ठतम गुणों को प्रकट करते हैं। जैसे ईख का डण्डा जब निचोड़ा जाता है, तभी उससे रस निकलता है। तिल जब पिसे जाते हैं, तभी उनका तेल बाहर आता है। दही जब मथते हैं, तभी मक्खन और छाछ प्राप्त होते हैं। पृथ्वी जब जोती जाती है, तभी उपज देती है। सोना जब तपता और पीटा जाता है, तभी निखरता है। चन्दन जब घिसा जाता है, तभी उसकी सुगंध प्रकट होती है। ताम्बूल (पान) जब चबाया जाता है, तभी उसका स्वाद अनुभव होता है।
इन सभी उदाहरणों का उद्देश्य यह इंगित करना है कि कुछ तत्वों का वास्तविक मूल्य तब ही प्रकट होता है जब वे किसी क्रिया, दबाव, मर्दन या श्रम से गुजरते हैं। यह नियम केवल भौतिक तत्वों तक सीमित नहीं है। यह मनुष्य के सामाजिक, मानसिक और नैतिक विकास पर भी लागू होता है।
जैसे शूद्र — जो वर्ण व्यवस्था में सेवा के दायित्व में आता है — वह भी श्रम और अभ्यास से असाधारण कुशलता और गुणों का विकास कर सकता है। वही तत्त्व जिसे समाज ने सीमित या गौण समझा, उचित पोषण, प्रयत्न और व्यवहार के माध्यम से उत्कृष्टता तक पहुँच सकता है।
प्रेयसी — प्रेम की भावनात्मक और शारीरिक सहभागिनी — जब सान्निध्य, संवाद और संयोग से जुड़ती है, तब वह केवल आकर्षण नहीं, बल्कि मानसिक संतुलन और समर्पण का स्रोत बनती है। सोना केवल धातु नहीं, वह तप और चोट से आभूषण बनता है।
मूल प्रश्न यह है कि क्या हम केवल बाह्य रूप से किसी के गुणों का आकलन कर सकते हैं, या उसके भीतर निहित संभावनाओं को जागृत करने के लिए श्रम, स्पर्श, अभ्यास और मर्दन की आवश्यकता है? क्या गुण जन्मजात होते हैं, या अभ्यास, अनुभव और श्रम से उन्हें विकसित किया जा सकता है?
यह सिद्धांत हमें बताता है कि गुण किसी व्यक्ति या वस्तु की स्थिर अवस्था नहीं, बल्कि उसके ऊपर की गई साधना, प्रयत्न और व्यवहार का प्रतिफल हैं। जितना अधिक हम उन्हें तराशते हैं, उतना अधिक वे चमकते हैं। अनमोलता जन्म से नहीं, मर्दन से आती है।