श्लोक ०९-१२

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
स्वहस्तग्रथिता माला स्वहस्तघृष्टचन्दनम् ।
स्वहस्तलिखितं स्तोत्रं शक्रस्यापि श्रियं हरेत् ॥ ॥९-१२॥
स्वयं के हाथ से पिरोई गई माला, स्वयं के हाथ से घिसा गया चंदन, और स्वयं के हाथ से लिखा गया स्तोत्र — ये इन्द्र की भी श्री को हर सकते हैं।

मानव प्रयास की शक्ति तब चरम पर पहुँचती है जब वह पूरी संलग्नता, समर्पण और आत्मनिर्भरता के साथ किया जाता है। जो कार्य अपने हाथों से, अपने पुरुषार्थ से किया गया हो — वह न केवल अधिक प्रभावशाली होता है, बल्कि उसमें सजीवता और आत्मा का स्पर्श होता है। माला यदि स्वयं पिरोई हो, चंदन यदि स्वयं घिसा गया हो, स्तोत्र यदि स्वयं लिखा गया हो — तो उसमें केवल क्रिया नहीं, बल्कि जीवंत ऊर्जा निहित होती है। यह ऊर्जा ही है जो इन्द्र जैसे ऐश्वर्यशाली देवताओं की भी श्री को चुनौती दे सकती है।

किसी भी क्रिया में जब व्यक्ति अपनी समस्त चेतना और कर्मबल लगाता है, तब वह क्रिया मात्र रचना नहीं रह जाती — वह एक जीवंत साधना बन जाती है। ऐसे कार्यों में केवल रूप नहीं, बल्कि भाव, संकल्प और शक्ति भी समाहित होती है। दूसरों द्वारा रचित सामग्री चाहे कितनी भी सुंदर क्यों न हो, उसमें वह आभा नहीं हो सकती जो अपने श्रम, आत्मबल और श्रद्धा से उत्पन्न होती है।

यहाँ मूल तात्पर्य यह है कि जब कार्य में आत्म-स्पर्श जुड़ता है, तब उसकी प्रभावशीलता exponentially बढ़ जाती है। यही कारण है कि एक आत्मनिर्भर कृति चाहे कितनी ही साधारण क्यों न हो, वह एक अमूर्त शक्ति की वाहक बन जाती है। स्तोत्र, जो परमात्मा की स्तुति है, जब स्वयं के हाथ से लिखा जाता है, तब वह केवल भाषा नहीं रह जाता — वह साधक के अंतःकरण की पुकार बन जाता है। ऐसी प्रार्थना में यांत्रिकता नहीं, ज्वलंत आस्था और जीवित अनुभूति होती है।

कला, भक्ति, रचना — जब तक परावलम्बी रहती है, तब तक वह सीमित रहती है। लेकिन जब उसमें आत्मकेंद्रित पुरुषार्थ जुड़ता है, तब वह सीमाओं को तोड़ती है और साधारण से असाधारण बन जाती है। यही कारण है कि 'स्वहस्त' की महत्ता बार-बार अनेक परंपराओं में रेखांकित की गई है।

आधुनिक समय में जहाँ सबकुछ आउटसोर्स किया जाता है — पूजन की सामग्री से लेकर भक्ति की प्रस्तुति तक — वहाँ यह बोध आवश्यक है कि परिश्रम और आत्मसंपृक्ति के बिना कोई भी क्रिया आध्यात्मिक ऊर्जा से रहित हो सकती है। क्या केवल बाजार से खरीदी गई धूपबत्ती और छपी हुई आरती किसी अंतरतम की पुकार हो सकती है?

यहाँ आत्मबल, आत्मनिर्भरता और संलग्नता की एक स्पष्ट नीति सामने आती है — जो व्यक्ति स्वयं के पुरुषार्थ और श्रद्धा से अपने जीवन की साधना करता है, वह उन लोगों से कहीं अधिक शक्तिशाली होता है जो केवल दूसरों पर निर्भर रहते हैं।