श्रद्धया च तथा सिद्धिस्तस्य विष्णुप्रसादतः ॥ ०८-११॥
प्राकृतिक वस्तुओं जैसे काष्ठ (लकड़ी), पाषाण (पत्थर), और धातु की साधारण वस्तुओं में भी उच्चतम भाव और श्रद्धा के साथ सेवा करने से उस कर्म की सिद्धि होती है। यह भाव और श्रद्धा कर्म को साधारण से असाधारण बनाती है। वस्तु अपने स्वभाव में निर्जीव है, लेकिन उसमें मनोभाव से सेवा करने वाला मनुष्य अपने श्रद्धा और भक्ति से उस वस्तु को पूजनीय बना देता है।
इस प्रकार की सेवा शुद्ध कर्म का रूप है, जहाँ वस्तु या पदार्थ की भौतिक सीमाएँ बाधक नहीं होतीं, बल्कि उसकी महत्ता उस कर्म में निहित भावना से परिभाषित होती है। मनुष्य के भाव की शक्ति से निर्जीव वस्तु भी दिव्य संप्राप्ति की साधना बन जाती है। यह श्रद्धा कर्म के सफल होने का कारण बनती है, क्योंकि कर्म की सफलता केवल भौतिक क्रिया पर निर्भर नहीं, बल्कि उसमें संलग्न भावना, श्रद्धा और ईश्वर प्रसाद भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
इस संदर्भ में विष्णु प्रसाद का अर्थ है ईश्वरीय अनुग्रह जो उस कर्म को पूर्ण, सफल और फलदायी बनाता है। बिना श्रद्धा और सच्चे भाव के किये गए कर्म भले ही क्रियात्मक हों, परन्तु वे अधूरे और फलहीन रह सकते हैं। श्रद्धा कर्म के आध्यात्मिक स्तर को दर्शाती है, जो किसी भी कर्म की गुणवत्ता को बढ़ा देती है।
यह सिद्धांत इस बात को उजागर करता है कि कर्म की पवित्रता और सफलता मनुष्य की श्रद्धा और भावना पर निर्भर करती है। इस कारण से, निर्जीव वस्तुओं के साथ भी ऐसा संबंध स्थापित हो सकता है, जो ईश्वरीय प्रसाद से पूर्ण हो और जिसके फलस्वरूप कर्म सिद्ध होता है। यह दृष्टिकोण कर्मयोग और भक्तियोग के आधार पर कार्यों की पूजा और साधना को समझने में मदद करता है।
यह विचार सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में व्यवहारिक रूप से भी महत्वपूर्ण है, जहाँ हम दैनिक कार्यों और वस्तुओं के प्रति अपनी श्रद्धा और मनोभाव को जागृत कर सकते हैं। इससे प्रत्येक कर्म में दिव्यता और सफलता आती है, और कर्म केवल भौतिक क्रिया नहीं रह जाती, बल्कि आध्यात्मिक साधना बन जाती है।