विषमस्तु न चाप्यस्तु घटाटोपो भयङ्करः ॥ ०९-१०॥
साँप को सामान्यतः विषैला और खतरनाक माना जाता है, परन्तु इस कथन में एक गहरा दार्शनिक और व्यवहारिक तथ्य छिपा है। यहाँ पर जिस साँप का उल्लेख है वह विशेष रूप से 'महती फणा' वाला है — जिसका अर्थ है बड़े आकार और प्रमुख फन वाला। ऐसा साँप जो निर्विष भी हो सकता है, फिर भी उससे सावधानी बरतना आवश्यक है। इसका कारण यह है कि केवल विष की उपस्थिति ही खतरे का पैमाना नहीं होती, बल्कि अन्य गुण जैसे शरीर की भारी उपस्थिति, गम्भीर रूप-रंग, और भयभीत करने वाला स्वभाव भी खतरे की चेतावनी देते हैं।
जीवन में भी कई बार हम ऐसे अनुभव करते हैं जहाँ खतरा सीधे दिखता नहीं परन्तु उसकी गंभीरता या आकार से भय उत्पन्न होता है। वस्तु या व्यक्ति जो बाहरी रूप से भय उत्पन्न करता हो, वह अत्यंत सावधानी मांगता है। यह चेतावनी बताती है कि हमें सतर्कता केवल स्पष्ट और ज्ञात खतरे के लिए नहीं बल्कि संभावित और अप्रत्यक्ष खतरों के लिए भी रखनी चाहिए।
यहाँ 'निर्विषेण अपि' यह स्पष्ट करता है कि विष का अभाव खतरे को समाप्त नहीं करता, क्योंकि 'महती फणा' और 'घटाटोप' जैसे लक्षण खतरे को और भी गंभीर बना देते हैं। 'घटाटोप' का अर्थ है भारी, मोटा शरीर, जो अपने आप में एक बल और दबदबा दर्शाता है। ऐसे जीव का व्यवहार अनिश्चित होता है और वह किसी भी समय खतरनाक हो सकता है।
फिर यह भी ध्यान रखना चाहिए कि भय केवल विष से नहीं, बल्कि उसकी स्वरूप, रूप-रंग और प्रकट होने वाले भावों से भी उत्पन्न होता है। इसलिए, सतर्कता और दूरदर्शिता जीवन के ऐसे पहलुओं में भी आवश्यक होती है जहाँ खतरा प्रत्यक्ष नहीं होता। कई बार निर्जीव या अप्रत्यक्ष संकेत भी भय पैदा करते हैं, जो हमें सचेत करते हैं।
यह सूक्ति हमें एक गहन नीति सिखाती है कि केवल ज्ञात और स्पष्ट खतरे तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि अप्रत्यक्ष, परिष्कृत और सूक्ष्म खतरे की भी पहचान करनी चाहिए और उसके अनुसार सावधानी बरतनी चाहिए। यह जीवन में निर्णय लेने, नीति बनाने और व्यवहारिक बुद्धिमत्ता में एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण है।