श्लोक ०९-०१

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान्विषवत्त्यज ।
क्षमार्जवदयाशौचं सत्यं पीयूषवत्पिब ॥ ०९-०१॥
यदि तू मुक्ति चाहता है, हे पुत्र, तो विषयों की विष जैसी आसक्ति त्याग दे।
क्षमा, ईमानदारी, दया, शीलता, और सत्य को अमृत के समान पीता रह।

मनुष्य की मुक्ति, अर्थात् आत्मा की स्वतंत्रता और शांति, तब संभव होती है जब वह सांसारिक विषयों की जहर जैसी आसक्ति से मुक्त हो जाए। विषयों के प्रति जो मोह होता है, वह मनुष्य को बंधन में डाल देता है। जैसे विष शरीर को नष्ट करता है, वैसे ही विषयों की आसक्ति आत्मा को बंधित कर, उसकी उन्नति में बाधा उत्पन्न करती है।

क्षमा, जो अपमान और कष्ट को सहन करने की क्षमता है, आंतरिक शांति और संबंधों के समृद्धि का मूल है। क्षमा के बिना मनुष्य हमेशा संघर्ष और द्वेष के चक्र में फंसा रहता है। ईमानदारी (अर्जव) व्यक्ति को सत्य के मार्ग पर टिकाए रखती है, जिससे मनोबल और सम्मान बढ़ता है। दया (दया भाव) हृदय को कोमल बनाती है, जिससे सामाजिक मेलजोल और सहानुभूति बढ़ती है। शीलता (शौच) का आशय न केवल शारीरिक स्वच्छता, बल्कि मानसिक और नैतिक शुद्धता से भी है, जो चरित्र की नींव है। सत्य का पान पीयूष के समान होता है, जो जीवन को अमृतमय बनाता है।

इन गुणों का नियमित अभ्यास मनुष्य को विषम परिस्थितियों में भी स्थिरता प्रदान करता है और अंततः आत्मा की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। यह मुक्ति केवल सांसारिक बंदनों से नहीं, बल्कि मन और बुद्धि के बंधनों से भी मुक्ति है।

विषय-आसक्ति का त्याग करने के बाद ये सद्गुण मनुष्य को शुद्ध, स्थिर और मुक्त बनाते हैं। क्षमा और दया से मनोविकारों का नाश होता है, अर्जव से अराजकता दूर होती है, शीलता से चरित्र निर्मल होता है और सत्य की अनुभूति से अंतर्नाद शांति की गूंज फैलती है।

ऐसे गुणों को अपने आचरण में अमृत की तरह ग्रहण करना आवश्यक है, क्योंकि ये मनुष्य के जीवन में अमरत्व का तत्व भरते हैं। विषय-वासनाओं का त्याग और सद्गुणों का ग्रहण ही मुक्ति के द्वार खोलता है, जो सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर आवश्यक है।