पशुभिः पुरुषाकारैर्भाराक्रान्ता हि मेदिनी ॥ ०८-२२॥
मानवता का माप केवल बाहरी रूप, आकार या जाति-धर्म से नहीं होता, बल्कि उसके आचरण और संस्कार से निर्धारित होता है। मांसाहार करना, मद्यपान करना और अक्षरहीनता—ये तीनों अवस्थाएँ मनुष्य को पशुता की ओर ले जाती हैं, भले ही उसका शरीर मानवीय रूप धारण करता हो। ये आदतें मानसिक और सामाजिक बोझ बनकर पृथ्वी पर दबाव उत्पन्न करती हैं, जिसका प्रभाव न केवल व्यक्तिगत जीवन पर बल्कि पूरे समाज और पर्यावरण पर भी पड़ता है।
मांसाहार स्वभावतः हिंसा की ओर अग्रसर करता है, जिससे सहिष्णुता और करुणा का अभाव होता है। मद्यपान व्यक्ति के विवेक और नियंत्रण को कमजोर करता है, जिससे सामाजिक कुप्रभाव उत्पन्न होते हैं। अक्षरहीनता ज्ञान के अभाव को दर्शाती है, जो मनुष्य को अज्ञानता और पथभ्रष्टता में डालती है। जब ये तीन गुण एकत्रित हो जाते हैं, तो वे मनुष्य के सामाजिक और नैतिक कर्तव्यों को बाधित करते हैं और उसे पशु-स्वरूप में परिवर्तित कर देते हैं।
भूमि या मेदिनी पर भाराक्रांत होना द्योतक है उस सामाजिक और पर्यावरणीय बोझ का, जो ऐसे मनुष्यों के कारण उत्पन्न होता है। यह बोझ न केवल संसाधनों की असमर्थता का कारण बनता है, बल्कि मानवीय मूल्यों के क्षरण और सामूहिक पतन का भी सूचक है। क्या कोई समाज तब तक स्थिर रह सकता है जब उसके सदस्य स्वयं पशु-स्वरूप हो जाएं? क्या केवल बाहरी रूप से मनुष्य होना पर्याप्त है या आचरण और ज्ञान से उसे परिभाषित करना आवश्यक है?
यह विचार महत्वपूर्ण है कि मानव जीवन केवल भौतिक शरीर और रूप तक सीमित नहीं है, बल्कि उसमें संस्कार, शिक्षा, और संयम भी शामिल हैं। जब ये घटक उपेक्षित हो जाते हैं, तब मनुष्य एक सामाजिक और नैतिक संकट में फंस जाता है। मांसाहार, मद्यपान, और अज्ञानता के कारण न केवल व्यक्तियों का पतन होता है, बल्कि यह संपूर्ण समाज के लिए एक बोझ बन जाता है जो भविष्य को अस्थिर और असुरक्षित कर देता है।
इसलिए, मनुष्य के कर्तव्य और संस्कारों का पालन करना आवश्यक है ताकि वह वास्तविक अर्थ में मनुष्य कहलाए और पृथ्वी पर बोझ न बने, बल्कि विकास और प्रगति का स्रोत बने।