श्लोक ०८-०६

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
तैलाभ्यङ्गे चिताधूमे मैथुने क्षौरकर्मणि ।
तावद्भवति चाण्डालो यावत्स्नानं न चाचरेत् ॥ ०८-०६॥
तेल मालिश, चिता के धुएँ, मैथुन और क्षौर कर्म में संलग्न होने पर मनुष्य चाण्डाल के समान होता है, जब तक वह स्नान न कर ले।

मनुष्य की आंतरिक और बाह्य शुद्धि के संदर्भ में समाज की दृष्टि अत्यंत कठोर रही है। शास्त्रीय दृष्टिकोण से कुछ कृत्य ऐसे माने गए हैं जो अस्थायी रूप से मनुष्य को सामाजिक और आध्यात्मिक दृष्टि से 'अपवित्र' बना देते हैं। इस अपवित्रता का उद्देश्य केवल बाहरी नियमों का पालन नहीं, बल्कि मानसिक एवं आध्यात्मिक जागरूकता को बनाए रखना भी है।

तेल मालिश (तैलाभ्यङ्ग), श्मशान के धुएँ के संपर्क में आना (चिताधूम), मैथुन क्रिया (मैथुन) और दाढ़ी या बाल कटवाना (क्षौरकर्म) — ये चारों ऐसे कार्य हैं जो शरीर को शारीरिक, मानसिक अथवा प्रतीकात्मक रूप से अपवित्र अवस्था में ले जाते हैं। ये कर्म मनुष्य को उसकी दैनिक मर्यादा और सजगता से क्षणिक रूप से विचलित कर देते हैं।

स्नान, इन चारों कर्मों के पश्चात, केवल शरीर की धुलाई नहीं है, बल्कि यह चेतना की पुनः स्थापना का एक अनिवार्य साधन है। जैसे कोई मंदिर में प्रवेश से पहले शुद्ध जल से स्नान करता है, वैसे ही इन कर्मों के बाद भी शरीर और मन को पुनः शुद्ध करने की आवश्यकता होती है।

'चाण्डाल' का प्रयोग यहाँ अपमानजनक विशेषण के रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना में शुद्धि की अत्यावश्यकता को दर्शाने के लिए हुआ है। चाण्डाल का तात्पर्य उस अवस्था से है जिसमें व्यक्ति अस्थायी रूप से सामाजिक व्यवहार और आध्यात्मिक अनुशासन से पृथक हो जाता है।

यह प्रश्न सहज ही उठता है — क्या शुद्धता केवल स्नान से आती है? इसका उत्तर स्नान की भौतिक क्रिया में नहीं, बल्कि उसके प्रतीकात्मक अर्थ में निहित है। स्नान एक चेतना की क्रिया है, जिससे मनुष्य अपने कर्मों की ऊर्जा को पुनर्संतुलित करता है और सामाजिक जीवन में पुनः सम्मिलित होता है।

वास्तव में, यह व्यवस्था व्यक्ति को निरंतर सजग रखने का साधन है — कि कौन-से कर्म हमें 'विचलन' की स्थिति में ले जाते हैं, और किस प्रकार हम वापस 'मर्यादा' में लौट सकते हैं। यह केवल शरीर के लिए नहीं, वरन् मन, आत्मा और सामाजिक परिपाटी के लिए भी एक स्वच्छता प्रक्रिया है। जब तक यह स्नान न किया जाए, व्यक्ति सामाजिक रूप से 'अनुचित' की स्थिति में बना रहता है।

स्नान यहाँ एक संस्कार है — वह बिंदु जहाँ मनुष्य, क्षणिक अपवित्रता से उठकर पुनः अपनी आंतरिक मर्यादा और सामाजिक स्वीकार्यता में लौटता है। इस प्रतीकात्मकता के माध्यम से यह सिद्ध होता है कि मानव जीवन में केवल कर्म नहीं, उन कर्मों के पश्चात की सजगता और परिशोधन भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं।