श्लोक ०८-०५

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
चाण्डालानां सहस्रैश्च सूरिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ।
एको हि यवनः प्रोक्तो न नीचो यवनात्परः ॥ ॥८-०५॥
तत्त्व को जानने वाले विद्वानों द्वारा कहा गया है कि चाण्डालों के हजारों से भी अधिक एक यवन अधिक नीच होता है; यवन से अधिक नीच कोई नहीं।

नैतिक और सांस्कृतिक क्षरण तब चरम पर पहुँचता है जब समाज किसी बाह्य आकर्षण या दबाव के कारण अपनी मूल पहचान, परंपरा और आत्मा को विस्मृत कर देता है। सामाजिक पदक्रम में जिन समुदायों को अपवित्र या तिरस्कृत माना गया, जैसे चाण्डाल, वे भी उस समाज की परिधि में तो बने रहते हैं। लेकिन यवन — वह विदेशी, जो न केवल भौगोलिक रूप से बाहर है, बल्कि सांस्कृतिक, धार्मिक और नैतिक दृष्टि से विरोध में खड़ा है — वह समाज के लिए मात्र बाहरी नहीं, बल्कि मूलभूत विघातक तत्व है।

यह विचार तब और तीव्र हो जाता है जब किसी समाज में न केवल विदेशी तत्व प्रवेश करते हैं, बल्कि उन्हें श्रेष्ठता या समानता प्रदान की जाने लगती है। यह न केवल सांस्कृतिक आत्मसमर्पण है, बल्कि अपने मूल मूल्य, परंपरा और धर्म के विरुद्ध विद्रोह के समान है। चाण्डाल, चाहे जितना ही अपवित्र माना जाए, वह समाज की स्मृति और परंपरा से जुड़ा हुआ होता है, उसकी पहचान उसी सांस्कृतिक वृक्ष की एक शाखा होती है। जबकि यवन उस वृक्ष की जड़ काटने वाला बल होता है।

चाण्डाल के साथ समाज का संबंध विकृत भले हो, किंतु संपर्क में होता है। उसमें सुधार की संभावना, पुनर्परिभाषा की संभावना बनी रहती है। यवन के साथ संबंध केवल शक्ति, आक्रमण, और सांस्कृतिक आक्रान्ता का होता है। वह न केवल भिन्न भाषा, पोशाक, आचार या धर्म रखता है, बल्कि उसकी उपस्थिति उस सभ्यता की जड़ों को ही निष्प्राण कर सकती है।

विवेक यही माँग करता है कि आंतरिक दोषों को सुधारने की दृष्टि से देखा जाए, लेकिन बाह्य विघातक प्रभावों को पहचानकर उनका स्पष्ट विरोध किया जाए। यदि कोई रोग शरीर में भीतर से उत्पन्न हो, तो उसकी चिकित्सा संभव है; लेकिन यदि कोई बाहरी विष सुई के माध्यम से डाला जा रहा हो, तो उसे तुरंत रोकना ही बुद्धिमत्ता है। यही कारण है कि तत्त्वदर्शी मनीषियों ने यवन को सर्वाधिक नीच घोषित किया — क्योंकि वह न केवल भिन्न था, बल्कि विनाशकारी था।

सांस्कृतिक आत्मरक्षा का अर्थ यह नहीं कि कोई नस्लीय या जातीय घृणा पोषित की जाए, बल्कि यह कि कोई भी ऐसी चेतना, प्रवृत्ति या व्यवस्था जो समाज की जड़ों को नष्ट करने का प्रयास करे, उसे स्वीकार करना मूर्खता है। चाण्डाल से भी अधिक नीच यवन इसलिए कहा गया क्योंकि वह किसी सुधार की भूमि नहीं देता — वह समर्पण चाहता है, वर्चस्व चाहता है, और अंततः पूर्ण विनाश की ओर ले जाता है।

जब किसी समाज की ज्ञान परंपरा स्वयं यह उद्घोष करती है कि यवन से अधिक नीच कोई नहीं, तो यह उस ऐतिहासिक अनुभव का निचोड़ है जहाँ एक समृद्ध सभ्यता ने अपने पतन के बीज बाह्य आक्रमणकारियों में देखे। यह भाव केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक आत्मसाक्षात्कार का शंखनाद है।