श्लोक ०८-०४

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
वित्तं देहि गुणान्वितेषु मतिमन्नान्यत्र देहि क्वचित् प्राप्तं वारिनिधेर्जलं घनमुखे माधुर्ययुक्तं सदा ।
जीवान्स्थावरजंगमांश्च सकलान्संजीव्य भूमण्डलं भूयः पश्य तदेव कोटिगुणितं गच्छन्तमम्भोनिधिम् ॥ ॥८-०४॥
हे बुद्धिमान, धन गुणों से युक्त लोगों को दो, अन्यत्र कभी मत दो। समुद्र से प्राप्त जल बादल के मुख में जाकर सदैव मधुर बन जाता है, और समस्त स्थावर-जंगम प्राणियों को जीवन देकर समस्त पृथ्वी को पुनः जीवन प्रदान करता है; फिर वही जल करोड़ों गुना होकर समुद्र में लौट जाता है।

धन का सदुपयोग तभी संभव है जब वह गुणवानों के हाथों में हो। जब धन मूर्खों, दुष्टों या निकृष्ट लोगों के पास जाता है, तो वह न केवल व्यर्थ होता है, बल्कि समाज के लिए हानिकारक भी बनता है। गुणवान व्यक्ति धन को केवल अपने लिए नहीं, बल्कि समाज के कल्याण हेतु एक साधन की भाँति उपयोग करता है। यह बुद्धिमत्ता की पहचान है कि हम धन का प्रवाह उन लोगों की ओर करें जिनमें सेवा, विवेक, और कर्तव्यबोध हो।

समुद्र का जल, जब बादल के माध्यम से पृथ्वी पर वर्षा बनकर गिरता है, तो उसमें मिठास, जीवनदायिनी शक्ति और उपयोगिता आ जाती है। वही जल खेतों में अन्न उपजाता है, पेड़ों को जीवन देता है, प्राणियों की प्यास बुझाता है — यानी संपूर्ण जीवनचक्र को ऊर्जा प्रदान करता है। परन्तु वही जल, यदि सीधे समुद्र में ही पड़ा रहे, तो वह नमकीन, अनुपयोगी और जीवनविहीन बना रहता है।

यह रूपक स्पष्ट करता है कि मूल्य वही धन रखता है जो उपयोग में लाया जाए — और उपयोग भी विवेकपूर्ण हो। जैसे बादल जल को उठाकर, रूपांतरित कर, एक व्यापक उद्देश्य के लिए वितरित करता है और अंततः वही जल समुद्र में लौटकर पहले से कहीं अधिक समृद्ध हो जाता है, वैसे ही गुणवानों को दिया गया धन समाज में फैलकर अनेक प्रकार के फल देता है और फिर परोक्ष रूप से उसी दाता के पास सौगुना लाभ के साथ लौट आता है।

यहाँ 'गुणान्वित' का अर्थ केवल विद्वान, ज्ञानी या कलाकार नहीं है, बल्कि वे सभी व्यक्ति हैं जिनमें चरित्र, उत्तरदायित्व, करुणा और नैतिकता है। ये लोग धन को केवल उपभोग की वस्तु नहीं मानते, बल्कि एक सामाजिक ऊर्जा मानते हैं जिसका संचालन दायित्व से होना चाहिए।

यदि धन गलत हाथों में जाए — जैसे लालची, अपात्र, या असंवेदनशील लोगों के पास — तो वह समाज में विषमता, पतन और हिंसा को जन्म देता है। ठीक वैसे ही जैसे अगर समुद्र का जल केवल समुद्र में रहे और पृथ्वी पर न गिरे, तो न सूखे अन्न मिलेंगे, न पेड़ उगेंगे, न प्राणी जीवित रहेंगे।

इस प्रकार, धन को केवल संचय करने की वस्तु मानना एक भूल है। उसे प्रवाहित करना, वह भी सोच-समझकर, समाज की पुनर्रचना और जीवन-चक्र की पूर्ति का साधन है। जहाँ दृष्टि सीमित हो, वहाँ धन केवल स्वार्थ बनकर रह जाता है। जहाँ दृष्टि व्यापक हो, वहाँ धन माधुर्य बन जाता है।