श्लोक ०८-०३

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
दीपो भक्षयते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते ।
यदन्नं भक्षयते नित्यं जायते तादृशी प्रजा ॥ ०८-०३
दीप अंधकार को खा जाता है, परंतु कालिख उत्पन्न करता है। मनुष्य जो अन्न नित्य खाता है, उसी प्रकार की संतान उत्पन्न होती है।

किसी भी वस्तु या प्रक्रिया की केवल उपयोगिता या उसका तात्कालिक परिणाम देखना पर्याप्त नहीं है — उसके दीर्घकालिक प्रभावों और उप-परिणामों को भी समझना आवश्यक है। दीपक प्रकाश देता है और अंधकार को नष्ट करता है, परंतु उसके साथ-साथ कालिख भी उत्पन्न करता है। यह प्रतीक है उस द्वंद्व का, जो हर उपयोगी वस्तु के साथ जुड़ा होता है। कुछ वस्तुएँ बाहर से लाभकारी प्रतीत होती हैं, लेकिन उनकी उपस्थिति में जो सूक्ष्म, दीर्घकालिक, और कभी-कभी अदृश्य प्रभाव उत्पन्न होते हैं, वे भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं।

अन्न केवल भूख मिटाने का साधन नहीं है, बल्कि यह शरीर, मन और अंततः अगली पीढ़ी के गुणों का भी आधार है। 'जैसा अन्न, वैसी प्रजा' — यह कथन केवल भौतिक स्वास्थ्य की बात नहीं करता, बल्कि मानसिक, नैतिक और भावनात्मक संरचना की ओर भी संकेत करता है। यदि अन्न अशुद्ध, अव्यवस्थित या विकृत स्रोतों से प्राप्त है, तो उसकी अनुगूँज अगली पीढ़ियों तक जाती है।

यह सिद्धांत केवल शारीरिक संतति के संदर्भ में नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, बौद्धिक, और नैतिक उत्तराधिकार में भी लागू होता है। एक समाज जो सतत रूप से विकृत विचारों, दूषित विचारधारा या मानसिकता 'खाता' है — वह अगली पीढ़ी में उसी की अनुकृति उत्पन्न करेगा। अन्न केवल गेहूँ या चावल नहीं है; वह प्रत्येक वह 'आहार' है जो मनुष्य अपने भीतर लेता है — विचारों का, दृष्टिकोणों का, मूल्यों का।

यदि किसी दीपक का उपयोग केवल उजाले के लिए हो रहा है और उसकी कालिमा की अनदेखी की जा रही है, तो वह अंततः दीवारों को काला कर देगा। इसी प्रकार, यदि किसी समाज में केवल तत्काल लाभ पर ध्यान दिया जाए — बिना यह समझे कि यह लाभ किन अंतर्निहित हानियों के साथ आता है — तो कालांतर में वह समाज विकृतियों से भर जाएगा। यह चेतावनी है: जो हम अंदर ले रहे हैं, वही हमारे बाहर प्रकट होगा — हमारी संतान के रूप में, हमारे समाज के रूप में, और हमारी संस्कृति के रूप में।

इस अवधारणा में गहन उत्तरदायित्व की मांग है — स्वयं के चयन के प्रति, पोषण के प्रति, और उस भविष्य के प्रति जिसे हम अनजाने में गढ़ रहे हैं। क्या हम केवल उजाला देख रहे हैं या उस कालिख को भी पहचान रहे हैं जो उसके साथ आ रही है? क्या हम जो विचार, आहार, और व्यवहार आज स्वीकार कर रहे हैं, वे कल की सृष्टि में कैसे रूपांतरित होंगे? यह प्रश्न किसी धार्मिक या आध्यात्मिक तर्क का नहीं, बल्कि सीधा और स्पष्ट नैतिक, सांस्कृतिक, और सामाजिक विमर्श का है।