श्लोक ०८-०२

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
इक्षुरापः पयो मूलं ताम्बूलं फलमौषधम् ।
भक्षयित्वापि कर्तव्याः स्नानदानादिकाः क्रियाः ॥ ०८-०२॥
ईख का रस, दूध, मूल, ताम्बूल, फल और औषध का सेवन करने के बाद भी स्नान, दान आदि कर्तव्य कर्म करने ही चाहिए।

शुद्ध, सात्त्विक और औषधीय पदार्थों का सेवन करने के बाद भी व्यक्ति अपने धार्मिक, सामाजिक और नैतिक कर्तव्यों से मुक्त नहीं हो जाता। चाहे आहार कितना भी निर्मल और पवित्र क्यों न हो, उससे उत्पन्न तृप्ति या संतोष व्यक्ति को कर्तव्य से विमुख करने का औचित्य नहीं बनाता। यहां प्रश्न उठता है: यदि जो कुछ खाया गया वह सात्त्विक और शरीर के लिए लाभप्रद है, तो फिर स्नान, दान, या अन्य शुद्धिकरण की क्रियाएं क्यों आवश्यक हैं?

इसका उत्तर इस सत्य में निहित है कि पवित्रता केवल भौतिक नहीं, मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर भी आवश्यक है। कोई भी क्रिया — चाहे वह कितनी ही शुद्ध क्यों न हो — शरीर और मन में सूक्ष्म विकार उत्पन्न कर सकती है। भोजन न केवल शरीर को प्रभावित करता है, बल्कि मन और चित्त की अवस्था पर भी उसका सीधा प्रभाव पड़ता है। इसलिए, उसके बाद की जाने वाली स्नान या दान जैसी क्रियाएं आत्मशुद्धि और सामाजिक संतुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक होती हैं।

यह सिद्धांत कर्म की निरंतरता का भी संकेत देता है — जीवन केवल उपभोग का नाम नहीं, बल्कि उत्तरदायित्व की एक शृंखला है। जब तक मनुष्य शरीर धारण किए हुए है, तब तक उसे अपने दायित्वों का निर्वाह नियमित रूप से करते रहना चाहिए, चाहे वह कितनी ही शुद्ध वस्तुओं का सेवन क्यों न कर रहा हो।

उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति आयुर्वेदिक औषधियों का सेवन करता है, जिससे उसका स्वास्थ्य उत्तम होता है। किंतु वह यदि अपनी दैनंदिन दिनचर्या, दान, स्नान, संकल्प आदि का परित्याग करता है, तो उसका जीवन संतुलित नहीं रह सकता। इसी प्रकार, यदि कोई फलाहार करता है, जो धार्मिक दृष्टि से भी शुद्ध माना गया है, तो भी उस पर उसके नैतिक कर्तव्यों की छूट नहीं मिलती।

यह विचारधारा यह भी स्पष्ट करती है कि आध्यात्मिक प्रगति के मार्ग में ‘मैंने यह किया, इसलिए अब मुझे कुछ और करने की आवश्यकता नहीं’ जैसी सोच एक भ्रम है। कर्म निरंतर चलता है, और उसका संतुलन बनाए रखना व्यक्ति का धर्म है। आहार चाहे कैसा भी हो — उससे उत्पन्न आत्मसंतोष कर्तव्यच्युत होने का औचित्य नहीं बन सकता।

जीवन में प्रत्येक क्रिया एक उत्तरदायित्व को जन्म देती है, और उस उत्तरदायित्व का निर्वाह ही धर्म का लक्षण है। यदि व्यक्ति केवल अपने सुख के आधार पर कर्म करता है और शुद्धता का आड़ लेकर उत्तरदायित्व से विमुख होता है, तो वह समाज में संतुलन बनाए रखने में असमर्थ हो जाता है। इसलिए, पवित्र वस्तुओं का सेवन करने के बाद भी कर्मशीलता और सामाजिक-धार्मिक क्रियाओं का पालन अनिवार्य है।