भोजने चामृतं वारि भोजनान्ते विषापहम् ॥ ॥८॥
जल केवल जीवनदायी तत्व नहीं, बल्कि उसका उपयोग कब, कैसे और कितनी मात्रा में किया जाए — यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना स्वयं जल का होना। यदि पाचन नहीं हुआ है, तो जल औषधि की तरह कार्य करता है; यह अम्लता, गैस या पेट के विकारों को शांत करता है। यह बात केवल शारीरिक स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है — यह सूक्ष्म संकेत है उस विवेक का, जो समय, अवस्था और परिस्थिति के अनुसार साधारण वस्तुओं के भी असाधारण परिणामों को पहचानता है।
पाचन हो जाने पर वही जल बलवर्धक हो जाता है, क्योंकि तब शरीर उसे आत्मसात करने के लिए तैयार होता है। यह ठीक वैसे ही है जैसे कोई विचार, जब उसका समय आता है, तब वह केवल विचार नहीं रहता — वह शक्ति बन जाता है। यह समय की मांग और शरीर की अवस्था को पहचान कर किया गया व्यवहार है जो उसे फलदायी बनाता है। बिना पाचन के लिया गया बलवर्धक आहार भी विष बन सकता है — यही सूक्ष्मता है नीति की।
भोजन करते समय जल का सेवन अमृत के तुल्य कहा गया है। इसका कारण है — यह भोजन को सरलता से गले से नीचे उतरने में सहायता करता है, जठराग्नि को संतुलित करता है, और आहार की रचना को सहज करता है। यह केवल स्वाद की तृप्ति नहीं, बल्कि शरीर और जठर की यंत्रणा के अनुरूप किया गया सहयोग है। यह दृष्टिकोण आधुनिक जीवन में अनुपस्थित होता जा रहा है, जहाँ भोजन केवल एक प्रक्रिया बन चुकी है, अनुष्ठान नहीं।
भोजन के बाद जल पीना विष को हरने वाला कहा गया है। यह कथन प्रतीकात्मक भी है और शारीरिक सत्य भी। शारीरिक रूप से यह आँतों में अवशिष्ट पदार्थों के निष्कासन में सहायक होता है, वहीं प्रतीकात्मक रूप से यह उस भार को कम करता है जो अतिशय सेवन से उत्पन्न होता है। भोजन के बाद थोड़ा जल पीना जैसे आत्म-नियंत्रण का अभ्यास है, जो 'अधिक' की प्रवृत्ति को संतुलित करता है।
इस गहन जीवन-दृष्टि में हमें सिखाया गया है कि जीवन में किसी भी वस्तु का मूल्य केवल उसमें नहीं, बल्कि उसके प्रयोग की युक्ति, समय और मात्रा में है। साधारण प्रतीत होने वाला जल, यदि युक्तिपूर्वक प्रयोग न किया जाए, तो अमृत भी विष हो सकता है। यह नीति न केवल आहार-विहार पर लागू होती है, बल्कि वाणी, धन, शक्ति, संबंध — हर आयाम पर।
क्या केवल पवित्रता पर्याप्त है, यदि उसका प्रयोग अनुचित समय पर हो? क्या केवल प्रेम पर्याप्त है, यदि वह अवसर से परे जाकर हस्तक्षेप में बदल जाए? यह श्लोक जीवन के इन सभी जटिल पहलुओं को एक साधारण दैनिक क्रिया — जलपान — के माध्यम से अत्यंत सटीकता से उजागर करता है। यही नीति की सूक्ष्मता और सार्थकता है।