दुष्कुलं चापि विदुषो देवैरपि स पूज्यते ॥ ॥०८-१९॥
कुल या परिवार का आकार, प्रतिष्ठा अथवा सामाजिक स्थिति किसी व्यक्ति के वास्तविक मूल्य या सम्मान का निर्धारक नहीं हो सकता। विशिष्टता का मूल स्रोत विद्या, ज्ञान और गुण होते हैं, न कि मात्र जन्म या वंश। एक व्यक्ति जो ज्ञान से वंचित होता है, उसका बड़ा या प्रतिष्ठित कुल होने से क्या लाभ? वह कुल भी दुष्कृत्यों, असंसकारों या अधर्म के कारण दोषग्रस्त हो सकता है। परन्तु जो व्यक्ति ज्ञानी होता है, उसका स्थान और सम्मान स्वाभाविक होता है, चाहे वह किस भी कुल या वंश से सम्बंधित हो।
यह विचार सामाजिक प्रतिष्ठा की सतही दृष्टि को चुनौती देता है, जो अक्सर वंश, जन्म, या बाहरी स्थिति को महत्व देती है। किन्तु वास्तविक सम्मान की उत्पत्ति गुण, बुद्धि और नैतिकता से होती है। दुष्कुल में भी यदि कोई व्यक्ति ज्ञानी और सद्गुणी है, तो वह देवों तक द्वारा पूजनीय होता है। यहाँ देवों का उल्लेख प्रतीकात्मक है, जो उच्चतर नैतिक और आध्यात्मिक स्तरों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
यह सिद्धांत सामाजिक भेदभाव, जाति-प्रथा और जन्मजात विशेषाधिकारों के विरुद्ध गहरा तर्क प्रस्तुत करता है। जन्मसिद्ध अधिकार या कुल की महत्ता पर सवाल उठाता है और गुण और विद्या को सर्वोच्च मानता है। यह व्यक्तिगत मूल्य को सामाजिक वर्गीकरण से ऊपर रखता है और सच्चे सम्मान की जड़ गुण, विद्या और व्यवहार में ढूँढता है।
किसी भी समाज में, गुणहीन लेकिन उच्च कुल के व्यक्ति का स्थान अस्थायी और अप्रासंगिक हो सकता है, जबकि ज्ञानवान और सद्गुणी व्यक्ति चाहे वह कितने भी छोटे या दुष्कृत कुल से क्यों न हो, सम्मान और पूज्यत्व प्राप्त करता है। यह दृष्टिकोण व्यक्तियों को उनके कर्म, ज्ञान और गुणों के आधार पर मूल्यांकन करने की प्रेरणा देता है, न कि केवल जन्म या सामाजिक स्थिति के आधार पर।
ऐसे तर्क सामाजिक न्याय और समानता की अवधारणा को बल देते हैं, जहाँ हर व्यक्ति के मूल्य को उसके आचरण और बुद्धि से जोड़ा जाता है। यह भी याद दिलाता है कि सम्मान अर्जित किया जाता है, प्राप्त नहीं, और यह अर्जन विद्या और सद्गुण से संभव है, न कि कुल के आकार या वंश पर निर्भर करता है।