सलज्जा गणिका नष्टा निर्लज्जाश्च कुलाङ्गना ॥ ॥०८-१८॥
व्यवहारिक जीवन की स्थिरता केवल गुणों से नहीं, बल्कि उन गुणों के उपयुक्त संतुलन और प्रसंग के अनुसार प्रयोग से संभव होती है। प्रत्येक व्यक्ति, उसकी सामाजिक भूमिका और अपेक्षित आचरण के अनुरूप ही उसकी प्रवृत्तियाँ स्वीकार्य और प्रभावी होती हैं — अन्यथा वे स्वयं विनाश का कारण बनती हैं।
ब्राह्मण का धर्म है ज्ञानार्जन, शिक्षण और तपस्या। यदि वह संतुष्ट होकर प्रयास छोड़ दे, तो उसकी ज्ञान-शक्ति, उसकी प्रेरणा और उद्देश्य समाप्त हो जाते हैं। असंतोष, जहाँ एक ओर संसार के लिए दोष माना जाता है, वहीं ब्राह्मण के लिए यह सतत जिज्ञासा और सुधार की आकांक्षा है। वह संतुष्ट होते ही थम जाता है — और वहीं से उसका पतन प्रारंभ हो जाता है।
राजा का धर्म ठीक इसके विपरीत है — यदि वह असंतुष्ट होकर अधिक से अधिक पाने की लालसा करता है, तो उसकी न्यायबुद्धि भ्रष्ट होती है, लोभ हावी हो जाता है, और प्रजा शोषण की शिकार बनती है। संतोष ही राजा के लिए वह सीमा है जो उसे विनाशक विस्तारवाद से बचाती है। एक संतुष्ट राजा ही क्षेमकर और न्यायनिष्ठ हो सकता है।
वेश्यावृत्ति का आधार ही कामना की पूर्ति है। यदि कोई गणिका लज्जाशील हो जाए, तो उसका व्यवसाय ही नष्ट हो जाता है। वहाँ संकोच, नैतिक दुविधा, या आत्मसंयम नहीं चल सकता। अतः एक लज्जाशील गणिका समाज में टिक नहीं सकती — वह अपनी भूमिका ही खो बैठती है।
दूसरी ओर, कुलवधू का मूल सौंदर्य ही उसकी लज्जा, मर्यादा और आत्मसंयम है। यदि वह निर्लज्ज हो जाए, तो कुल की प्रतिष्ठा धूल में मिलती है। उसकी निर्लज्जता केवल व्यक्तिगत पतन नहीं, पूरे परिवार और वंश का नैतिक विघटन बन जाती है। वह कुल के मूल्यों को कलंकित करती है — इसीलिए उसे 'कुलाङ्गना' कहा गया है।
यह दृष्टिकोण स्थूलतः दो विपरीत प्रवृत्तियों के बीच संतुलन की मांग करता है — किसी एक गुण को सार्वत्रिक रूप से स्वीकार करना मूर्खता है। जीवन में गुणों की सार्थकता संदर्भ से तय होती है। यही यथार्थबोध ही नीति का मूल है।
यहाँ हर वर्ग के लिए एक चेतावनी है: ब्राह्मण के लिए जिज्ञासा, राजा के लिए संतोष, गणिका के लिए निर्लज्जता, और स्त्री के लिए मर्यादा — यही उनके धर्म हैं, और इनसे विचलन ही पतन का कारण बनता है।