शुचिः क्षेमकरो राजा सन्तोषो ब्राह्मणः शुचिः ॥ ॥०८-१७॥
पवित्रता की परिभाषा केवल बाह्य रूप से स्वच्छ होना नहीं है, बल्कि आंतरिक स्वभाव, निष्ठा, उद्देश्य और आचरण से जुड़ी हुई होती है। धरती के गर्भ में स्थित जल प्राकृतिक रूप से शुद्ध रहता है क्योंकि वह प्रदूषण से दूर, सदा संरक्षण में रहता है। यह संकेत करता है कि जो तत्व स्वयं को बाह्य विक्षेपों से बचा पाते हैं, वे स्वाभाविक रूप से पवित्र होते हैं।
एक नारी का 'पativratā' होना—अर्थात पति के प्रति पूर्ण समर्पण, निष्ठा, और मानसिक, शारीरिक तथा सामाजिक आचरण में एकरूपता—पारिवारिक संरचना में पवित्रता का मूल है। यह किसी बाह्य नियम का पालन नहीं, बल्कि आत्मा की शुचिता का प्रतिबिंब है। यह भाव केवल स्त्री के लिए नहीं, बल्कि किसी भी संबंध में निष्ठा के माध्यम से शुद्धता को व्यक्त करता है।
राजा—जो राज्य का संचालन करता है—यदि केवल सत्ता के लिए नहीं, बल्कि प्रजा की समृद्धि और सुरक्षा के लिए काम करता है, तभी वह 'शुचि' कहलाता है। राज्य की नीति और प्रशासन की पवित्रता केवल नियमों की अनुपालना से नहीं, बल्कि लोककल्याण की भावना से तय होती है। एक राजा जो केवल अपनी सत्ता और सुख में रमा रहता है, वह चाहे जितना धर्मोपदेश करे, वह शुद्ध नहीं माना जा सकता।
ब्राह्मण की शुद्धता 'सन्तोष' में है—वह सन्तोष जो लोभ, स्पर्धा, और संग्रह की प्रवृत्ति से मुक्त हो। ज्ञान का अधिकारी वही हो सकता है जो अपने भीतर की तृष्णा को शांत कर चुका हो। ब्राह्मणत्व जन्म से नहीं, चरित्र और दृष्टिकोण से परिभाषित होता है। जिसे जितना मिला है, उसमें तृप्त रहने की योग्यता रखने वाला ही वास्तव में 'शुचि' है। क्योंकि जब व्यक्ति संतुष्ट होता है, तभी उसमें सच्चा विवेक और धर्मबुद्धि प्रकट होती है।
यह सूक्ति यह स्पष्ट करती है कि शुद्धता कोई सार्वभौमिक या यांत्रिक गुण नहीं, बल्कि विशिष्ट संदर्भों में जन्म लेता है—जल की शुद्धता पृथ्वी में, नारी की पति के प्रति निष्ठा में, राजा की लोक-कल्याण में, और ब्राह्मण की संतोष में। प्रत्येक की शुद्धता की परिभाषा उसके सामाजिक उत्तरदायित्व और आंतरिक वृत्तियों से निर्धारित होती है। यह दृष्टिकोण बाहरी कर्मकांड से ऊपर उठकर आत्मिक और नैतिक मापदंडों पर टिकता है।