अपत्यं च कलत्रं च सतां सङ्गतिरेव च ॥ ॥०८-१३॥
मनुष्य जीवन के पीछे जितने भी लक्ष्य दिखाई देते हैं — तपस्या, धन, परिवार, प्रतिष्ठा — उन सबकी अंतिम आकांक्षा आत्मिक शांति और स्थायी संतोष ही है। शांति का अर्थ मात्र बाहरी कलह का अभाव नहीं, बल्कि अंतरात्मा की वह स्थिति है जिसमें कोई विक्षोभ, कोई लालसा, कोई बेचैनी शेष नहीं रहती। इसी को आन्तरिक तप का चरम माना गया है। वह तप जो शरीर को यातनाएँ देकर नहीं, बल्कि मन को संयम और स्थिरता देकर साधा जाता है — वही शांति का द्वार खोलता है।
संतोष का स्वरूप और भी सूक्ष्म है। यह किसी भौतिक उपलब्धि का परिणाम नहीं, बल्कि दृष्टिकोण का निर्णय है। एक व्यक्ति अपार सम्पत्ति के बाद भी असंतुष्ट हो सकता है, जबकि कोई निर्धन व्यक्ति सीमित साधनों में भी गहरे संतुष्ट अनुभव कर सकता है। संतोष में जो सुख है, वह किसी भौतिक वस्तु से उत्पन्न नहीं होता, इसीलिए वह सुख स्थायी होता है — परिवर्तनशील परिस्थितियों से अप्रभावित। यही कारण है कि संतोष को सुख का परम स्रोत कहा गया है।
संतान और पत्नी का उल्लेख यहाँ केवल सांसारिक प्रतीकों के रूप में नहीं हुआ है, बल्कि एक स्थायी, नैतिक और प्रेमपूर्ण पारिवारिक व्यवस्था का संकेत है। श्रेष्ठ अपत्य वही है जो धर्म, मर्यादा और सेवा में संलग्न हो; और पत्नी वही जो जीवन के प्रत्येक मोड़ पर सहचर्य निभाए — न केवल सुख में, बल्कि संकट में भी। ऐसे रिश्ते केवल शारीरिक या सामाजिक अनुबंध नहीं, बल्कि आत्मिक सहचर्य के उदाहरण होते हैं।
परंतु इन सबसे ऊपर यदि कोई मूल्य धारण करता है, तो वह है सज्जनों की संगति। सत्संग स्वयं एक साधना है। वह व्यक्ति जो सत्पुरुषों की संगति में रहता है, उसका जीवन स्वयं तपमय हो जाता है — बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के। सत्संग में मिलने वाला विवेक, आदर्श, और आचरण का प्रतिबिंब मनुष्य के भीतर समरसता और गहराई उत्पन्न करता है। यह संगति आचरण के साथ-साथ चिंतन और निर्णयों को भी शुद्ध करती है। जहाँ सत्संग है, वहाँ स्वतः शांति और संतोष उपस्थित होते हैं — क्योंकि सज्जनता इन मूल्यों की मूर्त अभिव्यक्ति है।
समाज में जब इन सभी तत्वों — शांति, संतोष, पारिवारिक मर्यादा, और सज्जन संगति — का संतुलन उपस्थित होता है, तब ही वह समाज दीर्घकालिक स्थायित्व और समृद्धि की ओर अग्रसर हो पाता है। इनके बिना जीवन एक अधूरी दौड़ बनकर रह जाता है — जहाँ कोई मंज़िल नहीं, केवल थकावट है।