भावे हि विद्यते देवस्तस्माद्भावो हि कारणम् ॥ ॥०८-१२॥
मनुष्य बाह्य रूपों में ईश्वर या शक्ति की खोज करता है — लकड़ी की मूर्तियाँ, पत्थर के विग्रह, या मिट्टी से बनी प्रतिमाएँ उसकी आस्था का केंद्र बनते हैं। परंतु इन सभी में जो सार्थकता उत्पन्न होती है, वह केवल एक ही तत्व पर निर्भर है — भाव। यदि भाव नहीं है, तो सबसे सुंदर मूर्ति भी केवल निर्जीव पदार्थ रह जाती है; यदि भाव प्रबल है, तो मिट्टी का एक ढेला भी मनुष्य को परम अनुभूति का माध्यम बन सकता है।
यह दृष्टिकोण केवल भक्ति तक सीमित नहीं, बल्कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लागू होता है। कर्म के भीतर यदि भाव नहीं है, तो वह यांत्रिकता में बदल जाता है — न उसमें जीवन रहता है, न प्रेरणा, न ही अर्थ। उसी प्रकार संबंधों में यदि भाव न रहे, तो केवल व्यवहार शेष रह जाते हैं, जो एक दिन ढह जाते हैं।
भाव वह अदृश्य तत्व है जो जड़ में चेतना संचारित करता है, पत्थर को प्रतीक बनाता है, और मिट्टी को पवित्रता से भर देता है। यह भाव ही श्रद्धा का मूल है, और श्रद्धा ही वह दृष्टि है जिससे साधारण भी असाधारण बन जाता है। क्या यह संभव नहीं कि एक ही मूर्ति किसी के लिए केवल सजावट हो और किसी दूसरे के लिए आराध्य? अंतर केवल भाव का है।
यह भी प्रश्न उठता है — क्या ईश्वर केवल मंदिरों में हैं? यदि मूर्ति में भाव न हो, तो क्या वह ईश्वर है? और यदि भाव किसी सामान्य क्षण में प्रकट हो जाए — किसी पीड़ित की सेवा, किसी माँ के स्पर्श, या किसी आत्मीय क्षण में — तो क्या वहाँ ईश्वर नहीं प्रकट हो सकता? यही दृष्टिकोण जीवन की समग्रता को दर्शाता है: चेतना, श्रद्धा, और भाव का समन्वय ही सच्चे आध्यात्मिक अनुभव की नींव है।
जब तक हम केवल बाहरी प्रतीकों से चिपके रहेंगे, तब तक जीवन की आध्यात्मिकता केवल अनुष्ठान बनकर रह जाएगी। परंतु जब हम भाव की महत्ता को समझने लगते हैं, तब हर कर्म, हर संबंध, हर स्पर्श में दिव्यता की अनुभूति संभव हो जाती है। यही भाव है जो मूर्त को अमूर्त से जोड़ता है, दृश्य को अदृश्य के निकट लाता है।