श्लोक ०८-११

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
काष्ठपाषाणधातूनां कृत्वा भावेन सेवनम् ।
श्रद्धया च तथा सिद्धिस्तस्य विष्णुप्रसादतः ॥ ॥०८-११॥
लकड़ी, पत्थर और धातुओं का भावपूर्वक सेवन करने पर, और श्रद्धा सहित उसे अपनाने पर, उसकी सिद्धि विष्णु की कृपा से होती है।

किसी पदार्थ की बाह्य संरचना—जैसे लकड़ी, पत्थर, या धातु—उसकी आध्यात्मिक या लौकिक उपयोगिता को स्वतः नहीं निर्धारित करती। किसी मूर्ति या प्रतीक को शक्ति प्राप्त होती है भाव और श्रद्धा के माध्यम से, न कि केवल उसके भौतिक तत्त्वों से। यही भाव है जो निर्जीव में भी जीवन संचार करता है, और यही श्रद्धा उसे साधना योग्य बना देती है।

यह धारणा केवल धार्मिक संदर्भों में नहीं, बल्कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लागू होती है। किसी वस्तु, व्यक्ति या क्रिया को अर्थ, उद्देश्य और शक्ति तब मिलती है जब उसके प्रति आंतरिक भाव जुड़ा हो। केवल दिखावटी क्रियाएँ—चाहे वे पूजा हो या कर्मकांड—तब तक निष्फल रहती हैं जब तक उनमें श्रद्धा और आस्था का भाव न हो।

मूर्ति पूजा को मूर्खता कहने वाले अक्सर यह नहीं समझते कि यह मूर्ति स्वयं में पूज्य नहीं होती, बल्कि उसमें अंतर्निहित भाव, प्रतीक और समर्पण ही उसे शक्ति प्रदान करते हैं। एक साधारण पत्थर का टुकड़ा तब पूज्य बनता है जब उसके साथ मनुष्य की श्रद्धा जुड़ती है—और यह श्रद्धा ही उसे ईश्वर का प्रतिनिधि बनाती है। यही कारण है कि अलग-अलग साधक एक ही वस्तु को भिन्न दृष्टिकोण से देखते हैं—क्योंकि उनका भाव और श्रद्धा भिन्न होती है।

श्रद्धा मात्र विश्वास नहीं, बल्कि संपूर्ण चेतना की भागीदारी है। जब मन, बुद्धि, और आत्मा किसी उद्देश्य के साथ एकरूप हो जाते हैं, तब जो सामान्य प्रतीत होनेवाली वस्तुएँ भी असामान्य फल देती हैं। यही सिद्धि की भूमि है—जहाँ विष्णु की कृपा केवल बाह्य पूजा से नहीं, बल्कि भीतरी भावनात्मक समर्पण से प्राप्त होती है।

जीवन के अन्य आयामों में भी, यदि कोई व्यक्ति किसी छोटे कार्य को भी समर्पण और श्रद्धा से करता है, तो उसका प्रभाव गहरा और दीर्घकालिक होता है। एक शिक्षक का पाठ पढ़ाना, एक चिकित्सक का उपचार करना, या एक किसान का हल चलाना—यदि वे केवल कर्तव्य नहीं, बल्कि भावपूर्ण सेवा बन जाएँ—तो वे साधना बन जाते हैं।

कर्म को साधना में बदलने का मूल रहस्य इसी भाव में निहित है। बिना भाव के उच्च से उच्च कर्म भी यंत्रवत् हो जाते हैं, और भावयुक्त छोटे से छोटा कर्म भी परम फल प्रदान करता है। यही अंतर है एक मशीन और एक साधक में। जहाँ मशीन केवल क्रिया करती है, वहाँ साधक अपने सम्पूर्ण अस्तित्व से कर्म को अर्थवान बनाता है।