न भावेन विना सिद्धिस्तस्माद्भावो हि कारणम् ॥ ॥०८-१०॥
धार्मिक अनुष्ठान, कर्मकांड, और लौकिक क्रियाएँ जब केवल बाह्य रूप से निभाई जाती हैं और उनके मूल भाव से वंचित होती हैं, तब वे मात्र आडंबर बनकर रह जाती हैं। अग्निहोत्र का उद्देश्य केवल यज्ञीय अग्नि में सामग्री डालना नहीं है, बल्कि वह एक आंतरिक समर्पण और अग्नि रूप आत्मा के प्रति श्रद्धा का प्रतीक है। इसी प्रकार, दान की क्रिया बिना सद्भाव और निष्कामता के एक सौदे की तरह हो जाती है — जहाँ देने वाला कुछ पाने की अपेक्षा करता है। यह कर्म नहीं, वाणिज्य बन जाता है।
वेद, दान, यज्ञ या किसी भी अनुष्ठान की पूर्णता केवल तभी होती है जब उसके मूल में सच्चा भाव — श्रद्धा, समर्पण, निस्वार्थता और अंतःकरण की शुद्धि — उपस्थित हो। भाव रहित कर्म केवल यंत्रवत क्रियाएँ हैं, जिनमें चेतना का अभाव होता है। जिस प्रकार कोई दीपक केवल तेल और बाती से नहीं जलता जब तक उसमें अग्नि न हो, उसी प्रकार कोई भी आध्यात्मिक या सामाजिक कर्म केवल प्रक्रिया से फलदायक नहीं हो सकता जब तक उसमें भाव न हो।
भाव वह अदृश्य तत्व है जो एक सामान्य क्रिया को साधना में परिवर्तित करता है। यह अंतर है उसी क्रिया के दो रूपों में — एक सामान्य और एक दिव्य। भाव ही वह कारक है जो ईश्वर को आकर्षित करता है, समाज को स्पर्श करता है, और आत्मा को शुद्ध करता है। इसी भाव से ही पूजा प्रभावी होती है, सेवा सार्थक होती है, और त्याग तप में बदल जाता है।
जब व्यक्ति केवल नियमों का पालन करता है, परंतु हृदय उसमें नहीं जुड़ता, तब कर्म अधूरा रह जाता है। समाज में ऐसे अनेकों उदाहरण मिलते हैं जहाँ लोग पूजा-पाठ, दान, व्रत, यज्ञ आदि करते हैं, परंतु जीवन में कोई आंतरिक परिवर्तन नहीं आता — कारण यह कि भाव अनुपस्थित होता है। भाव के बिना सब कुछ केवल रूप और आडंबर रह जाता है।
यह तथ्य केवल धार्मिकता तक सीमित नहीं है; जीवन के हर क्षेत्र में लागू होता है। प्रेम में यदि भाव न हो, तो वह अनुबंध बन जाता है। सेवा में यदि भाव न हो, तो वह नौकरी बन जाती है। शिक्षा में यदि भाव न हो, तो वह केवल परीक्षा की तैयारी बन जाती है।
इसलिए, कर्म का मूल्य उसके विधानों में नहीं, बल्कि उसमें निहित भावना में है। भाव ही वह यथार्थ शक्ति है जो निर्जीव क्रिया में जीवन का संचार करती है। जहाँ भाव है, वहाँ साधारण कार्य भी असाधारण फल देते हैं।