श्लोक ०८-१४

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
क्रोधो वैवस्वतो राजा तृष्णा वैतरणी नदी।
विद्या कामदुधा धेनुः संतोषो नन्दनं वनम्॥ ॥८-१४॥
क्रोध वैवस्वत यमराज के समान है, तृष्णा वैतरणी नदी के समान है। विद्या कामधेनु गाय के समान है और संतोष नन्दन वन के समान है।

क्रोध, तृष्णा, विद्या और संतोष — ये चारों मनुष्य के जीवन में निर्णायक प्रभाव डालते हैं, परंतु इनके अर्थ, स्वरूप और परिणाम भिन्न हैं। क्रोध, जब अविवेक में परिणत होता है, तो वह किसी नरक-द्वारपाल की भूमिका निभाता है। 'वैवस्वत' यमराज का पर्याय है, जो मृत्यु का दंडाधिकारी है। क्रोध मनुष्य के विवेक को नष्ट कर देता है और उसे ऐसे निर्णय लेने पर विवश करता है जो न केवल उसे अपयश की ओर ले जाते हैं, बल्कि आत्मविनाश के द्वार खोल देते हैं। क्रोध किसी क्षणिक उत्तेजना में स्थायी दंड का बीज बो देता है। एक क्रुद्ध व्यक्ति स्वयं के नियंत्रण में नहीं होता — वह न्याय, धर्म, और विवेक तीनों से च्युत हो जाता है।

तृष्णा की तुलना वैतरणी नदी से की गई है — वह नदी जो मृत्युपरांत यमलोक की यात्रा में आत्मा के लिए एक बाधा मानी जाती है। तृष्णा कभी तृप्त नहीं होती; यह एक ऐसी नदी है जिसे पार करना असंभव लगता है, क्योंकि यह निरंतर बहती रहती है और उसमें डूबे व्यक्ति को बार-बार खींच लेती है। यह मन को उद्विग्न, अस्थिर और असंतोषग्रस्त बनाती है। तृष्णा केवल भौतिक वस्तुओं की नहीं होती; मान, प्रतिष्ठा, सत्ता, सम्मान, प्रेम — हर स्तर पर यह विस्तार पाती है। इसकी प्रवृत्ति यह है कि यह जितना मिलता है, उतनी ही तीव्रता से और माँग उत्पन्न करती है। इसलिए तृष्णा में फंसा व्यक्ति स्वयं को कभी पूर्ण नहीं अनुभव करता, वह सदैव कुछ और चाहता है, और अंततः अपनी आत्मा की शांति खो बैठता है।

इसके विपरीत, विद्या की तुलना कामधेनु गाय से की गई है। कामधेनु वह दिव्य गाय है जो इच्छित फल देती है। विद्या भी ऐसा ही साधन है, जो साधक को अनंत फल देती है — केवल भौतिक सफलता नहीं, अपितु आंतरिक परिपक्वता, दृष्टिकोण की व्यापकता, निर्णय की शक्ति, और आत्म-साक्षात्कार की दिशा भी। विद्या कोई सीमित संसाधन नहीं; यह जितनी बाँटी जाए, उतनी ही बढ़ती है। एक सच्चा विद्वान कभी संकीर्ण नहीं होता, क्योंकि वह जानता है कि विद्या का मूल्य केवल अर्जन में नहीं, बल्कि उसके सदुपयोग और प्रसार में है।

अंत में संतोष की तुलना नन्दनवन से की गई है — वह स्वर्गीय उपवन जो सुख, शांति और आनंद का प्रतीक है। संतोष ही वह स्थिति है जहाँ मन बाह्य परिस्थितियों से स्वतंत्र होकर आंतरिक संतुलन को प्राप्त करता है। संतोष का अर्थ आलस्य या प्रयासहीनता नहीं है; इसका अभिप्राय है — जो कुछ प्राप्त है, उसमें भी पूर्णता और आनंद का अनुभव करना। संतोषी व्यक्ति ना तो तृष्णा से ग्रस्त होता है, ना ही क्रोध की अग्नि में जलता है। वह विद्या को अर्जित कर, अपने जीवन को संयमित और सुसंतुलित बनाता है।

मानव जीवन की सबसे बड़ी विजय है — स्वयं के मन पर शासन। यह शासन तभी संभव है जब क्रोध का नियंत्रण, तृष्णा की उपेक्षा, विद्या का अर्जन और संतोष का अभ्यास किया जाए। ये चारों तत्त्व मिलकर जीवन को या तो नरक बना सकते हैं या स्वर्ग — यह पूरी तरह इस बात पर निर्भर करता है कि हम किसे पोषित करते हैं और किसे नियंत्रित।