श्लोक ०७-०९

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
तुष्यन्ति भोजने विप्रा मयूरा घनगर्जिते ।
साधवः परसम्पत्तौ खलाः परविपत्तिषु ॥ ०७-०९
ब्रह्मा लोग भोजन में तृप्त होते हैं, मयूर भी गरजते हुए बादल में तृप्त होते हैं। साधु व्यक्ति परस्पर संपत्ति में तृप्त रहते हैं, पापी पर विपत्तियों में तृप्त होते हैं।

यह श्लोक व्यवहार और मनोवृत्तियों का सूक्ष्म विवेचन करता है, जो नीति निर्माण और समाजशास्त्र की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यहाँ चार भेद स्पष्ट किए गए हैं - भोजन में तृष्णा, स्वभावगत व्यवहार, परस्पर संपत्ति, और विपत्तियों में तुष्टि।

पहला भाग "तुष्यन्ति भोजने विप्रा" दर्शाता है कि विद्वान या ज्ञानी व्यक्ति अपने भोजन से तृप्त होते हैं, अर्थात् वे लालच से परे होकर संतोषी होते हैं। यह भोजन की शारीरिक तृप्ति ही नहीं, बल्कि जीवन में साधारण वस्तुओं से संतोष और आत्मसंतुष्टि का भाव है। मयूरा की तरह, जो गरजते हुए बादल में आनंद पाता है, इसका आशय है कि जैसे प्रकृति के नियमों के अनुसार मयूर को गरजते बादलों में आनंद मिलता है, उसी प्रकार ज्ञानी भी साधारण भोजन में संतुष्ट रहते हैं।

दूसरा भाग "साधवः परसम्पत्तौ" दर्शाता है कि सद्गुणी और सज्जन व्यक्ति दूसरों की संपत्ति में तुष्ट रहते हैं, वे स्वार्थहीन होते हुए भी दूसरों के भले से प्रसन्न होते हैं। यह गुण सामाजिक सद्भाव और पारस्परिक सहयोग की नींव है।

तीसरा भाग "खलाः परविपत्तिषु" विपरीत चरित्र को दर्शाता है। अधर्मी, दुष्ट और लोभी व्यक्ति विपत्तियों में ही तुष्टि खोजते हैं। इसका अर्थ है कि वे दूसरों की दुर्दशा, संकट और विपत्ति में ही अपना हित समझते हैं या खुश होते हैं, जो सामाजिक और नैतिक पतन का सूचक है।

यह श्लोक मनुष्यों के स्वभावों के भेद को स्पष्ट करते हुए नैतिकता, संतोष, और समाजिक व्यवहार के मध्य संबंध स्थापित करता है। नीति निर्धारण में इस प्रकार के विवेचन से समझ आता है कि कैसे व्यक्तियों के स्वभाव और सामाजिक परिस्थिति से उनका व्यवहार प्रभावित होता है।

इस संदर्भ में, आचार्य कौटिल्य की चाणक्यनीति में यह श्लोक नीति और व्यवहार की गहन समझ प्रदान करता है, जो शासन, सामाजिक अनुशासन और व्यक्तिगत चरित्र विकास के लिए मार्गदर्शक है।