त्रिषु चैव न कर्तव्योऽध्ययने जपदानयोः ॥ ०७-०४
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि किन क्षेत्रों में सन्तोष को गुण माना गया है और किन क्षेत्रों में यह बाधक बनता है। नीति और व्यवहार के क्षेत्र में यह समझ अत्यंत आवश्यक है कि जीवन के किस पक्ष में संतोष से सुख और संतुलन प्राप्त होता है और किस पक्ष में यह व्यक्ति की प्रगति में बाधा बनता है।
चाणक्य यहां तीन ऐसी बातों की चर्चा करते हैं, जिनमें संतोष रखना आवश्यक और वांछनीय है: स्वदारे (अपनी पत्नी), भोजने (भोजन में) और धने (धन में)। इन तीनों में संतोष का अभाव व्यक्ति को अनावश्यक इच्छाओं और भटकाव की ओर ले जा सकता है। पत्नी के संदर्भ में असंतोष परिवार और समाज की मर्यादाओं को खंडित कर सकता है; भोजन में असंतोष स्वास्थ्य और संयम दोनों के लिए हानिकर है; और धन में असंतोष व्यक्ति को लोभी बनाकर नैतिक पतन की ओर ले जाता है।
दूसरी ओर, तीन क्षेत्र ऐसे बताए गए हैं जहां संतोष वांछनीय नहीं है: अध्ययने (ज्ञान का अध्ययन), जप (जप - मंत्रों या नामस्मरण की साधना), और दान (दान - परोपकार)। इन क्षेत्रों में असंतोष व्यक्ति को निरंतर प्रगति के पथ पर प्रेरित करता है। अध्ययन में संतोष ज्ञान की वृद्धि को रोक देता है; जप में संतोष साधक की आंतरिक उन्नति को सीमित करता है; और दान में संतोष समाज में दायित्वों से पलायन का कारण बन सकता है।
चाणक्य का यह संतुलन बहुत सूक्ष्म और गूढ़ है। वे न तो हर स्थिति में संतोष को गुण मानते हैं और न ही हर स्थिति में उसकी निंदा करते हैं। इसका मूल संदेश यही है कि कर्म और विचार की दिशा के अनुसार ही संतोष या असंतोष का चयन करना चाहिए। यह श्लोक नीति, धर्म और व्यावहारिक जीवन के बीच संतुलन स्थापित करने की एक अद्वितीय झलक प्रस्तुत करता है।