न च तद्धनलुब्धानामितश्चेतश्च धावताम् ॥ ०७-०३
यह श्लोक आचार्य चाणक्य की उस गूढ़ दृष्टि को दर्शाता है जो भोग और संतोष के बीच के सूक्ष्म अंतर को पहचानती है। इसमें जीवन के एक अत्यंत गहन सत्य को उजागर किया गया है—संतोष की भावना ही सुख और shanti का मूल है।
सन्तोष को यहाँ अमृत कहा गया है, जो कि मृत्यु पर विजय दिलाने वाला दिव्य तत्व माना गया है। चाणक्य के अनुसार, जिसने संतोष के इस अमृत को ग्रहण कर लिया है, वही सच्चे सुख और shanti को प्राप्त करता है। यह स्थिति केवल बाह्य वस्तुओं की उपलब्धता से नहीं आती, बल्कि आंतरिक परिपूर्णता से उत्पन्न होती है। संतोषी व्यक्ति की चित्तवृत्ति स्थिर रहती है, और वह जीवन के हर क्षण में स्थायीत्व, सहजता और आत्मिक तृप्ति अनुभव करता है।
इसके विपरीत, जो धन के प्रति लोभी हैं—dhanalubdha—उनका चित्त सदा चंचल रहता है। वे निरंतर किसी न किसी दिशा में दौड़ते रहते हैं, कभी इस अवसर की तलाश में, कभी उस लाभ की आकांक्षा में। इस अंतहीन दौड़ में उन्हें क्षणिक उत्तेजना या आभासी सुख तो मिल सकता है, किंतु सच्चा सुख और shanti उनसे सदैव दूर बनी रहती है।
यहाँ ‘इतर-इतर’ स्थानों की ओर दौड़ते चित्त का उल्लेख करके उस मानसिक अशांति को इंगित किया गया है, जो इच्छाओं की अतृप्ति से उत्पन्न होती है। यह केवल भौतिक संपन्नता का विषय नहीं है, बल्कि मन की भूख और उसकी अतृप्त प्रवृत्ति का परिचायक है।
यह श्लोक समकालीन जीवन की वास्तविकताओं पर भी प्रकाश डालता है। आज की उपभोक्तावादी संस्कृति में जहाँ अधिक संग्रह को ही सफलता माना जाता है, वहाँ यह नीति-सूक्ति यह चेतावनी देती है कि वास्तविक सुख बाह्य साधनों में नहीं, बल्कि आंतरिक संतोष में निहित है।
इस श्लोक की विशेषता यह भी है कि यह किसी धार्मिक उपदेश की तरह नहीं, बल्कि एक मनोवैज्ञानिक यथार्थ की तरह प्रस्तुत हुआ है—जैसे कि कोई अनुभवी जीवन-दर्शी व्यक्ति हमें बता रहा हो कि शांति की कुंजी संग्रह में नहीं, संतोष में है।