आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत् ॥ ०७-०२
इस श्लोक में आचार्य कौटिल्य ने सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के चार ऐसे क्षेत्र बताए हैं जहाँ अत्यधिक संकोच या लज्जा का त्याग करना आवश्यक माना गया है — धन और अन्न का प्रयोग, विद्या का अर्जन, भोजन और व्यवहार। ये सभी मानव जीवन के बुनियादी स्तंभ हैं।
प्रथम, धन और अन्न का प्रयोग — यदि कोई व्यक्ति संकोचवश अपने पास उपलब्ध संसाधनों का प्रयोग नहीं करता, तो वह न केवल स्वयं कष्ट भोगता है, बल्कि वह अपने परिवार या समाज को भी उस संसाधन से वंचित करता है। अन्न और धन का संचय केवल संग्रह के लिए नहीं, बल्कि सदुपयोग के लिए होता है। यहाँ लज्जा का अर्थ उस झिझक या मानसिक रुकावट से है जो व्यक्ति को उसका उपयोग करने से रोकती है।
द्वितीय, विद्या का संग्रह — विद्या प्राप्त करते समय यदि व्यक्ति झिझकता है या लज्जा के कारण प्रश्न नहीं करता, सीखता नहीं, तो वह ज्ञान से वंचित रह जाता है। यहाँ यह शिक्षा दी जा रही है कि विद्यार्थी को जिज्ञासु और निर्भीक होना चाहिए, भले ही दूसरों को उसके प्रश्न सामान्य या अपरिपक्व लगें। विद्या की प्राप्ति में संकोच बाधा है।
तृतीय, आहार — भोजन एक सामान्य और आवश्यक क्रिया है। यदि कोई व्यक्ति सामाजिक संकोच या दिखावे के कारण अपनी भूख को दबाता है, या आवश्यकता होने पर भी भोजन नहीं करता, तो वह स्वयं को शारीरिक और मानसिक रूप से नुकसान पहुँचाता है। यहाँ यह संकेत है कि आवश्यकता पड़ने पर भोजन लेने में संकोच नहीं करना चाहिए।
चतुर्थ, व्यवहार — सामाजिक या व्यक्तिगत व्यवहार में स्पष्टता और निर्भीकता आवश्यक है। यदि व्यक्ति लज्जा के कारण संवाद नहीं करता, अपने विचार या आवश्यकताएँ प्रकट नहीं करता, तो वह न केवल अपने लिए, बल्कि अपने संबंधों के लिए भी समस्या उत्पन्न करता है। व्यवहार में लज्जा त्यागने का तात्पर्य असभ्यता से नहीं, बल्कि आत्मविश्वास और स्पष्टता से है।
इस प्रकार, यह श्लोक यह स्पष्ट करता है कि जहाँ अधिकांश लोग लज्जा को सद्गुण मानते हैं, वहीं कुछ स्थानों पर उसका त्याग ही कल्याणकारी होता है। कौटिल्य की दृष्टि में विवेकपूर्ण निर्लज्जता (जहाँ उचित हो) सुख का कारण बनती है।