इक्षौ गुडं तथा देहे पश्यात्मानं विवेकतः ॥ ०७-२१॥
शरीर का स्वरूप एवं जीवन में विवेक के स्थान का विवेचन। पुष्प, तिल, काष्ठ, पयः, इक्षु, ये सभी भौतिक पदार्थ हैं जिनमें कुछ विशिष्ट गुण छिपे होते हैं। पुष्प में गन्ध की उपस्थिति से तात्पर्य है कि प्रत्येक वस्तु में उसकी पहचान और गुण होते हैं। तिल में तेल, लकड़ी में अग्नि, दूध में घृत तथा गन्ने में गुड़ होने की व्याख्या से प्राकृतिक तत्वों में अन्तर्निहित गुणों की व्याख्या होती है। इसी प्रकार शरीर में 'विवेक' या बुद्धि का होना अत्यावश्यक माना गया है। विवेक, जो आत्मज्ञान और स्पष्ट चिन्तन की शक्ति है, वह जीवन के अनिवार्य अंग के समान है।
यहाँ विवेक को शरीर के भीतर एक ऐसी तत्व के रूप में दर्शाया गया है, जो आत्मा के निकटतम और प्रत्यक्ष अनुभूति का माध्यम है। अन्य पदार्थों की भाँति शरीर का भी कोई सार्थक अस्तित्व तभी होता है जब उसमें विवेक का प्रकाश हो। विवेक के बिना शरीर मात्र एक निर्जीव वस्तु के समान है। अतः, विवेक का अस्तित्व जीवितता, चेतना और आत्मसाक्षात्कार के लिए अनिवार्य है।
चाणक्यनीति के इस श्लोक में, जीवन के आधारभूत तत्वों का ध्यानपूर्वक अध्ययन कर यह सिद्ध होता है कि प्रत्येक वस्तु में उसकी विशिष्टता होती है और उसी प्रकार मानव जीवन में विवेक की अनिवार्यता सर्वोपरि है। विवेक का आदान-प्रदान तथा इसका जागरूक होना मनुष्य को सही दिशा में ले जाता है। श्लोक इस बात पर भी संकेत करता है कि आत्मसाक्षात्कार और बुद्धि की स्पष्टता ही मनुष्य के कल्याण का मूल है।
इस दार्शनिक दृष्टिकोण से, विवेक का सजीवता में वह स्थान है जो प्राकृतिक तत्वों में अंतर्निहित गुणों के समान है। यह श्लोक न केवल जीवन और प्रकृति के तत्वों के समन्वय को उजागर करता है, बल्कि यह भी संकेत करता है कि विवेक का विकास एवं संरक्षण ही मनुष्य को स्थिरता, स्थायित्व एवं सफलता प्रदान करता है।