श्लोक ०७-२०

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
वाचां शौचं च मनसः शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
सर्वभूतदयाशौचमेतच्छौचं परार्थिनाम् ॥ ०७-२०
वाणी का शौच तथा मन का शौच और इन्द्रियों का नियंत्रण शौच है |
सर्वभूतों के प्रति दया का शौच यही वह शौच है जो परोपकारियों के लिए होता है |

यह श्लोक व्यवहार और आत्मशुद्धि के बीच गहरे संबंध को रेखांकित करता है। यहाँ 'शौच' का अर्थ केवल बाहरी स्वच्छता से नहीं है, बल्कि आंतरिक शुद्धि से है। वाणी का शौच अर्थात् सचेत और शिष्टाचारपूर्ण बोलना, जिससे न तो किसी को आघात हो और न ही असत्यता फैलती हो। मन का शौच मानसिक शुद्धता, अर्थात् कलुषता, द्वेष और असंयम से रहित होना है। इन्द्रियनिग्रह अर्थात् इन्द्रियों का संयम, जो अनावश्यक और वासना-प्रधान प्रवृत्तियों को नियंत्रित करता है।

अधिक महत्वपूर्ण है 'सर्वभूतदयाशौच' - सभी प्राणियों के प्रति करुणा और दया का भाव। यह भाव व्यक्ति को परोपकारी और सामाजिक रूप से संवेदनशील बनाता है। दया का यह शौच केवल बाह्य दिखावे के लिए नहीं, बल्कि अंतरमन से आता है और इसी को श्लोक 'शौचं परार्थिनाम्' कहता है, जिसका अर्थ है कि यह शुद्धता परोपकार करने वालों में होती है।

श्लोक का तात्पर्य है कि बाह्य शुद्धि के साथ-साथ आंतरिक शुद्धि आवश्यक है, जो कि वाणी, मन और इन्द्रियों के संयम और करुणा के द्वारा संभव होती है। यह दृष्टिकोण चाणक्यनीति के समग्र नैतिक सिद्धांतों के अनुरूप है, जो व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार की स्वच्छता पर बल देता है।

इस प्रकार, इस श्लोक में शौच का अर्थ केवल शारीरिक स्वच्छता से नहीं, बल्कि मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक स्तर पर शुद्धता से है, जो जीवन में सच्चे अनुशासन और सामाजिक सद्भाव की नींव रखती है।