श्लोक ०७-१७

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
अत्यन्तकोपः कटुका च वाणी दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम् ।
नीचप्रसंगः कुलहीनसेवा चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम् ॥ ०७-१७
अत्यंत क्रोधित होना, तीव्र और कटु वाणी बोलना तथा अपने स्वजनों में वैरभाव रखना।
नीच प्रकार के प्रसंग में पड़ना और कुलहीन सेवा करना नरक में रहने वालों के शरीर पर बने चिन्हों के समान हैं।

यह श्लोक चाणक्यनीति दर्पण के सप्तम अध्याय का सत्रहवाँ श्लोक है, जो मानव व्यवहार और संबंधों के नकारात्मक पहलुओं पर प्रकाश डालता है। यहाँ श्लोक में मुख्यतः पाँच दोषों का उल्लेख है जो व्यक्ति को और उसके सामाजिक और पारिवारिक जीवन को विनष्ट कर देते हैं।

अत्यन्तकोपः का अर्थ है अत्यधिक क्रोध, जो मनुष्य के विवेक और संयम को नष्ट कर देता है। अत्यधिक क्रोध से व्यक्ति का व्यक्तित्व कठोर और विनाशकारी बन जाता है।

कटुका वाणी

दरिद्रता स्वजनेषु वैरम्

नीचप्रसंगः

कुलहीनसेवा

संक्षेप में, यह श्लोक व्यक्ति को अत्यंत क्रोध, कठोर वाणी, स्वजनों में वैर, नीच प्रसंग और कुलहीन सेवा से बचने की चेतावनी देता है क्योंकि ये सभी गुण नरक में निवास करने वालों के समान दंड और अपमान का कारण बनते हैं।

चाणक्यनीति के इस सन्दर्भ में, सामाजिक और पारिवारिक संबंधों की रक्षा के लिए संयम, सद्वाणी, प्रेम और सम्मान आवश्यक हैं। ये दोष न केवल व्यक्ति का नुकसान करते हैं, बल्कि समाज के स्थायित्व को भी कमजोर करते हैं। इसलिए इनसे दूर रहना और इनके स्थान पर सदाचार और संयम अपनाना अत्यंत आवश्यक माना गया है।