यस्यार्थाः स पुमाँल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः ॥ ०७-१५
यह श्लोक व्यवहार और सामाजिक संबंधों के स्वरूप को सूक्ष्म रूप से समझाता है। इसमें 'स्वार्थ' और 'परस्वार्थ' के आधार पर मनुष्य के सामाजिक रिश्तों और उसकी बुद्धिमत्ता का विवेचन किया गया है।
पहली पंक्ति कहती है कि जिन लोगों के अपने स्वयं के लाभ, स्वार्थ, इच्छाएँ और उद्देश्य होते हैं, उनके मित्र होते हैं। मित्रता स्वार्थ पर आधारित हो सकती है, जहाँ व्यक्ति अपने हितों के अनुसार मित्र चुनता है। दूसरी पंक्ति कहती है कि जिनके परस्वार्थ, यानी दूसरों के हितों की चिंता और देखभाल होती है, उनके बान्धव (परिजन, रिश्तेदार) होते हैं। बान्धवता स्वार्थ से ऊपर उठकर परस्पर सहयोग, सद्भावना और सहानुभूति पर आधारित होती है।
तीसरी पंक्ति में 'पुरुष' का अर्थ केवल शरीर वाला पुरुष नहीं, बल्कि वह व्यक्ति है जो अपने स्वार्थ को समझता और पहचानता है। वह अपने हितों की पूर्ति के लिए कार्य करता है। चौथी पंक्ति में बताया गया है कि 'पण्डित' वही है जो स्वार्थ से ऊपर उठकर दूसरों के हितों को भी समझता है और उनके लिए कार्य करता है। पण्डितता का अर्थ केवल ज्ञान होना नहीं, बल्कि व्यवहारिक बुद्धि और सामाजिक समझदारी भी है।
यह श्लोक समाज में मानव संबंधों के दो स्तरों को परिभाषित करता है: स्वार्थ पर आधारित संबंध और परस्वार्थ पर आधारित संबंध। स्वार्थ से जुड़ी मित्रता संकीर्ण होती है जबकि परस्पर हितों पर आधारित बान्धवता व्यापक और गहरी होती है। यही जीवन में वास्तविक बुद्धिमत्ता की निशानी है कि व्यक्ति केवल अपने स्वार्थ में न फंसे बल्कि दूसरों के हितों का भी ध्यान रखे।
श्लोक का यह संदेश आज के सामाजिक और व्यावसायिक जीवन में भी उतना ही प्रासंगिक है। जहाँ मित्रता और रिश्ते केवल स्वार्थ के आधार पर बने हों, वहाँ स्थायित्व कम होता है; परंतु जहाँ रिश्तों में परस्पर सम्मान और सहयोग हो, वहाँ वह संबंध अधिक मजबूत और विश्वसनीय बनते हैं।