तडागोदरसंस्थानां परीवाह इवाम्भसाम् ॥ ०७-१४
यह श्लोक कौटिल्य के नीति-संग्रह चाणक्यनीति दर्पण के सातवें अध्याय का चौदहवाँ सूत्र है। इसमें धन-प्रबंधन की एक महत्वपूर्ण नीति प्रस्तुत की गई है। उपार्जित धन का संरक्षण त्याग के द्वारा ही संभव है। यह बिंदु अत्यंत गहन है क्योंकि धन की रक्षा केवल उसे सहेजने या बढ़ाने में नहीं, बल्कि अनावश्यक वस्तुओं या खर्चों से त्याग करने में निहित है।
श्लोक में उपार्जित धन से तात्पर्य वह धन है जो व्यक्ति ने परिश्रम और विवेक से प्राप्त किया है। इसे सुरक्षित रखना जीवन की प्रगति के लिए अनिवार्य है। परंतु संरक्षण का अर्थ यहाँ केवल संचय नहीं, बल्कि आवश्यकता के अनुसार त्याग करने से है। धन का अनावश्यक भोग या उसके साथ लगाव विनाशकारी हो सकता है।
तडागोदरसंस्थानाम् — यहाँ तडाग और उदर दोनों जलाशयों के समान स्थलों की बात हो रही है, जहाँ जल (अर्थात् धन) का प्रवाह प्राकृतिक रूप से होता है। जैसे जलाशय के जल का प्रवाह प्रवाहमान रहता है और जमे नहीं रहते, उसी प्रकार धन का प्रवाह भी आवश्यक है। अतः धन का त्याग या उसके प्रवाह को रोकना नहीं, बल्कि विवेकपूर्ण उपयोग करना ही सच्ची रक्षा है। जल को जब वह अजीवित हो जाता है, अर्थात् स्थिर रह जाता है, तो वह गंधयुक्त और अनुपयोगी हो जाता है। उसी प्रकार यदि धन को नित्य प्रवाहित नहीं किया जाए, तो उसका मूल्य घटता है।
इस श्लोक की शिक्षा यह है कि धन की रक्षा के लिए उसे बिना किसी लाभ के संग्रहित या जमींदारी न बनाना चाहिए, बल्कि उसका विवेकपूर्ण और नियन्त्रित त्याग करना चाहिए। यह नीति आर्थिक बुद्धिमत्ता और जीवन प्रबंधन के लिए अत्यंत आवश्यक है।