स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते॥ ॥९॥
स्वयं ही संसार में भ्रमण करता है, और स्वयं ही उससे मुक्त भी होता है।
यह बोध गहराई से उस दर्शन को उद्घाटित करता है जिसमें आत्मा को एक स्वतंत्र, स्वविकसित सत्ता के रूप में देखा गया है। कर्म के सिद्धान्त को केवल नैतिक दायित्व अथवा सामाजिक प्रतिबद्धता के स्तर पर नहीं, अपितु अस्तित्वगत स्वराज्यता के रूप में निरूपित किया गया है। आत्मा न तो किसी और की प्रेरणा से कर्म करती है, न ही किसी बाह्य सत्ता द्वारा अपने कर्मफल को प्राप्त करती है—यह स्वतः अपने नियन्ता के रूप में प्रतिष्ठित है।
ऐसा प्रतिपादन इस धारणा के विपरीत खड़ा होता है जो मानवजीवन की दशाओं का उत्तरदायित्व देवता, भाग्य अथवा परिस्थितियों पर आरोपित करता है। यह दृश्य एक प्रकार की नैतिक निर्भीकता उत्पन्न करता है—कि जीव जो कुछ अनुभव करता है, वह उसके ही कार्यों का प्रतिफल है।
‘स्वयं भ्रमति संसारे’ — यह अंश, बंधन की संकल्पना को भी स्वयं-प्रेरित मानता है। यह भ्रमण, केवल भौगोलिक न होकर, चित्तवृत्तियों, वासनाओं, और अविद्या में रचित उस चक्र का द्योतक है जिसमें जीव स्वयं ही प्रवेश करता है। यह कोई आरोपित यंत्रणा नहीं, बल्कि जीव की स्वयं निर्मित अनवबोधनात्मक गति है।
किन्तु, यही आत्मा ‘स्वयं तस्माद्विमुच्यते’ — जब वह विवेक, वैराग्य, और आत्मबोध के माध्यम से स्वयं को उसी चक्र से मुक्त करता है। मुक्त होना भी किसी बाह्य कृपा या रहस्यपूर्ण विधान का परिणाम नहीं, बल्कि अपने ही भीतरी रूपान्तरण का फल है। यह कथन समस्त ईश्वरवादी एवं भाग्यवाद-सापेक्ष दृष्टिकोणों पर एक तीव्र प्रकाश डालता है—कि मुक्ति न तो कोई दिव्य अनुग्रह है, न ही कोई दैविक रचना, बल्कि स्वयं आत्मा की स्वाधीन चेष्टा का परिणाम है।
यह निष्कर्ष मानव-जागरण के मूल में खड़ा है। जब तक व्यक्ति यह नहीं मानता कि वह स्वयं ही अपने बंधन का कारण है, तब तक वह अपनी स्वतंत्रता के हेतु प्रयास भी नहीं करता। और जब वह यह देख लेता है कि मुक्ति भी उसी की ही साधना से उपलब्ध होती है, तब उसे किसी अन्य पर दोषारोपण या कृपाप्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं रहती। यही अन्तर्दृष्टि आत्मजागरण की आधारशिला है।
यही विचार आधुनिक अस्तित्ववाद के ‘individual agency’ सिद्धान्त से भी प्रतिध्वनित होता है—जहाँ व्यक्ति अपने अर्थ, उत्तरदायित्व, और उद्देश्य का स्वनिर्माता है। यहाँ आत्मा न केवल नैतिक सत्ता है, बल्कि ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता—तीनों रूपों में एकीकृत है।
यथार्थ में, इस सूत्र का तात्त्विक सार यह है कि किसी भी मोक्ष या उत्कर्ष का मार्ग बाहर नहीं, भीतर है। और यदि बंधन भी स्वयंसे है, तो उसका उन्मोचन भी उसी ‘स्वयं’ से सम्भव है।