मदोन्मत्ता न पश्यन्ति अर्थी दोषं न पश्यति ॥ ॥८॥
दृष्टिहीनता केवल नेत्रों की अक्षमता नहीं, प्रत्युत एक गहन मनोवैज्ञानिक अवस्था का प्रतीक है। शारीरिक अंधता — जन्म से दृष्टिविहीन होना — वस्तुगत रूप से अवलोकन को असम्भव बनाता है। परन्तु कामान्धता, जिसमें व्यक्ति विषयवासना में ऐसा डूब जाता है कि यथार्थ का प्रत्यक्षदर्शन असंभव हो जाता है, यह एक मानसिक अंधता है — स्वेच्छया उपेक्षित विवेक। इसी प्रकार, मदोन्मत्तता में अहंकार व प्रमाद का ऐसा प्राबल्य होता है कि बाहर की कोई भी चेतावनी, निर्देश या संकेत निष्फल हो जाते हैं। वस्तुतः, मदयुक्त मनोवृत्ति आत्मपरावर्तन में डूबी होती है — वह केवल अपने को ही देखती है, बाकी सब अस्पष्ट या नगण्य हो जाता है। और जहाँ तक याचक की बात है, उसकी आकांक्षा की तीव्रता उसे सामने विद्यमान दोष या संकटों से भी विमुख कर देती है — उसे केवल लक्ष्य प्राप्ति की भूख रह जाती है, न कि साधनों की समीक्षात्मक परीक्षा।
यह विश्लेषण मनुष्य के निर्णय-प्रक्रिया को समझने के लिए अनिवार्य है। हम प्रतिदिन ऐसे अनेक निर्णय लेते हैं जहाँ बाह्यप्रेरणाएँ (काम, लोभ, मद, भय आदि) हमारी दृष्टि को विकृत करती हैं। यह विकृति मात्र दृष्टिकोण की नहीं, प्रत्युत आत्मसंयम व विवेक के लोप की सूचक होती है। व्यक्ति तब अपने लिए ही अंधा हो जाता है — न वह अपने भीतर की दुर्बलताओं को देख पाता है, न बाहर के संकटों को।
काम, मद, और लोभ— ये त्रिविध 'अंधताएँ' न केवल बौद्धिक संवेग को नष्ट करती हैं, अपितु सामाजिक सम्बन्धों को भी विकृत करती हैं। एक कामान्ध व्यक्ति न्याय नहीं कर सकता, एक मदोन्मत्त व्यक्ति नेतृत्व नहीं निभा सकता, और एक याचक अपनी आत्ममर्यादा की रक्षा नहीं कर सकता। यहां दोष को न देख पाना केवल कृत्य का निषेध नहीं है; यह अपने दायित्व से विमुखता का भी चिह्न है।
यदि अंधता केवल जन्म से होती, तो वह दैविक या जैविक नियति मानी जाती। परन्तु यहाँ अंधता एक स्वीकृत स्थिति है—एक ऐसी स्थिति जिसमें व्यक्ति जानबूझकर वास्तविकता से आँखें मूँद लेता है। यह चयनित अज्ञानता (wilful ignorance) मनुष्यता के संकट का मूल है।
दृष्टान्तरूपेण, यदि कोई जलते घर में प्रवेश करे, केवल इसलिए कि वहाँ उसे कोई प्रिय वस्तु दिखती है, तो वह अपने प्राण संकट में डालता है—इसी प्रकार वासना, मद, या लोभ के वशीभूत व्यक्ति भी अपने विवेक और हित की बलि चढ़ा देते हैं। वे दोष को देख नहीं पाते, क्योंकि देखना ही नहीं चाहते।
यह बोध केवल व्यक्तिगत स्तर पर ही नहीं, सामाजिक, राजनीतिक, व सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में भी लागू होता है। सत्ता में बैठा व्यक्ति यदि मदोन्मत्त हो जाए, न्यायाधीश यदि याचकवृत्ति से निर्णय दे, या शिक्षक यदि विषयवासना से प्रेरित हो—तो समस्त व्यवस्था ही अंधत्व से ग्रस्त हो जाती है।
ऐसे अंधत्व से उबरने का उपाय केवल बाह्य शिक्षा नहीं, बल्कि अन्तरात्मा की सजगता है। जिस क्षण व्यक्ति दोष को देखने की ईमानदार चेष्टा करता है, उसी क्षण वह अंधता का आवरण चीरता है।