श्लोक ०६-०७

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
कालः पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः ।
कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः ॥ ०६-०७
काल सब प्राणियों को पकाता है, काल ही प्रजाओं का संहार करता है। जब सब सोते हैं, तब काल जागता है; काल निःसंदेह अतिक्रमण से परे है।

काल का चिंतन मात्र भूतकाल, वर्तमान या भविष्य के साधारण व्याकरणात्मक रूपों तक सीमित नहीं है। यहाँ काल एक ऐसी तत्त्वशक्ति के रूप में उद्भासित होता है, जो सृजन, संरक्षण और संहार — इन त्रिविध प्रक्रियाओं का मूल है। न वह किसी के आने की प्रतीक्षा करता है, न ही किसी की उपस्थिति की आवश्यकता रखता है। उसकी गतिविधियाँ निरंतर, मौन और अजेय हैं। वह 'पचता' है, अर्थात् धीरे-धीरे रूपान्तरण करता है, समय के क्षरण में सबकुछ गलाकर नूतन रूप देता है। 'संहरति' — वह प्राणियों का संहार करता है, पर यह संहार केवल विनाश नहीं है, प्रत्युत पुनर्गठन की पूर्वपीठिका भी है।

जब सब 'सुप्त' होते हैं — नींद में, प्रमाद में, अज्ञान में — तब काल 'जागृत' रहता है। यह एक सशक्त उपमा है; काल किसी संज्ञात्मक मूर्ति की भाँति रात-दिन गतिविधिशील है, जबकि जीव अपने ही भ्रमों और काल्पनिक स्थायित्व में सोया रहता है। यह यथार्थ को न देखने की प्रवृत्ति भी है — मानो हमारी निष्क्रियता से समय ठहर जाएगा।

"दुरतिक्रमः" — यह एक अत्यंत विचारोत्तेजक पद है। जिसे पार नहीं किया जा सकता, न उपेक्षित किया जा सकता है, न हराया जा सकता है। मनुष्य जितना चाहे अपनी योजना बना ले, यथार्थ यह है कि काल ही निर्णायक है। चाहे वह मृत्यु का स्वरूप हो, या अवसर का संकेत — काल ही है जो सबके ऊपर है। यही कारण है कि कई परम्पराओं में काल को ब्रह्म के तुल्य माना गया है — वह जो नित्य है, सर्वगामी है, अपरिहार्य है।

समय का यह दर्शन केवल भयजनक नहीं, प्रत्युत सावधानिक है। यह प्रेरणा देता है कि जब काल इतना सजग है, तो क्या हम उसके साक्षात् पात्र बन पाने के लिए प्रयत्नशील हैं? क्या हम उस जागरण में भागीदार हैं, अथवा सुप्तप्रायः मात्र समय की लहरों में बहते अवचेतन प्राणी?