श्लोक ०६-१०

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
राजा राष्ट्रकृतं पापं राज्ञः पापं पुरोहितः ।
भर्ता च स्त्रीकृतं पापं शिष्यपापं गुरुस्तथा ॥ ॥१०॥
राजा, राष्ट्र के किए हुए पाप का भागी होता है; और राजा के पाप का दायित्व पुरोहित पर आता है। पति, पत्नी के किए हुए पाप का उत्तरदायी होता है, और शिष्य के पाप का दोष गुरु पर आता है।

उत्तरदायित्व की अवधारणा केवल व्यक्तिगत नैतिकता तक सीमित नहीं होती, अपितु वह सम्बन्धों, पदों और भूमिकाओं के बीच गहराई से व्याप्त रहती है। इस व्यवस्था में केवल कर्ता ही नहीं, अपितु वे सभी जो प्रभाव, निर्देशन, या संरक्षकत्व की स्थिति में हैं, वे भी दायित्व के दायरे में आते हैं।

राजा की स्थिति केवल शासन करने वाले व्यक्ति की नहीं है, बल्कि वह सम्पूर्ण राष्ट्र की चेतना, आचरण और न्याय का प्रतिनिधि है। अतः यदि राष्ट्र पापकर्म करता है—चाहे वह युद्ध, अन्याय, अथवा नागरिकों के कष्ट के रूप में हो—तो उसका दायित्व अन्ततः राजा पर आता है। यह दायित्व केवल नैतिक नहीं, दार्शनिक दृष्टिकोण से भी उसका आत्मबोझ है।

किन्तु राजा भी अकेला नहीं है; उसका विचार-निर्माण, नीति-निर्देशन और निर्णय कई बार पुरोहित या सलाहकारों के माध्यम से प्रभावित होता है। यदि राजा स्वयं पापकर्म करे, तो उसका उत्तरदायित्व उनपर भी आता है जिन्होंने उसे मार्गदर्शन दिया या मौन रहकर उसे अपराध में प्रवृत्त होने दिया। यहाँ मौन भी दोष का भागी बनता है।

गृहस्थ-जीवन में, पति और पत्नी के बीच पारस्परिक उत्तरदायित्व की बात कही गयी है। यदि पत्नी कोई पापकर्म करती है, तो उसका दायित्व पति पर आता है, क्योंकि वह उसका सहचर, मार्गदर्शक, और नियामक है। यह अभिप्राय पत्नी के स्वतन्त्र निर्णयों को नहीं नकारता, परन्तु उस समाज-संरचना को दर्शाता है जहाँ पति-स्त्री के कर्म आध्यात्मिकरूपेण परस्पर गुँथे होते हैं।

इसी प्रकार, गुरु—जो ज्ञान का प्रदाता और शिष्य के चित्त का संस्कारकर्ता है—यदि अपने शिष्य को उचित दिशा न दे, या उसके दुष्कर्मों से अनभिज्ञ बने रहे, तो वह दोष का भागी बनता है। गुरु का उत्तरदायित्व केवल उपदेश देने का नहीं, प्रत्युत शिष्य के आचरण को भी संवर्धित करने का है।

इन समस्त उदाहरणों से एक विचारधारा प्रकट होती है—कि समाज में कोई भी सम्बन्ध एकाकी नहीं होता। सत्ता, स्नेह, शिक्षा—इन सभी के क्षेत्र में उत्तरदायित्व बहुपदीय और बहुस्तरीय होता है। अधिकार जहाँ होता है, वहाँ दायित्व स्वतः ही स्थापित हो जाता है। यह विचार उन आधुनिक अवधारणाओं से भी गहनतर है, जहाँ उत्तरदायित्व को केवल कानूनी या सामाजिक स्तर पर देखा जाता है। यहाँ यह आध्यात्मिक व नैतिक आयाम में प्रतिष्ठित है।

इस तत्त्व को गहराई से समझने पर प्रश्न उठता है—कि हम किन कर्मों के लिए उत्तरदायी हैं, और किनके लिए नहीं? यदि हम किसी के जीवन में प्रभाव डालते हैं, तो क्या उसका प्रत्येक कर्म हमारे नैतिक क्षेत्र में आता है? या हमारी चुप्पी भी दोष की भागीदार बनती है? इन प्रश्नों में ही उस चेतना का बीज है जो व्यक्ति को केवल आत्मकेंद्रित दृष्टिकोण से मुक्त कर, सम्बन्धमूलक और उत्तरदायित्वपूर्ण दृष्टिकोण की ओर प्रेरित करती है।