ऋणकर्ता पिता शत्रुर्माता च व्यभिचारिणी ।
भार्या रूपवती शत्रुः पुत्रः शत्रुरपण्डितः ॥ ॥११॥
भार्या रूपवती शत्रुः पुत्रः शत्रुरपण्डितः ॥ ॥११॥
ऋण करने वाला पिता शत्रु है, व्यभिचारिणी माता शत्रु है; रूपवती पत्नी शत्रु है, और अपण्डित पुत्र भी शत्रु है।
सामाजिक संस्थाओं की संरचना में परिवार सर्वाधिक निकटतम इकाई है, किन्तु उसके भीतर भी यदि भूमिका-विरोध उत्पन्न हो जाता है, तो वह संरचना संरक्षण नहीं, विनाश की ओर ले जाती है। यहाँ ऋणकर्ता पिता की उपमा शत्रु से दी गई है—यह केवल आर्थिक दायित्व की बात नहीं है, अपितु उत्तरदायित्व की अक्षमता और भावी पीढ़ी पर अनावश्यक भार थोपने की भी बात है। जब पिता ऋण में आकंठ डूबा होता है, तो उसकी संतति केवल उसका बोझ वहन करती है—उसके संस्कार, उसकी स्वतंत्रता, उसका आत्मगौरव—सब कुछ ऋण के नीचे दब जाता है। ऐसा पिता पुत्र का पालक नहीं, अपितु उसके भविष्य का अपहरणकर्ता हो जाता है।
माता का व्यभिचारिणी होना, केवल व्यक्तिगत नैतिकता का पतन नहीं दर्शाता—यह पारिवारिक व्यवस्था की मूल आत्मा का पतन है। माता का धर्म केवल शारीरिक नहीं, वह सांस्कृतिक और नैतिक स्थायित्व का स्तम्भ है। जब वह स्वयं उस स्तम्भ को गिरा देती है, तो न केवल संतान की मूल पहचान छिन्न-भिन्न होती है, बल्कि कुल का सांस्कृतिक आधार भी चूर्ण हो जाता है।
रूपवती पत्नी का शत्रु स्वरूप इस अर्थ में आता है कि रूप यदि विवेक, सीमापालन और चरित्र से रहित हो, तो वह केवल आकांक्षा और ईर्ष्या का केन्द्र बनता है—नियंत्रण नहीं, आकर्षण नहीं, बल्कि विघटन और असंतुलन का कारण बनता है। वह रूप यदि संयमहीन हो, तो वह गृहस्थाश्रम को स्वप्न नहीं, संकट बना देता है। यहाँ रूप की निन्दा नहीं है, अपितु उसकी आत्मानुशासित उपयोगिता की मांग है।
अपण्डित पुत्र शत्रु है—इसका तात्पर्य केवल शिक्षा की औपचारिकता नहीं, अपितु संस्कार, विवेक और बौद्धिक अनुशासन की अनुपस्थिति है। पुत्र यदि पण्डित न हो—अर्थात, यदि वह शास्त्र, धर्म, आचार और व्यवहार में निपुण न हो, तो वह केवल उत्तराधिकार का वाहक नहीं, उत्तरदायित्व का अपहरणकर्ता बनता है। ऐसा पुत्र केवल कुल की प्रतिष्ठा को क्षति नहीं पहुँचाता, अपितु उस परम्परा को भी कलंकित करता है, जो उसके पूर्वजों ने अर्जित की थी।
सत्य यह है कि परिजन मात्र निकटता से मित्र नहीं होते; भूमिका और गुण यदि विपरीत हो जाएँ, तो वही निकटस्थ शत्रु बन जाते हैं। शत्रुता सदैव बाह्य नहीं होती—वह घर के भीतर, अंतरंगता के आवरण में, कृत्रिम स्नेह के मुखौटे में भी पलती है। शत्रुता का सार भावविरोध, दायित्वत्याग और आत्महित की प्राथमिकता में छिपा होता है। जब व्यक्ति स्वयं के स्वार्थ को कुल, धर्म, और समाज के ऊपर रखता है, तब वह—even unwittingly—शत्रु बन जाता है। यही वह स्थायी त्रासदी है जो पारिवारिक विघटन की जड़ में बैठी है।