मूर्खं छन्दोऽनुवृत्त्या च यथार्थत्वेन पण्डितम् ॥ ॥१२॥
यहाँ चार प्रकार के व्यक्तियों को नियंत्रित करने की युक्तियाँ दी गई हैं, जिनके चित्तवृत्तियाँ भिन्न हैं—लोभी, अहंकारी, मूर्ख तथा पण्डित। प्रत्येक की प्रवृत्तियाँ विशिष्ट होती हैं, इसलिये उनके प्रति व्यवहार की नीति भी भिन्न होनी चाहिए।
लोभ की वृत्ति बाह्य सुखसाधनों की ओर आकर्षित होती है। उसे किसी तर्क या नैतिकतासे वश में करना कठिन है, क्योंकि उसकी चेतना पहले ही तृष्णा में लिप्त होती है। ऐसे में यदि कोई उपाय सफल हो सकता है, तो वह है—धन, जो उसकी प्राथमिक प्रेरणा है। यही कारण है कि अर्थ को यहाँ साधनस्वरूप प्रस्तुत किया गया है—न अनुकरणीय आदर्श, न त्याज्य दुर्गुण, बल्कि केवल एक मनोवृत्तिपरिहाराय उपयोगी उपकरण। यह युक्ति यह भी दर्शाती है कि नीति में साधन के नैतिकतत्त्व को नहीं, प्रभावशीलता को अधिक महत्त्व प्राप्त होता है।
स्तब्धता—यह अहं का रूप है जो सम्मान, वर्चस्व या आत्म-महत्त्व के अतिक्रमण में प्रकट होता है। ऐसा व्यक्ति शाब्दिक विनय से प्रभावित नहीं होता, वह तो केवल व्यवहारिक संकेतों से ही समझता है। “अञ्जलिकर्मणा”—अर्थात् हाथ जोड़कर सेवा करने की क्रिया, जो केवल शारीरिक क्रिया नहीं, बल्कि एक विनम्र वृत्ति का प्रदर्शन है। यहाँ यह संकेत है कि जब अहं को पराजित करना हो, तो उसे चुनौती देकर नहीं, स्वयं को लघु कर दिखाकर जीतना होता है।
मूर्ख वह है जो न तर्क से चलता है, न अनुभव से, बल्कि स्ववृत्तियों का दास होता है। उसे साधने के लिए “छन्दोऽनुवृत्त्या”—अर्थात् लययुक्त चमत्कार, आकर्षक अनुकरण—की आवश्यकता होती है। यह एक प्रकार का मनोवैज्ञानिक युक्तिप्रयोग है, जहाँ बौद्धिकता को नहीं, संवेदन को स्पर्श करके हृदय को जीतने का प्रयास होता है।
पण्डित अर्थात् विद्वान को मात्र ज्ञान नहीं, यथार्थ का अनुग्रह चाहिए। उसका सन्तोष न प्रशंसा से होता है, न दिखावे से, बल्कि यथार्थबोध से। उसे जीतने का एकमात्र उपाय है—सत्य के साथ न्याय। यह राजनीति का दुर्लभ आयाम है, जहाँ सत्ताभिलाषा की बजाय सत्यनिष्ठा का समादर किया जाता है।
यह विवेचन चार भिन्न मनोवृत्तियों पर आधारित है—तृष्णा, अहंकार, अज्ञानता एवं विवेक। प्रत्येक के लिए नीति का मार्ग भिन्न है, और यह भिन्नता एक ही समय में किसी एक सामाजिक संरचना में भी घटित हो सकती है। यह दृष्टिकोण यह भी स्पष्ट करता है कि नीति केवल बाह्य चालबाजी नहीं, अपितु गहन मनोविज्ञान की साधना है। इसमें व्यक्ति को “विजयी” बनने की इच्छा नहीं, अपितु “समझने” की योग्यता अर्जित करनी होती है। इसी कारण यह दृष्टिकोण केवल रणनीति नहीं, चिन्तन की प्रक्रिया बन जाता है।
प्रश्न यह नहीं कि नीति किसे वश में कर सकती है, प्रश्न यह है कि व्यक्ति किसे कितना समझ सकता है। यह समझ जितनी गहरी होती है, नियंत्रण उतना ही सूक्ष्म और प्रभावी होता है।