वरं न शिष्यो न कुशिष्यशिष्यो वरं न दार न कुदरदारः ॥ १३॥
विवेकशील चयन का अभाव मनुष्य को केवल दुःख ही नहीं, अपितु विनाश की दिशा में भी ले जा सकता है। बाह्य वस्तुओं की उपलब्धता से अधिक महत्वपूर्ण होता है उनका स्वरूप—किस प्रकार का राज्य, किस प्रकार का मित्र, शिष्य या पत्नी। यह विचार अत्यन्त बारीकी से नैतिकता, सामाजिक संरचना और जीवन की गूढ़ता को स्पर्श करता है।
कुराजराज्य वह शासन है जहाँ अन्याय, अत्याचार, स्वेच्छाचार, और धर्मविरोधी कृत्य प्रश्रय पाते हैं। ऐसा राज्य मात्र राजनीतिक समस्या नहीं, अपितु आत्मिक पतन का कारण होता है, जहाँ नागरिक भय, शोषण और अव्यवस्था में जीते हैं। ऐसी स्थिति में राज्य का अभाव अधिक हितकारी हो सकता है, जहाँ स्वतन्त्रता, भले ही सीमित हो, परन्तु भयविहीन होती है। यह वाक्य किसी भी बाह्य सत्ता के मूल्यों को आन्तरिक न्याय और नीतिसंगत शासन के साथ तुलनात्मक रूप में देखने का आग्रह करता है।
मित्रता का स्वरूप भी यथार्थ का मानदण्ड माँगता है। एक 'मित्र' केवल समीपता नहीं, अपितु भरोसे, स्नेह, और नैतिक सहारे का प्रतीक होता है। कुमित्र अर्थात् ऐसा व्यक्ति जो मित्र के वेश में छद्म, कपट और स्वार्थ की प्रवृत्तियों को रखता हो—वह हानिकारक होता है, क्योंकि उसके द्वारा उत्पन्न विश्वासघात और मानसिक विषाक्तता स्पष्ट शत्रु की अपेक्षा अधिक गहन पीड़ा देती है।
शिष्यगण ज्ञान का संवाहक बनते हैं, किन्तु यदि शिष्य दूषित बुद्धि, अहंकार, या अवज्ञा से युक्त हो, तो वह केवल गुरु को ही नहीं, समाज और परम्परा को भी अपकर्षित करता है। कुपात्र को विद्या देना ऐसा ही है जैसे विषैले पात्र में अमृत डालना—वह न केवल स्वयं को, अपितु दूसरों को भी विषाक्त कर देता है।
पत्नीगृहिणी धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सभी पुरुषार्थों में सहभागी होती है। यदि वह सुमति, धर्मनिष्ठा, और सहृदयता से युक्त हो, तो जीवन का सौन्दर्य बनती है; परन्तु यदि वह दोषयुक्त स्वभाव, कलहप्रियता, या अनाचार की ओर प्रवृत्त हो, तो वह नरक का कारण बन सकती है। ऐसे में पत्नी का अभाव भी अपेक्षाकृत सुखप्रद हो सकता है।
यह दृष्टिकोण केवल निषेधात्मक नहीं, अपितु विवेकशील स्वीकृति की भी माँग करता है। यह सूक्ष्मता से इस बात पर बल देता है कि 'अस्तित्व' से अधिक 'स्वरूप' का मूल्यांकन किया जाए। यह प्रश्न खड़ा करता है—क्या किसी सम्बन्ध, संस्था या पद की उपस्थिति मात्र उसका औचित्य सिद्ध करती है? अथवा उसका मूल्यांकन उसके गुण, नीयत और प्रभाव से किया जाना चाहिए?
सामाजिक सम्बन्ध, सत्ता और ज्ञान के क्षेत्र में, यह विचार अत्यन्त यथार्थवादी चेतावनी प्रस्तुत करता है कि हर वस्तु, सम्बन्ध या संस्था, यदि विकृत हो जाए, तो वह अपने मूल प्रयोजन के विपरीत कार्य करने लगती है—और तब, उसका अभाव ही अधिक श्रेष्ठ विकल्प हो सकता है।