श्लोक ०६-१४

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
कुराजराज्येन कुतः प्रजासुखं कुमित्रमित्रेण कुतोऽभिनिर्वृतिः ।
कुदारदारैश्च कुतो गृहे रतिः कुशिष्यशिष्यमध्यापयतः कुतो यशः ॥ ॥१४॥
दुराचारी राज्य से प्रजाओं को सुख कहाँ? कपटी मित्र से जीवन में पूर्णता कहाँ?
दुष्ट स्त्री और सेविकाओं के साथ घर में अनुराग कहाँ? दुष्ट शिष्य को पढ़ाने वाले को यश कहाँ?

जीवन की स्थिरता चार स्तंभों पर टिकी होती है — सत्ता, मित्रता, दाम्पत्य और शिक्षा। ये ही चार स्तंभ जब अपने शुद्ध स्वरूप में हों, तब समाज और व्यक्ति दोनों सशक्त, शांत और समृद्ध होते हैं। परन्तु जब इनकी बुनियाद ही दूषित हो, तो जीवन की समूची संरचना भीतर से सड़ने लगती है। न्यायहीन और अत्याचारी सत्ता में प्रजासुख की कल्पना करना ही भ्रम है। ऐसा राज्य भय, अन्याय और असुरक्षा को जन्म देता है; जहाँ न तो स्वतंत्रता रहती है, न ही विवेक का उपयोग संभव होता है। प्रजा केवल एक संसाधन बन जाती है—उत्पीड़न के लिए।

मित्रता का मूल्य आत्मीयता, समर्पण और निष्कलंक विश्वास में है। एक कपटी मित्र जो मुख से स्नेह प्रकट करता है पर भीतर से द्वेष पालता है, वह केवल विनाश की दिशा में ले जाता है। ऐसा व्यक्ति सलाह देता नहीं, बहकाता है; साथ देता नहीं, धक्का देता है। उस मित्रता में पूर्णता, समृद्धि और मनोबल की कोई संभावना नहीं होती—सिर्फ भ्रम और पतन का बीज पलता है।

गृहस्थ जीवन की आत्मा है दाम्पत्य। यदि पत्नी अथवा पति दुष्ट, स्वेच्छाचारी या पतनोन्मुख हो तो वह गृहस्थी विष से अधिक भयंकर बन जाती है। जहाँ प्रेम की जगह अविश्वास हो, सेवा की जगह उपेक्षा, और सहधर्म की जगह केवल भोग की वृत्ति—वहाँ घर का अनुभव नरक से कम नहीं। अनुराग की भावना वहीँ जन्म लेती है जहाँ चित्त, उद्देश्य और मूल्यों में एकरूपता हो; वरना वह स्थान केवल ईंटों का ढाँचा बनकर रह जाता है।

शिक्षा का मूल उद्देश्य केवल ज्ञान संप्रेषण नहीं, चरित्र निर्माण है। किन्तु यदि शिष्य ही अवज्ञाकारी, प्रमादी और संस्कारहीन हो, तो गुरु का परिश्रम केवल क्लेश बन जाता है। शिक्षा तब सफल होती है जब जिज्ञासा, विनय और श्रद्धा शिष्य में विद्यमान हो। यदि ये नहीं हों, तो गुरु केवल अपनी विद्या का अपमान देखता है—यश नहीं, अपयश का भागी बनता है।

सभी चार स्थितियाँ इस एक गहरे सत्य की ओर संकेत करती हैं — केवल पद, सम्बन्ध, स्थिति या भूमिका ही पर्याप्त नहीं होती; उनमें निहित गुण ही उनके वास्तविक मूल्य का निर्धारण करते हैं। सत्ता केवल सिंहासन से नहीं, न्याय से पवित्र होती है। मित्रता केवल साहचर्य से नहीं, अंतःकरण की निर्मलता से उपजती है। दाम्पत्य केवल साथ रहने से नहीं, जीवनमूल्यों के समन्वय से फलीभूत होता है। शिक्षा केवल ज्ञान के आदान-प्रदान से नहीं, आत्मा के संस्कार से प्रभावी बनती है। यदि गुण न हों, तो सम्बन्ध भार बन जाते हैं, और जीवन विष।

इस बोध से एक गंभीर प्रश्न भी उभरता है—क्या समाज में ऐसे दोषों की पहचान पर्याप्त है, या उनसे मुक्ति का उपाय भी संभव है? क्या हम इन संबंधों में गुण का निर्माण कर सकते हैं, या केवल दोष का निषेध करना ही पर्याप्त मान लेते हैं? और यदि व्यक्ति, सम्बन्ध या संस्था गुणहीन हो, तो क्या उनसे सम्बन्ध बनाए रखना धर्म है या मूर्खता?