श्लोक ०६-०४

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
भ्रमन्सम्पूज्यते राजा भ्रमन्सम्पूज्यते द्विजः ।
भ्रमन्सम्पूज्यते योगी स्त्री भ्रमन्ती विनश्यति ॥ ०६-०४ ॥
घूमता हुआ राजा पूजनीय होता है, घूमता हुआ ब्राह्मण पूजनीय होता है, घूमता हुआ योगी भी पूजनीय होता है; परन्तु घूमती हुई स्त्री नष्ट हो जाती है।

गतिशीलता के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण का यह कथन विशिष्ट विरोधाभास प्रस्तुत करता है। सत्ता, ज्ञान और साधना के क्षेत्र में गतिशीलता को यश और सम्मान से जोड़ा गया है; वहीं स्त्री की चलायमानता को विनाश की ओर उन्मुख माना गया है। यह दृष्टिकोण न केवल सामाजिक संरचनाओं की असमानताओं को उजागर करता है, अपितु यह भी दर्शाता है कि समाज में किसे गति की स्वतंत्रता है और किसे नहीं।

राजा की भ्रमणशीलता उसके शासन विस्तार, जनसम्पर्क और सत्ता की स्वीकार्यता से जुड़ी हुई है। एक स्थान पर रुका हुआ शासक अपनी प्रजा की नब्ज़ से कट सकता है; परिभ्रमण के माध्यम से वह अपने अधिकार और नीति का प्रचार करता है, और जनमानस में अपनी उपस्थिति बनाए रखता है। इसी प्रकार, ब्राह्मण या द्विज जब याज्ञिक कार्यों या शास्त्रप्रसार के लिए विचरण करता है, तब वह ज्ञान का संवाहक बनता है — उसकी गतिशीलता धर्म और परम्परा के अनुकरण की भूमिका में है। योगी की गतिशीलता, तप और त्याग की प्रक्रिया के रूप में देखी जाती है; वह विरक्ति और सार्वभौमिक दृष्टि से प्रेरित होकर न बंधता है, न ठहरता है। अतः समाज उन्हें गति के साथ भी आदर देता है।

परन्तु स्त्री के सन्दर्भ में यह कथन एक कटु सामाजिक सीमांकन करता है — उसकी भ्रमणशीलता, चाहे वह आत्मान्वेषण की हो या सामाजिक स्वायत्तता की, समाज के लिए 'विनाश' के रूप में चिन्हित की जाती है। यह समाज में स्त्री की गतिशीलता के प्रति असुरक्षा, शंका और नियंत्रण की मानसिकता का द्योतक है। स्त्री की गति को सामाजिक विघटन से जोड़ा गया — जैसे वह घर के बाहर गई तो पारिवारिक संरचना टूटेगी, मर्यादा लंघित होगी, और सामाजिक संहिता बिखरेगी।

यहाँ 'विनश्यति' शब्द केवल भौतिक विनाश का नहीं, बल्कि सामाजिक बहिष्कार, मर्यादा-ह्रास और प्रतिष्ठा-नाश का सूचक है। स्त्री की स्वतंत्रता को यदि भ्रमण के रूप में परिभाषित किया जाए, तो यह स्पष्ट होता है कि यह केवल उसकी शारीरिक गति के विरुद्ध नहीं, अपितु आत्मनिर्णय और अस्तित्व की गति के भी विरोध में है।

इस विरोधाभासी स्थिति से एक गहरा दार्शनिक प्रश्न उठता है — क्या गति स्वयं में कोई नैतिक मूल्यवत्ता रखती है, या उसका मूल्य संदर्भ और कर्ता के आधार पर निर्धारित होता है? यदि गति ज्ञान, शासन, साधना के लिए आदरणीय है, तो वह स्वतन्त्रता और चेतना के लिए क्यों वर्जनीय हो जाती है, विशेषकर जब वह स्त्री के द्वारा संपन्न हो?

यह पाठ हमें सामाजिक दृष्टिकोणों की संरचना पर पुनर्विचार के लिए विवश करता है — जो पुरुष के सन्दर्भ में गतिशीलता को अधिकार और साधना का पर्याय मानते हैं, वही स्त्री के लिए उसे पतन और अनाचार का मार्ग घोषित करते हैं। ऐसी मान्यताएँ केवल परम्परा की नहीं, अपितु सत्ता और नियंत्रण की भी संरक्षक बनती हैं।

परिभ्रमण, जब विवेक, संकल्प और साधना से प्रेरित हो, तब वह चेतना का विस्तार बनता है। किन्तु जब वही गति किसी पूर्वग्रह से परिभाषित होती है, तब वह व्यक्ति की गरिमा को ही नकार देती है। स्त्री की गतिशीलता को नष्टकारी कहने से पहले, यह पूछा जाना चाहिए — कौन से मूल्य और भय उस गति को नियंत्रित करने के लिए संरचित किए गए हैं?